भारतीय संस्कृति में नदियों को सर्वोच्च सत्ता के रुप में आसीन करने और उसे देवत्व स्वरुप प्रदान करने की अलौकिक परिकल्पना रही है. लोक में यह मान्यता प्रबल रुप से व्याप्त है कि नदियों का स्वभाव हमेशा से ही परोपकारी प्रवृति का रहा है. नदियां अपने जल से जीव जगत की प्यास बुझाकर उन्हें जीवनदान तो देती ही है वहीं अपने जल से वह अन्न को सिंचित कर प्राणियों का भरण पोषण भी करती हैं. यही नहीं वह अपने अन्दर समेटे असीम जल शक्ति से विद्युत पैदा कर जगत को आलोकित भी करती है.
(Ganga Dashahara in Uttarakhand)
नदियों के साथ हमारा भावनात्मक लगाव सदियों से जुड़ा रहा है. विश्व के अधिकांश प्राचीन तीर्थ स्थल, आश्रम व नगर नदियों के किनारे ही विकसित हुए. जहां से भारतीय संस्कृति नदी की धारा के साथ-साथ सतत रुप से फैलती रही. इन नदियों ने हमारे भारतीय समाज व साहित्य को कई मिथकों, लोक कथाओं तथा लोकगीतों की सौगात देकर समृद्धता प्रदान की है. देशज संस्कृति की अगुवाई करते कुंभ, महाकुंभ जैसे विशाल मेले नदियों के तट पर ही आयोजित होते हैं.
नदियों ने ही प्राकृतिक तरीके से कई गांव, इलाकों व राज्यों की सीमाओं का निर्धारण किया है. यहां नदियों के नाम पर व्यक्तियों व स्थान विशेष के नाम रखने की भी परम्परा रही है. कुल मिलाकर भारतीय परम्परा में नदियां सामाजिक सृजन व चेतना का प्रतीक बनकर उभरी हैं.
भारतीय संस्कृति में मनुष्य का जीवन व मोक्ष नदियों से ही जुड़ा हुआ है जिसमें गंगा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है. माना गया है कि गंगा मात्र धरती पर ही नहीं अपितु आकाश और पाताल में भी प्रवाहित होती है. इसी वजह से वह त्रिपथगा भी कहलायी. भारतीय लोक में सप्त नदियों के जल को बहुत ही पवित्र माना गया है.
स्नान-ध्यान के समय कहा जाता है कि सप्त नदियों यथा-गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा ,सिन्धु और कावेरी आदि सभी नदियों का पावन जल मेरे स्नान के लिए रखे गये जल पात्र में समाहित होकर हम सभी को पवित्र करे.
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती .नर्मदे सिन्धु कावेरी जले स्मिन सन्निधिं कुरु.
पौराणिक आख्यानों के अनुसार धरती में गंगा जी का अवतरण ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को माना गया है. इसीलिए इस तिथि को गंगा दशहरा का पर्व मनाया जाता है. धार्मिक दृष्टिकोण से इतर यदि हम पर्यावरणीय नजरिये से गंगा अवतरण की कथा और गंगा दशहरा पर्व की मान्यता देखें तो हमें इसमें साफ तौर पर हिमालय सहित सम्पूर्ण परिवेश को बचाये रखने का संवेदनशील भाव दिखायी देता है.
राजा भगीरथ के कठिन तप के बाद गंगा जब धरती पर आने के लिए राजी हो गयी तो संकट इस बात का था कि गंगा के प्रचंड वेग को धरती एक साथ नहीं संभाल पायेगी. अन्ततः समाधान के तौर पर उपाय आया कि यदि शिव अपनी विशाल जटाओं में गंगा के आवेग को समाहित करते हुए उसकी मात्र एक धारा छोड़ सकें तो धरती गंगा का वेग आसानी से संभाल सकती है. अंत में शिव ने गंगा को जटाओं में समेटने के बाद ही छोटी धारा को धरती पर छोड़ा.
