9 मई 1980 उत्तराखण्ड के इतिहास की सबसे काली तारीखों में से एक है. इस दिन कुमाऊं के कफल्टा (Remembering Kafalta Massacre) नाम के एक छोटे से गाँव में थोथे सवर्ण जातीय दंभ ने पड़ोस के बिरलगाँव के चौदह दलितों की नृशंस हत्या कर डाली थी. इसके बाद देश भर का मीडिया वहां इकठ्ठा हुआ था. दिल्ली से तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को भी मौके पर पहुंचना पड़ा था.
देवभूमि कहलाने वाले उत्तराखण्ड की सतह ऊपर से कितनी ही मानवीय और मुलायम दिखाई दे (Remembering Kafalta Massacre) सच तो यह है कि यहाँ के ग्रामीण परिवेश में सवर्णों और शिल्पकार कहे जाने वाले दलितों के सम्बन्ध सदी-दर-सदी उत्तरोत्तर खराब होते चले गए हैं. इस बात की तस्दीक एटकिन्सन का हिमालयन गजेटियर भी करता है. इन तनावपूर्ण लेकिन अपरिहार्य रिश्तों पर कफल्टा में पुती कालिख अभी तक नहीं धुल सकी है.
सारा मामला एक बारात को लेकर शुरू हुआ था. लोहार जाति से वास्ता रखने वाले श्याम प्रसाद की बारात जब कफल्टा गाँव से होकर गुजर रही थी तो गाँव की कुछ महिलाओं ने दूल्हे को घेर लिया और उसे पालकी से उतरने के लिए कहा. यानि दूल्हा गाँव में प्रवेश करने के बाद अगले छोर तक पैदल ही जाए.
दलितों ने ऐसा करने से मना कर दिया. इससे बौखलाई महिलाओं ने गाँव के पुरुषों को आवाज दी जिसके बाद गाँव में उन दिनों छुट्टी पर आये खीमानन्द नाम के एक फ़ौजी ने जबरन पालकी को उलटा दिया. ब्राह्मण खीमानन्द की इस हरकत से नाराज हुए दलितों ने उस पर धावा बोल दिया जिसमें उसकी मृत्यु हो गई.
अब बदला लेने की बारी ठाकुरों और ब्राह्मणों की थी. उन्होंने बारात पर हमला बोल दिया. अपनी जान बचाने को सभी बारातियों ने कफल्टा में रहने वाले इकलौते दलित नरी राम के घर पनाह ली और कुंडी भीतर से बंद कर दी. ठाकुरों ने घर को घेर लिया और उसकी छत तोड़ डाली. छत के टूटे हुए हिस्से से उन्होंने चीड़,चीड़ का सूखा पिरूल, लकड़ी और मिट्टी का तेल भीतर डाला और घर को आग लगा दी.
छः लोग भस्म हो गए और जो दलित खिड़कियों के रास्ते अपनी जान बचाने को बाहर निकले उन्हें खेतों में दौड़ाया गया और लाठी-पत्थरों से उनकी हत्या कर दी गयी. इस तरह कुल मिलाकर 14 दलित मार डाले गए. दूल्हा श्याम प्रसाद और कुछेक बाराती किसी तरह बच भागने में सफल हुए.
इन भाग्यशालियों में 16 साल का जगत प्रकाश भी था. घटना के कई वर्षों के बाद एक पत्रिका को साक्षात्कार देते हुए उसने कहा था – “कुछ देर तक भागने के बाद मेरी सांस उखड़ गई और ठाकुरों ने मुझे पकड़ लिया. वे मुझे वापस गाँव लेकर आये और मुझे उस जलते हुए घर में फेंकने ही वाले थे जब हरक सिंह नाम के एक दुकानदार ने पगलाई भीड़ को ऐसा करने से रोका और मुझे गाय-भैंसों वाले एक गोठ में बंद कर दिया. तीन दिन बाद मुझे पुलिस ने बाहर निकाला तो मैंने लाशों की कतार लगी हुई देखी!”
मारे गए लोगों में से दस एक ही परिवार के थे. बाकी उनके रिश्तेदार थे. मृतकों के नाम इस प्रकार थे –
इस घटना ने सारे देश को थर्रा दिया था. बाद में मुकदमे चले और निचली अदालत के साथ साथ हाईकोर्ट ने भी सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को बरी कर दिया लेकिन अंततः 1997 में न्याय हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने सोलह आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई. इन में से तीन की तब तक मौत हो चुकी थी.
9 मई उत्तराखण्ड के लिए सामूहिक शर्म का दिन होना चाहिए. अभी-अभी जब जात-पात की आंच में सुलगते हमारे इसी उत्तराखण्ड के एक दूसरे गाँव में एक निरीह दलित युवक की हत्या सिर्फ इसलिए हुई है कि वह एक बारात में सवर्णों की उपस्थिति में कुर्सी पर बैठ कर खाना खा रहा था तो हमने कफल्टा को याद करना चाहिए और अपने आप से सवाल पूछना चाहिए कि हम इस धरती के बाशिंदे कहलाने लायक हैं भी या नहीं! देवभूमि तो बहुत बाद की चीज है!
-काफल ट्री डेस्क
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Too shameful act ! Respect for each other Varna was missing which is the fine thread of binding our society . This respect has to be restored .
