झक्क सफेद, बादामी अथवा क्रीम कलर का लखनवीं चिकन का कुर्ता, नीचे सफेद पायजामा अथवा सुनहरे किनारे वाली चिट्ट सफेद धोती, जो तहमतनुमा लिपटी रहती, गले में तुलसी माला, पांव में चप्पल अथवा कपड़े का कट शूज, हाथ में एक डण्डा अथवा लाठी और कन्धे पर लटकता झोला जिसमें रहती उनकी प्रिय बांसुरी, छरहरा वदन, सामान्य कदकाठी, गोरे चिट्टे मुंह पर गर्दन तक पीछे की ओर करीने से संवरे लम्बे काले बाल तथा आंखों में एक दिव्य चमक, कुछ इसी तरह के हुलिये में पिछली सदी के सत्तर के दशक में अनायास ही घर पर आ धमकते थे भवाली के देवी मास्टर.
(Remembering Devi Master Bhowali)
उस समय उनकी उम्र कोई 50-60 के बीच की रही होगी. यों तो पहले भी उन्हें कई बार देखा था लेकिन इस रूप में नहीं एक टेलर मास्टर के रूप में सिलाई मशीन घुमाते हुए. हमारे गांव कैंची से छुटपन में भवाली ही हमारा बाजार हुआ करता था. तब भवाली आज की तरह विकसित नहीं बल्कि एक बहुत ही छोटा कस्बा था और बाजार में गिने चुनी टेलरिंग की दुकानें थी. जहाँ तक मुझे याद है मुख्य रूप से तीन ही दुकानें हुआ करती – नाथू लाल मास्टर, अनारगली में राम लाल मास्टर और वर्तमान में जहां पर साह जनरल स्टोर है वहां चैसई टेलर की दुकान. शायद अल्मोड़ा के पास चैंसली गांव के मूल वाशिंदे होने के कारण ही दुकान का नाम पड़ गया चैसई टेलर की दुकान. उसी दुकान में बैठते थे देवी मास्टर अपनी सिलाई मशीन के साथ. कई नामों से पुकारते लोग उन्हें – देवीराम मास्टर, देवीदयाल अथवा गुरू जी. दरअसल कई लोगों को हारमोनियम सिखाई उन्होंने, उन्हीं में एक थे- मूलतः भवाली के प्रो. राकेश बेलवाल जो वर्तमान में सोहार यूनिवर्सिटी ओमान में प्राध्यापक हैं, उस्ताद के रूप में उनसे गुरू जी कहकर संबोधित करते.
साधु सन्तों की सेवा सुश्रुषा तथा उनके सानिध्य में रहकर आध्यात्मिकता का ज्ञान प्राप्त करना बचपन से उनका शौक रहा. 1925 में जन्मे देवी राम जी ने उस समय मिडिल तक की पढ़ाई की. तब मिडिल तक की पढ़ाई में अच्छी खासी नौकरी मिल जाया करती थी, लेकिन उन्होंने टेलर मास्टरी को अपनी आजीविका का माध्यम चुन लिया. क्योंकि जिस तरह आध्यात्मिकता की तलाश में घुमक्कड़ी प्रवृत्ति बन चुकी थी, नौकरी में यह संभव नहीं था.
विश्वविख्यात सन्त नीम करौली बाबा, नान्तिन महाराज, बाल योगश्वर सतपाल महाराज के अलावा मुक्तेश्वर धाम में बंगाल से आये एक सिद्ध महात्मा जी के पास भी वह अक्सर रहते. उस समय भवाली के कुंवर मिष्ठान्न भण्डार के चन्दन सिंह बिष्ट, मठपाल जी, सामाजिक कार्यकर्ता घनश्यामसिंह बिष्ट सहित देवी मास्टर भी उनके प्रिय शिष्यों में हुआ करते. आध्यात्मिकता का नशा कभी-कभी इस कदर हावी होता कि वे मानसिक रूप से विचलित हो जाते और अपना कारोबार तथा परिवार छोड़कर बिना बताये घर से निकल पड़ते. इस तरह की गतिविधियां अमूमन नवरात्रियों के दरम्यान अथवा कभी भी हो जाया करती. हफ्ता- पन्द्रह दिन के सांसारिक विरक्ति के बाद पुनः वे घर लौटते तथा अपनी सामान्य दिनचर्या में आ जाते.
शुरूआत में तो उनके इस तरह अचानक गायम होने पर परिजन परेशान हो जाया करते थे लेकिन बाद में परिजन भी अभ्यस्त से हो चुके थे, क्योंकि विरक्ति वश जब वह घर से निकलते तो उनका एक निश्चित अड्डा हुआ करता, भवाली से 8 किमी की दूरी पर कैंची धाम में हीराबल्लभ तिवारी के यहां. हीरा बल्लभ तिवारी का परिवार सड़क के ठीक ऊपर कैंची मंदिर के ठीक सामने रहता जब कि इस घर से 40-50 मीटर पहले सड़क की दूसरी तरफ भी उनका एक मकान था, जिसमें बहुत साल पहले प्रेमी बाबा भी रहते थे, वहीं देवी मास्टर कई-कई दिनों तक ठहर जाते. बाद में जब भी वे अचानक घर से गायब होते तो परिजन सहज अन्दाज लगा लेते कि वे निश्चित रूप से वहीं ठहरे होंगे. ढॅूढ खोज में जब परिजन उनके पास आते तो उन्हें घर वापस ले जाना आसान न था, जब तक कि वे स्वयं मानसिक रूप से घर लौटने को तैयार न हों.