यथार्थ में देखें तो हिमालय और अन्य पहाड़ (जलागम क्षेत्र) ही शिव की विशाल जटाओं के प्रतीक स्वरुप हैं जहां से प्रचंड वेग वाली गंगा विभाजित होकर अलग-अलग नदी धाराओं के रुप में उद्गमित होती हैं. सम्भवतः इसीलिए हमारे देश में सप्त नदियां गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी सहित अन्य सभी छोटी-बड़ी नदी को गंगा सदृश्य मानने की परम्परा रही है. मध्य हिमालयी भाग में हिमानी और गैर हिमानी स्रोतों से निकलने वाली कई आंचलिक नदियों के नाम गंगा से जुड़े हुए है यथा-रामगंगा, कालीगंगा, सरयू गंगा, गोमती गंगा, कैल गंगा, धौली गंगा व खीर गंगा आदि.
(Ganga Dashahara in Uttarakhand)
चार-पांच दशक पूर्व उत्तराखण्ड का गंगा दशहरा पर्व बरबस याद आ जाता है. यहां के कुमाऊं अंचल के गांव-कस्बों में दशहरा पर्व अत्यंत उल्लास के साथ मनाये जाने की परम्परा है. जेठ की तपती गरमी के बीच घर व मंदिरों के चैखटों में रंग-बिरंगे द्वार पत्र लगाये जाते हैं. गांव के कुल पुरोहित अपने हाथों से बनाने के बाद इन्हें जजमानों को दिया करते हैं और बदले में उन्हें दक्षिणा प्राप्त होती है.
स्थानीय मान्यता है कि यह द्वार पत्र सुरक्षा कवच की तरह काम करता है और इससे घरों की प्राकृतिक आपदा और वज्रपात से सुरक्षा होती है तथा चोरी, अग्नि आदि का भय व्याप्त नहीं रहता. दशहरा द्वार पत्र रंग-बिरंगी ज्यामितीय डिजायनों से अलंकृत रहते हैं.पुराने समय में रंग के लिए इनमें दाड़िम, किलमड, अखरोट व बुरांश सहित अन्य स्थानीय फूल-पत्तियों का प्राकृतिक रंग उपयोग में लाया जाता था. परंतु अब बाज़ार से छपे हुए दशहरा पत्र चलन में दिखाई देते हैं. दशहरा पत्र को पुरोहितों द्वारा सुरक्षा मंत्र से पूरित किया जाता है. इसमें लिखा एक श्लोक/मंत्र इस तरह का है-
अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च वैशम्पायन एव च
सुमन्तुजैमिनिश्चैव पञ्चते वज्रवारकाः
मुनेः कल्याणमित्रस्य जैमिनेश्चापि कीर्तनात्
विद्युदग्निभयं नास्ति लिखितं गृहमण्डले
यत्राहिशायी भगवान् यत्रास्ते हरिरीश्वरः
भङ्गो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा
इस दिन यहां के लोग प्रातःकाल होते ही सरयू व गोमती के संगम स्थल बागेश्वर, भागीरथी व अलकनंदा के संगम देवप्रयाग, ऋषिकेश हरिद्वार, रामेश्वर, थल सहित कई अन्य तीर्थ व संगम स्थलों में स्नान कर पुण्य अर्जित करते है. मान्यता है कि पहाड़ के लोक में हर छोटी-बड़ी नदी गंगा का ही प्रतिरूप है.
गंगा दशहरा पर्व के पीछे गंगा नदी द्वारा पृथ्वी में पहुंच कर वहां के जन-जीवन को तृप्त करने की जो लोक भावना दिखायी देती है उस दृष्टि से गंगा और इसकी सभी सहायक नदियों को भी गंगा के सदृश्य ही पवित्र समझा गया है. अतः प्रकृति में प्रवाहमान सभी जलधाराओं व नदियों को साफ सुथरा रखने औ उन्हें पर्याप्त संरक्षण प्रदान करने की हमारी यह लोक मान्यता भारतीय संस्कृति व दर्शन को अलौकिक और महान बनाती है. इस दिन यहां चीनी, सौंफ और कालीमिर्च के मिश्रण से स्वादिष्ट शरबत तैयार करने की भी परम्परा है. यह शरबत गंगा-अमृत जैसा माना जाता है. पहाड़ में यह मान्यता चली आयी है कि इस दिन इस शरबत के सेवन करने से लोग वर्ष पर्यन्त निरोग रहते हैं.