सदियों से हम लोग कितना अपमान सहते सा रहे हैं। किसी ने भी पीछे झाकने की कोशिश नहीं की। जब तक हम अलग अलग जातियों में बटे रहेगें तब तक ऐसी घटनाएं भविष्य में भी होती रहेंगी क्योंकि ऐसी घटना होने के कुछ दिनों बाद लोग भूल जाते हैं लेकिन कोई भी इसका कारण नहीं ढूढते हैं। इसका मुख्य कारण हमारे समाज का अनेकों जातियों, गुटों टुकड़ों में बटना।जब तक हम सभी एकता में नहीं रहेंगे ऐसी कायरता पूर्ण जातीय घटनाए होती रहेंगी ।हम सभी को अलग अलग जातियों में न बट कर सिर्फ अनुसूचित जाती में रहकर एकता में रहना चाहिए नहीं तो हमारा भी एक दिन नम्बर आ सकता है। क्योंकि उत्तराखंड में वैसे भी हमारी जनसंख्या 20% से 30%के बीच में ही है और हमें किसी अन्य जातियों का moral सपोर्ट भी नहीं है।
इसलिए यदि हम अलग अलग जातियों में बट कर सिर्फ एक ही जाति जिसे सिर्फ अनुसुजित जाति ही कहे, में संगठित होकर एक साथ रहें तो तभी उन गन्दी मानसिकता वालो का मुकाबला किया जा सकता है।
ओह! हमारे हाथ भी सने हैं खून से और मैं सोचता था कि हाशिमपुरा और भागलपुर जैसी घटनाओं के लिये उत्तराखंड आखिरी स्थान है।
जातिवादी घिनौने-हिंसक हत्याकांड के शिकार सभी मृतकों को भावभीनी श्रद्धांजलि एवं पीड़ित परिवारों के प्रति मार्मिक संवेदनाएं।??? सबसे बड़ा धर्म मानवता है और सबसे बड़ी जाति मानवीयता।???
जातिवादी घिनौने-हिंसक हत्याकांड के शिकार सभी मृतकों को भावभीनी श्रद्धांजलि एवं पीड़ित परिवारों के प्रति मार्मिक संवेदनाएं।??? सबसे बड़ा धर्म मानवता है और सबसे बड़ी जाति मानवीयता।???
वैसे #जातिवादीयों की छोड़ ही दो #लिब्रान्डू भी उस पहले मृतक #खीमानन्द की हत्या को जायज ठहराते नजर आ रहे हैं और ये न्यूज ब्लॉग भी क्योंकि वो ब्राह्मण था स्वर्ण था जिसकी नृशंस हत्या की गयी एक समूह द्वारा की गयी .. और उसके बाद जो हुवा वो क्या पहली हत्या से अलग था ?? क्या पहली हत्या तड़ी में एक जातीय-समूह ने नहीं की ??? क्या पहली हत्या के बाद हुवी हत्यायें उस पहली हत्या के जनाक्रोश में या प्रतिउत्तर में नहीं हुवी ??? अगर वो 14 हत्याओं में जातिवादी एंगल ढूंढा जा रहा हैं तो उस पहली हत्या में क्या वो मौजूद नहीं था ???
Aaj bhi aisa hi hota hai uttarakhand mai log cast ke dambh mai kisi ko bhi castism abusive language use krte haI har jagah castism hai uttarakhand mai jamin kharidne bechne se le kar rent room dene pani k dhare use krne mai log jati dekh kr nimantran dete hai chahe wo neighbours hi kyu na ho schools mai bhi wahi hal hai. Mai khud apni aankho se dekha hu
ये जातिवाद का जहर इतना खतरनाक है की इसका कोई तुरत इलाज भी नहीं
स्वयं के श्रेष्ठ होने की भावना ने इसे और बढ़ावा दिया है,
अधिकांश युवा पीढ़ी भी इस श्रेष्ठता से ग्रसित नजर आती है
कब तक ये जातिय दमन चलता रहेगा??? बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न है कि ये जातीय दमन इसलिए हैं कि ये पिछड़े वर्ग हिन्दू समाज के अंग हैं या फिर हिन्दू समाज से अलग है? मेरे ख्याल ये शोषित पिछड़ा वर्ग तथाकथित रुप से तो हिन्दू समाज जुड़ा हुआ है परंतु भावनात्मक और सामाजिक रुप से बिल्कुल अलग है इसिलिए इस समाज का सदेव दमन होता रहा है और होता रहेगा क्योंकि जब तक ये शोषित पिछड़ा वर्ग हिन्दू समाज से भावनात्मक और सामाजिक रूप से नही जुड़ेगा तब तक इनके साथ अत्याचार होता रहेगा ओर तथाकथित उच्च वर्ग इन पिछड़ो को अपने साथ जोड़ेगा नहीं। इसी वजह से इन शोषितो का शोषण होता ही रहेगा। अपने अस्तित्त्व को बचाने के लिए इन शोषित पिछड़े वर्गों को हिन्दू समाज से अलग होकर इनके समस्त रीति रिवाजों को छोड़कर अपनी अलग पहचान बनानी पड़ेगी। तभी जाकर इस वर्ग का अस्तित्त्व बचा रहेगा क्योंकि इन पर अत्यचार को बाकी समाज ज्यादा तवज्जों भी नहीं देता है और ना ही साथ देता है सिवाए चुनाव के दौरान वोट के अतिरिक्त।
मुझे तो इसमे कही भी जातिवाद नजर नही आ रहा, जब कुछ लोगो को मन्दिर मे आस्था थी तो उसका सम्मान करना चाहिए था.