दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही
निराला जी की ये पंक्तियाँ जितनी हिंदी काव्य के महाप्राण निराला के जीवन को उद्घाटित करती हैं उतनी ही हमारे कथा साहित्य में अप्रतिम स्थान रखने वाले रमेश चंद्र सिंह मटियानी का, जिन्हें विश्व साहित्य शैलेश मटियानी के नाम से जानता है. जुआरी बिशन सिंह के बेटे और बूचड़ के भतीजे के रूप में दुत्कारित यह ’मुल्या छोरा’ किस प्रकार हिंदी साहित्याकाश का दैदिप्यमान नक्षत्र बना यह अपने आप में कम रोचक कथा नहीं है. उनका साहित्य वस्तुतः उनके जीवन का विस्तार है जो कुछ भोगा वही शब्दों में ढाला. उनके पास लेखन के लिये इतना भी समय नहीं था कि वह अपने लेखन का सौंदर्यीकरण कर पाते, दस-बीस पृष्ठ लिखे नहीं कि दो पैसे की चाह में उन्हें छपवाने भेज दिया करते थे. लेखन उनके लिए जुनून के साथ-साथ आजीविका कमाने का साधन भी था. लेखन उनके जीवन का लक्ष्य तब बन गया था जब उन्हें ’’सरस्वती का कीमा काटने वाला’’ कहा गया था. उस दिन दीवार पर अपना सर मारकर उन्होंने सरस्वती माँ से न केवल लेखक बनाने की भीख मांगी वरन् प्रण किया कि वह लेखक बनकर ही रहेंगे. उनके इस प्रण के ही सुखद परिणाम से हिंदी साहित्य ही नहीं विश्व साहित्य को यह अप्रतिम लेखक मिला.
(Remembering Shailesh Matiyani)
बाड़ेछीना (अल्मोड़ा) के छोटे से कस्बे से विश्व पटल पर छाने वाले इस लेखक के लिये जीवन कितना दुष्कर था, उससे हिंदी का हर पाठक भली भाँति परिचित है. अल्मोड़ा से लेकर इलाहबाद, मुज्जफरनगर ,दिल्ली, मुंबई जहाँ कहीं भी वह गये जीवन ने हर जगह, हर कदम पर उनका कड़ा इम्तिहान लिया. इस इम्तिहान में माँ-बाप के लाड़-प्यार से वंचित, गोर-बछेरू चुगाता, दूसरों की दया पर आश्रित, लक्ष्मण सिंह तिलारा मास्साब की दया पर पुनः विद्यालय का मुँह देखने वाला, कसाई के निर्मम काम को करने के लिए विवश सहृदय बालक मुंबई व दिल्ली जैसे महानगरों में बरतन धोने से लेकर अन्य निकृष्टतम काम करने को विवश उस आदमी के विभिन्न अवस्थाओं के असंख्य चित्र हैं जो उनके कथा साहित्य में यत्र-तत्र अनायास ही दिख जाते हैं.
लेकिन कहते हैं न कि प्रतिभा साधनों की मोहताज नहीं होती, तो फिर प्रतिभा के शिखरस्थ पुरुष शैलेश मटियानी को कौन रोक सकता था? मात्र तेरह वर्ष की उम्र से अपने साहित्य लेखन की शुरुआत करने वाले शैलेश मटियानी पंद्रह वर्ष की उम्र में एक पुस्तक के लेखक थे. अपनी ’आमा’ के किस्से-कथाओं से कथाओं के अद्भुत संसार का परिचय पाने वाले बालक रमेश सिंह में कथा कहने की निराली समझ और विलक्षण शैली थी. जागर कथाओं, पुराण कथाओं और लोक के ताने-बाने से रचा उनका रचना संसार यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़ा था. वस्तुतः अगर यह कहा जाय कि जीवन की विषम कठोरताओं के बावजूद लेखकीय संवेदनाओं वसुकोमल भावनाओं के संप्रेषण में यह कथाकार अनुपम अद्वितीय है तो अत्युक्ति नहीं होगी. नारी मन की संवेदनाओं को जितनी संजीदगी से मटियानी जी ने अपने लेखन में संजोया वह उससे पहले नहीं दिखाई देता. यही कारण था कि अनेक आलोचकों ने उन्हें नारी विमर्श का पुरस्कर्ता भी कहा है.
