पितृ पक्ष निकट है और सनातनी समाज में इस अवसर पर अपने पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण एवं श्राद्ध का विधान है. देश के उत्तर से दक्षिण तक तथा पूरब से पश्चिम तक इस परम्परा का पालन हर हिन्दू समाज में प्रचलित है, भले विधि-विधान में आंशिक भिन्नता हो. यह भी मान्यता है कि पितरों का श्राद्ध पहले गया और उसके बाद ब्रह्मकपाली में करने के उपरान्त पितरों को मोक्ष मिल जाता है, फिर श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती. यों तो हमारी वैदिक परम्परा में श्राद्ध के कई प्रकार हैं लेकिन मुख्यतः हर वर्ष पितर ने जिस तिथि को देहत्याग किया हो, उस तिथि को किये जाने वाला श्राद्ध एकोदिष्ट श्राद्ध जब कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितृपक्ष में किया जाने श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है.
श्राद्ध हो या नामकरण, विवाह हो या यज्ञोपवीत, उत्तराखण्ड विशेष रूप से कुमाऊँ में हर रस्म का तरीका देश के अन्य क्षेत्रों से थोड़ा भिन्न पाया जाता है. फिर चाहे उसके पीछे भौगोलिक परिस्थितियां कारक रही हों अथवा सांस्कृतिक या सामाजिक. विवाह समारोह में रंग्वाली पिछौड़ा अथवा व्रतबन्ध की चौकी की अपनी अलग पहचान है.
इसी परम्परा के तहत बात अगर ’हवीक’ की करें, तो ये एक ऐसी पितृ क्रिया है, जिसमें श्राद्ध के पिछले दिन प्रातः तर्पण के उपरान्त पूरे दिन निराहार रहकर, सूरज डूबने से पहले गाय, कौऐ तथा कुत्ते को भोजन निकालकर ’हवीक’ करने वाला स्वयं केवल एक बार ही भोजन करता है. ‘हवीक’ शब्द कुछ ऐसा लगता है , जैसे यह अरबी अथवा फारसी भाषा का शब्द हो. जिज्ञासावश मैंने कई लोगों से इस संबंध में चर्चा की कि यह शब्द हमारी परम्परा में बाहर से क्यों लिया गया होगा? क्या हिन्दी अथवा संस्कृत में इसके लिए कोई शब्द नही मिला? फिर दूसरी सभ्यता के लोगों में यह कैसे प्रचलन में आया? प्रश्न यह भी है कि सूर्य डूबने से पहले भोजन के पीछे क्या कारण रहा होगा? खैर चिन्तन जारी रहा और अन्ततः समाधान भी मिल गया.
’हवीक’ के बारे में जानने से पहले हमें वैदिक परम्परा के अनुसार अग्नि के विविध रूपों को समझ लेना जरूरी होगा. यहां अग्नि के कार्य के अनुरूप विविध नामों से परिचय में निम्न श्लोक दृष्टव्य हैं—
अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते।
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभनरू।।
सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि।
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्निरू प्राशने च शुचिस्तथा।।
सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भवरू।
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।।
वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजकरू स्मृतरू।
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।।
प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहसरू।
लक्षहोमे तु वह्निरूस्यात कोटिहोमे हुताश्नरू।।
पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा।
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।।
वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषकरू।
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।।
इस प्रकार प्रयोग के अनुरूप अग्नि के कुल 49 प्रकार बताये गये है, जिसमें क्रोध व भूख को भी अग्नि के प्रकारों में शामिल किया गया है. भूख को जठराग्नि के नाम दिया गया है. जिस प्रकार यज्ञ में आहुति देकर हम मृड नाम अग्नि को समर्पित करते हैं, उसी तरह पेट की जठराग्नि को शान्त करने के लिए भोजन है. भोजन करते समय हम यों समझें की हम जठराग्नि को आहुति दे रहे हैं. आहुति को हव्य या हवि कहा जाता है. इस प्रकार ’हवीक’ (हवि + इक) शुद्ध संस्कृत शब्द है, जिसका आशय है जठराग्नि को इस दिन एक ही बार हवि देनी है अथवा भोजन एक ही बार करना है.
अब एक जिज्ञासा और होती है कि भोजन सूरज डूबने के पहले ही क्यों? रात्रि में क्यों नहीं. यह एक व्यावहारिकता पर आधारित तर्क है. पुराने समय में गौशालाएं घर से काफी दूरी पर बनी होती थी, इसलिए रात्रि में गौ-ग्रास देना थोड़ा कठिन था और स्वयं हवीक ग्रहण करने से पहले कौऐ और कुत्ते को भी भोजन देने का विधान है, कुत्ते को तो कराया जा सकता है, लेकिन रात में कौआ तो उपलब्ध होगा नहीं. इसीलिए यह बाध्यता हो गयी कि ’हवीक’ के दिन सूर्यास्त से पहले ही कत्र्ता भोजन कर पायेगा.
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रकाशित हो चुकी हैं.
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