(Remembering Devi Master Bhowali)
ऐसा नहीं था कि वे हमेशा यायावरी में ही रहते. उनका भरापूरा परिवार था, जिसकी जिम्मेदारी वे बखूबी निभाते. लेकिन कभी अनायास ही उन्हें एक प्रकार की विरक्ति कहें या चिन्तन की दिशा में परिवर्तन वे एकदम आध्यात्मिक चिन्तक की भूमिका में होते. प्रायः हम धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता में घालमेल कर धर्म या मजहब को ही आध्यात्मिकता का पर्याय समझ बैठते हैं. उनका चिन्तन विशुद्ध आध्यात्मिक होता जो किसी धर्म व मजहब से परे जीवात्मा व परमात्मा के बीच से संबंधित ज्ञान होता. बस यों समझ लीजिए कबीर के मार्ग के अनुगामी.
तत्व ज्ञान के गूढ़तम विषयों पर हमारे बड़े ददा स्व. मनोहर पन्त जी से उनकी लंबी चर्चाऐं होती, वे उनकी बातों को कितना समझते ये तो नहीं मालूम, लेकिन हमारे सर के ऊपर से निकल जाती. हकलाकर बोलते थे आर कभी-कभी कोई शब्द निकलने में जब मुंह से देर लगती तो हम उनकी भावभंगिमा से ही उनका आशय समझ जाया करते थे.
एक बार प्रसंगवश वे जीवात्मा व परमात्मा की स्थिति का कुछ इस तरह समझा रहे थे कि एक चिकना सा स्तम्भ है, जिसके नीचे जीवात्मा है और स्तम्भ के शीर्ष पर परमात्मा तक पहुंचने के लिए उसे इस फिसलन भरे स्तम्भ पर चढ़ना है, जीव ज्यों-ज्यों चढ़ने का अभ्यास करता है, फिसलकर पुनः नीचे सरककर आ जा जाता है, यही बाधा जीवात्मा को परमात्मा तक नहीं पहुंचने देती. जहां तक मैं समझता हॅू कि उनका ईशारा कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने से था. इस तरह के आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति उन्होंने साधु-सन्तों की संगत से अर्जित की, इसके साथ ही स्वाध्याय और चिन्तन, चिन्तन बस चिन्तन यही आधार रहा होगा उनके ज्ञानार्जन का.
ऐसी अवस्था में वे एक तरह से पागलपन की हद तक गुजर जाते, लेकिन सांसारिकता का बोध तब भी उन्हें रहता. बच्चों के साथ हंसी-ठिठोली करते और कभी कभी गाने भी सुना दिया करते. मुझे याद है अस्सी के दशक का चर्चित फिल्मी गाना “फूलों सा चेहरा तेरा, कलियों सी मुस्कान है ’’ हमें पूरा का पूरा सुना दिया था. संगीत की बारीकियों का तो हमें ज्ञान नहीं लेकिन कण्ठ बेशक बहुत सुरीला था उनका.
इसके अलावा उनका एक किरदार और भी था – भवाली की रामलीला में एक मंजे हुए हारमोनियम वादक का. हारमोनियम मास्टर के रूप में वे अपना योगदान तब तक देते रहे जब तक शरीर ने उनका साथ दिया. सालों तक भवाली की रामलीला में हारमोनियम वादन करते हुए उनके साथ तबले पर शुरूआत में संगत करते स्व. गोपाल व स्व. सोबन तथा बाद के वर्षों में मनोहर लाल मास्साब. मनोहर लाल मास्साब तो आज भी 78 वर्ष की उम्र में रामलीला में तबला वादन में अपना सहयोग देते आ रहे हैं.
लोग बताते हैं कि देवी मास्टर रामलीला में हारमोनियम वादन के साथ पाश्र्व गायन भी किया करते थे. बोलने में हकलाहट उनके गायन में कभी आड़े नहीं आई. हारमोनियम के अलावा बांसुरी भी उनका प्रिय वाद्ययंत्र हुआ करता जो हमेशा उनके पास रहता. इसके अलावा सितार व मृदंग पर भी वे बराबर का अधिकार रखते. साथ ही भवाली के रामलीला के कलाकारों को वे लय एवं ताल के साथ गायन का प्रशिक्षण भी उसी तन्मयता से देते. तब भवाली में सांस्कृतिक पर्वों के नाम पर रामलीला और होली ही मुख्य उत्सव हुआ करते. भवाली की होली गायन कार्यक्रमों में उनकी भूमिका अग्रणीय रहती.
(Remembering Devi Master Bhowali)
जीवन के अन्तिम पड़ाव में भी वे लखनऊ में अपने बेटे के साथ रहकर भवाली की यादों को अपने जीवन में संजोये रहे. दुर्भाग्यवश वर्ष 2013 में उनकी सहधर्मिणी श्रीमती भगवती भी उनका साथ छोड़कर परलोक सिधार गयी. लखनऊ में ही जब वे अपने बेटे रमेश चन्द्रा के निवास पर रूग्णशैया थे तो प्रो. राकेश बेलवाल की पहल पर भवाली की रामलीला में उनके योगदान को याद करते हुए क्षेत्रीय जनता की ओर से गिरीश बहुगुणा द्वारा उन्हें अक्टूबर 2016 में उनके लखनऊ स्थित आवास पर जाकर सम्मानित किया और यह संयोग ही था कि इस सम्मान को पाने के चन्द दिनों बाद ही 18 नवम्बर 2015 को 90 वर्ष की उम्र में वे इस असार संसार से विदा हो गये. वर्ष 2017 की भवाली की रामलीला तथा नन्दा देवी महोत्सव दोनों ही कार्यक्रम उनकी स्मृति में देवीराम मास्साब को सादर समर्पित किये गये.
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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