शैलेश मटियानी ने जीवन संघर्षों की उजली आग में अपने साहित्य को तपा कर साँचे में ढाला है. उनके साहित्य में दलित-दमित मानवता की कराहटें पूर्ण रूप से मुखरित है. शैलेश मटियानी प्रेमचंद, प्रसाद और यशपाल की परम्परा के कथाकार और उपन्यासकार हैं. वे कल्पना जीवी नहीं अपितु सत्यान्वेषी यथार्थ के पक्षधर थे. उनका साहित्यिक अवदान अथाह है. 30 से अधिक कहानी संग्रह, 31 उपन्यास, 3 संस्करण, 12 निबन्ध, अपूर्ण अप्रकाशित उपन्यास, 15 बाल साहित्य की पुस्तकें लिखने वाले शैलेश जी विकल्प और जनपक्ष के कालजयी संपादक एवं क्रान्तिदर्शी विचारों के उद्गाता साहित्यकार थे. प्रेमचन्द परम्परा के संवाहक लोकधर्मी लेखक शैलेश मटियानी जी का पूरा नाम रमेशचन्द्र सिंह था. 14 अक्टूबर 1931 को ग्राम बाड़ेछीना जनपद अल्मोड़ा में जन्में मटियानी जी हिन्दी कथा जगत को उत्तराखण्ड की अनुपम देन है. अपने अभाव ग्रस्त अधूरे शिक्षित जीवन की विषमताएं कभी भी उनकी अदम्य लेखकीय जिजीविषा को पराजित नहीं कर पायीं. छोटी सी उम्र में अपने छोटे भाई और फ्रॉक पहनकर स्कूल के बाहर चने वगैरह बेचती बहन को छोड़कर कुछ करने की आशा में बाहर निकला यह युवक जहाँ भी गया कठिनाइयों ने इसका पीछा नहीं छोड़ा. किंतु जिस जिजीविषा से इस लेखक ने सब कष्टों पर पार पाया और सतत् रूप से इन विषम स्थितियों में भी अपने लेखन को जारी रखा वह किसी स्वप्न कथा या ’पांवड़े’ से कम नहीं है. ’’पर्वत से सागर तक’’ नामक उनका यात्रा संस्मरण बाड़ेछीना से इलाहबाद, इलाहबाद से मुज्जफरनगर, वहाँ से दिल्ली और फिर दिल्ली से मुंबई पहुँचने के संघर्ष का जीवंत दस्तावेज है.
शैलेश मटियानी ने अपने कथा साहित्य में बेधड़क मानवीय जीवन की गहराइर्यों को खंगालते हुए हमारे सम्मुख समाज के अन्तर्विरोधों के शिकार निम्न वर्गीय वंचितों, शोषितों एवं भूखें नंगों का दर्द बड़े मनोयोग से उजागर किया है. ‘दो दुखों का एक सुख’, ‘इब्बू मलंग’, ‘जिबूका’, ‘महाभोज’, ‘प्रेत मुक्ति’, ‘गोपाल गफूरन’, अहिंसा और ‘पोस्टमैन’ सरीखी दर्जनों कहानियाँ उनकी श्रेष्ठ लेखन कला का बेजोड़ नमूना हैं. शैलेश मटियानी ने पर्वतीय अंचलों को अपने कथा साहित्य का आधार बनाया है. कूर्मांचल की स्वाभाविक पर्वतीय शोभा और वहाँ के निवासियों की निद्र्वन्द्व मानसिक स्थिति, सुख-दुःख का उद्घाटन करना ही लेखक का मूल ध्येय रहा है. ’चिट्ठी रसैन’, चैथी मुट्ठी, हौलदार, मुखसरोवर के हंस तथा एक मूठ सरसों आदि उनकी विशिष्ट आंचलिक कृतियाँ मानी जाती है. सूक्ष्म मनोभावों का वर्णन इनकी कथा शैली की एक विशेषता है.
