उतरा खण्ड भला देश एक छा भोटान
हिमगिरी जड़ पर रमणीक स्थान.
उति रनी बड़ा बड़ा व्यौपारी लै सेट
भौत धनवान लोग बड़ा बड़ा पेट.
सबु है सकर उति नौकौ सामान
उमजि व्योपार हौछा आदान प्रदान.
उति का रणीयां लोग भोटिया कहानी
बकरा ढेवरा पाली ऊन ऊवननी.
उनू मजि एक छीय सुनपति सौक
उकी चेली राजुली छी जनिक यौ गौंक.
गाउली शौक्याण वीकी पतिब्रता नारी
गुणवान रूपवान सुन्दर सुनारी.– चिन्तामणी पालीवाल
इक्कीसवीं सदी में पन्द्रहवीं शताब्दी की प्रेम गाथा को तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर उसमें कुछ लिखना निसंदेह दुष्कर कार्य है तथापि अमर प्रेम गाथा की जीवंतता तथा लोकप्रियता एवं अपनी माटी की महक मात्र से जिज्ञासा होना स्वाभाविक है. प्रेम और प्यार का वैभव कभी समाप्त हुआ है न होगा, जिसकी परिणति समय-समय पर हीर-राँझा, ढोला-मारू, शीरीं-फरहाद के प्रेम कहानी के रूप में उद्वेलित हुई है. ऐसा ही उद्वेलन, पन्द्रहवीं शताब्दी में राजुला-मूालूशाही की कथा के रूप में हमारे क्षेत्र में हुआ है. हालांकि यह प्रेमगाथा उत्तराखण्ड की लोककाव्य शैली में सदियों से प्रचलित रही है लेकिन हमारे क्षेत्र में ज्यादा प्रचलित न हो सकी. (Rajula Malushahi from Darma Valley)
इस अमर प्रेम काव्य की लोकप्रियता, समरसता ने उस उत्कर्ष को छुआ कि क्षेत्र की लोक गाथा बनकर कई सदियों तक उत्तराखण्ड के जनमानस के लिये एक आदर्श, सम्मान का परिचायक बनी रही. यह अमर प्रेम गाथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक एक लोक गायन-लोक गाथा बनकर क्षेत्र की जनमानस को झंकृत करती आ रही है. इस लोक गाथा को कई लोगों ने काव्य रूप देकर इसे लिपिबद्ध किया. त्रिलोचन पाण्डे, गोविन्द चातक, गोपाल उपाध्याय, चिन्तामणी पालीवाल, मोहन उप्रेती, कृष्णा नन्द जोशी, जुगल किशोर पेटशाली, कोनराड माइजनर आदि विभिन्न लेखकों ने अपनी-अपनी बोली के साथ स्थानीय शैली का पुट देकर विभिन्न रूप में प्रस्तुत किया तथापि मूलरूप में कव्यानक में समरसता एवं समानता दिखाई देती है.(Rajula Malushahi from Darma Valley)
इस लोकगाथा को कोनराड माइजनर द्वारा जर्मन भाषा में तीन खण्डों लिखा जा चुका है. इसे लोकगीत के माध्यम से गाने वालों में गोपीदास उर्फ गोपाल दास प्रमुख थे. उन्होनें चौदह वर्ष की आयु से गाना शुरू किया और वे अपनी पीढ़ी के चौथे गायक थे. गोपीदास द्वारा गायी गयी लोकगाथा लगभग दो हजार दो सौ लाइन की थी. पहली बार 1966 में उनके संगीतमय कथावाचन को टेपरिकार्डर में कैद किया गया. इस कथानक को गाने वालों में लोकगायक गोपीदास के अलावा जोगाराम, मोहन सिंह रीठा आदि भी गाड़ी थे.
इस अमर लोक काव्य, लोकगाथा की नायिका ही राजुला है. यह गाथा एक नायक और नायिका के बीच प्यार और प्रेम की कहानी मात्र नहीं है वरन उस गाथा में सौन्दर्य, स्नेह, समर्पण, साहस, चपलता, तीव्रता, कुशाग्रता, तंत्र-मंत्र, घात-प्रतिघात, प्रतिद्वंद्व, विद्वत्ता, चुनौती, स्थानीय विशिष्टता, प्रतिस्पर्धा, और यात्रा का ऐसा अद्भुत संयोग है कि ये सब बातें प्यार और प्रेम के अकाट्य धागे में निरन्तरता, एकलयता से लयबद्ध होकर इस प्रकार निरूपित हुईं कि तत्कालीन गीत-कहावतों, कहानी के माध्यम से इसे एक लोक काव्य, लोक गाथा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया.