गंगा और उसकी समकक्ष नदियों को इतनी महत्ता मिलने के बावजूद भी हमारा समाज इनकी पवित्रता व शुद्धता को बरकरार रखने में असमर्थ साबित हो रहा है. जगह-जगह नगरीय आबादी का, प्लास्टिक व अन्य कूड़ा कचरा, सीवेज जल व कल कारखानों के खतरनाक रासायनिक अपशिष्ट प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तरीके से नदियों में जा रहा है.
नदी तट पर मूर्ति व पूजन सामग्री का विर्सजन, श्मशान घाटों में अधजले शवों को नदी में बहा देने से दिन-ब-दिन नदियों का प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है. पिछले वर्ष केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड की ओर से किये गये जल गुणवत्ता पर आधारित एक सर्वे के मुताबिक गंगोत्री से लेकर गंगा की खाड़ी तक उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश, बिहार व पश्चिम बंगाल तक 86 स्थानों पर बने मॉनीटरिंग स्टेशनों से केवल 7 स्थानों पर ही गंगा जल को शुद्ध करने बाद ही पीने योग्य बताया गया है. इनमें अधिकांश स्थान तो ऐसे हैं जहां का पानी नहाने लायक भी नहीं है. कमोवेश अन्य नदियों का हाल भी कुछ ऐसा ही माना जा सकता है. सही मायनों में देखा जाय तो हमारी भोगवादी जीवन शैली ही इन नदियों की सेहत को खराब कर रही है.
(Ganga Dashahara in Uttarakhand)
मौजूदा हालात में देश की नदियों में बढ़ता जा रहा प्रदूषण निश्चय ही चिन्ता का विषय है. हांलाकि नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की दिशा में कई महत्वपूर्ण योजनाओं पर कार्य भी हो रहा है परन्तु औद्योगिक इकाईयों की लापरवाही, आबादी के बढ़ते भार, पर्यावरण जागरुकता के न होने व दूरदर्शी सोच के अभाव से यह योजनाएं कारगर नहीं हो पा रही हैं. यह एक बड़ी विडम्बना ही है कि जिन नदियों को हम सदियों से पवित्र मानकर पूजते आये हैं उसकी वर्तमान दुर्दशा के प्रति हम अनभिज्ञ बने हुए हैं. सामयिक सन्दर्भ में देखें तो कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए देश में लॉकडाउन की जो प्रक्रिया अपनायी गयी उसकी वजह से वातावरण में अन्य प्रदूषणों के साथ-साथ जल-प्रदूषण के स्तर में भी उल्लेखनीय गिरावट देखने को मिली. इसके फलस्वरुप उत्तर भारत की गंगा, यमुना व हिंडन सहित कई नदियों की सेहत में काफी कुछ सकारात्मक सुधार देखने में आया है. अतः इस नजरिये से भी नदियों की साफ-सफाई की तरफ ध्यान देना उपयुक्त समझा जाना चाहिए.
नदियों की गिरती सेहत के सुधार के लिए राज्य व केन्द्र की सरकारों की ही जिम्मेदारी नहीं बनती अपितु समाज को भी इसके लिए आगे आने की जरुरत है. व्यक्गित व सामूहिक सहभागिता के जरिए हम इन लोककल्याणकारी नदियों की साफ-सफाई व सुरक्षा का प्रबन्ध कर सकते हैं. अन्यथा वह दिन भी दूर नहीं जब शनैः-शनैः हमारी नदियां अलोप होने लगेगीं और पौराणिक सरस्वती नदी की तरह यह नदियां भी एक इतिहास का पृष्ठ बन जायेंगी और सच में इसमें कोई संदेह भी नहीं.
(Ganga Dashahara in Uttarakhand)
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अल्मोड़ा के निकट कांडे (सत्राली) गाँव में जन्मे चन्द्रशेखर तिवारी पहाड़ के विकास व नियोजन, पर्यावरण तथा संस्कृति विषयों पर सतत लेखन करते हैं. आकाशवाणी व दूरदर्शन के नियमित वार्ताकार चन्द्रशेखर तिवारी की कुमायूं अंचल में रामलीला (संपादित), हिमालय के गावों में और उत्तराखंड : होली के लोक रंग पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वर्तमान में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में रिसर्च एसोसिएट के पद पर हैं. संपर्क: 9410919938
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