(Remembering Shailesh Matiyani)
लोकजीवन की झांकियों को अपनी कथाओं के माध्यम से उभारने के लिए मटियानी जी ने इसी शैली को माध्यम बनाया है. मटियानी जी की भाषा में आंचलिक शब्दों का प्रयोग स्पष्ट मिलता है. राजेन्द्र यादव उन्हें रेणु से पहले का और बड़ा आंचलिक कथाकार कहते थे तो यह स्वाभाविक ही था. वस्तुतः राजेन्द्र यादव, शैलेश जी के बड़े प्रशंसक थे और उनकी प्रतिभा से बखूबी परिचित भी. वह अकसर कहा करते थे-’’मटियानी हमारे बीच वह अकेला लेखक है जिसके पास दस से भी अधिक नायाब और बेहतरीन कहानियाँ हैं.’’
नारी टूटन, स्वतन्त्र मानसिकता, शहरी जीवन निम्न मध्यम वर्ग का संघर्ष आदि उनके कथा साहित्य के मुख्य विषय है. उनके कथा साहित्य की भाषा सरलता सहजता एवं प्रवाहात्मकता लिए हुए हैं. लोकोक्तियों एवं मुहावरों को भी उनके लेखन में देखा जा सकता है- “अब देखिए चौधरी ब्रजपाल से अपनी हकीकत छिपाना दाईयों से पेट छिपाना है.” भाषा मर्मज्ञ होने से तथ्य और कथ्य को काट छांट व तराशकर प्रयोग में लाने का कौशल भी उनके पास था. उनमें करुणा की गहरी पकड़ थी और मानवीय संवेदनाओं की मार्मिक समझ जैसे कि उनकी कृतियाँ ‘बावन नदियों का संगम’, ‘मुठभेड़ अंहिसा’, ‘चंद औरतों का शहर’, ‘चौथी मुट्ठी’ आदि में स्पष्ट झलकता है.
बम्बई के अनुभवों को उन्होंने उत्कृष्ट कथा साहित्य में रूपान्तरित कर दिया जो उनके भाषा प्रयोग शिल्प और कहानी कला का ही चमत्कार था. अनेकों भाषाओं पर उनकी साधिकारिक पकड़ उनके लेखन में स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होती है. उनकी लम्बी कहानी ‘उपरान्त’ चिंतक, विचारक लेखक लियो तोल्सतोय के उपन्यास ‘डैथ ऑफ़ इवान ईविच’ की याद दिलाती है. यह कहानी उन्होंने हल्द्वानी में रहते हुये तब लिखी थी जब वह अपने पुत्र की मृत्यु से अवसाद और भयानक सिरोवेदना से गुजर रहे थे.
(Remembering Shailesh Matiyani)
शैलेश जी के कथा साहित्य में अद्भुत सघनता और दृश्यात्मक के साथ ‘सच’ की सच्ची तस्वरी उभरती है. एक ऐसा अद्भुत स्कैच बनता है जो उनमें कथा साहित्य से होता हुआ उनके व्यक्तित्व को पकड़ता है. संवेदनशीलता के महारथी मटियानी ने भोगे हुए यथार्थ को जिस शिल्प के साथ अपने रचना संसार में पिरोया वह बेजोड़ है. इसी कारण उनका कथा साहित्य सामाजिकता एवं व्यक्ति को केन्द्र में रखकर रचा गया. मानव संवेदनाओं की महीन कारीगरी उनकी रचनाओं को महान बना देती है. मटियानी जी के लेखन और जीवन को प्रतिबिम्बित करती उन्हीं की कविता की चंद पंक्तियां हैं जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समेटती हैं –
अपंखी हूँ मैं उड़ा जाता नहीं
गगन से नाता जुड़ा पाता नहीं
हर डगर पर हर नगर पर बस मुझे
चाहिये आधार धरती का…
सदा धरती का आधार लिए यह महान कथाकार जिसे जीवन में उपेक्षाओं और कठिनाइयों के कुछ नहीं मिला लेकिन उसके बावजूद जो लेखन और जीवन के मायने सिखा गया , 25 अप्रैल 2001 को अपने रचित लेखन संसार की अनंतता में खो गया.
(Remembering Shailesh Matiyani)
डॉ. अमिता प्रकाश
डॉ. अमिता प्रकाश, जीजीआईसी, द्वाराहाट में शिक्षिका हैं.
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