तत्कालीन लोक गायकों ने अपने शैली और गायन से इसे एक अमर प्रेम गाथा बना दिया जिसे कई पीढ़ी तक भिन्न-भिन्न गायकों ने भिन्न भिन्न शैलियों में उद्धृत कर इसे जीवंत बना दिया. फलतः उत्तर भारत ही नहीं लोक काव्य की गाथा की उन्मुग्धता से आसक्त होकर सात समुद्र पार के एक जर्मन शोधार्थी ने इसे अपने जेहन में समाहित कर उसका रसास्वादन करने, उस प्रेम की पराकाष्ठा को अनुभूत करने का प्रयास कर इसे संरिक्षत किया. आज इक्कीसवीं सदी में पन्द्रहवीं शताब्दी की प्रेम गाथा किस रूप में प्रांसगिक होगी? यह महत्वपूर्ण समझ है. मालू-राजुला आज के युग में भी उतना ही शाश्वत है जितना कभी रहा होगा. तब प्रेम कितना निर्भय होकर अपने को साकार और सार्थक करता था!
पन्द्रहवी शताब्दी में दारमा की सुरम्य घाटी पंचाचूली की उपत्यका में बसे गाँव दांतू में एक सम्पन्न व्यापारी सुनपति शौक हुआ करते थे. उनकी धर्मपत्नी गांगुली शौक्याणी एक ममतामयी धर्मपरायण महिला थी. दूर देश से व्यापार से अर्जित धन सम्पत्ति व प्रचुर वैभव से सम्पन्न होते हुए भी उसकी कोई सन्तान नहीं थी जिससे वे दुःखी थे. निसन्तान होने से उनकी निराशा वढ़ती गयी. इसी बीच गांगुली ने सुनपति से एक दिन कहा कि भगवान ने हमें इतनी धन दौलत दी है क्यों न हम एक बार मकरसंक्रान्ति में भगवान बागनाथ की शरण में बागेश्वर जाकर अपने दुःख को प्रकट कर प्रार्थना करें.
बागेश्वर में मकरसंक्रान्ति के अवसर पर समूचे प्रान्त से लोग आकर सरयू गोमती के संगम पर स्नान कर अपने श्रद्धा सुमन भगवान शंकर को अर्पित कर रहे हैं और चिरसंचित अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये भगवान शंकर के सम्मुख याचनायें कर रहे हैं. सुनपति शौक और गांगुली भी मन्दिर में पूजा पाठ, अर्चना करने लगते है. ठीक इसी समय में वैराठनगर के राजा दुलाशाही और धर्मादेवी उस मन्दिर में पहुँचते हैं. निसन्तान दुलाशाही भी सन्तान प्राप्ति की याचना करते हैं. संयोग से गांगुली और धर्मादेवी की परिचय होता है दोनो के एक समान दुःख और एक समान व्यथा उनको और घनिष्ठता प्रदान करती है और मन ही मन पुत्र और पुत्री प्राप्त होने पर उन दोनों को परिणय के पवित्र सूत्र में बाँधने का विचार उनमें आता है. भगवान शंकर की कृपा से विराटनगर में राजकुमार मालूशाह का जन्म होता है और भोट प्रदेश में सुनपति के घर में राजुला का जन्म होता है. समय अपनी गति से बढ़ता चला गया, राजुला बड़ी होने लगी.
एक दिन राजुला ने अपनी माता से पूछा, “माँ देवताओं में सबसे पूजनीय देवता, पुष्पों में सबसे सुन्दर पुष्प, व राजकुमारों में सबसे दिव्य राजकुमार कौन है?” माँ ने कहा, “बेटी देवताओं में महादेव भगवान शंकर, पुष्पों में कमल तथा राजकुमारों में मालूशाह ही सर्वश्रेष्ठ राजकुमार है.”
सहसा गांगुली को मन्दिर मे दिये वचन की याद आ जाती है और भावातिरेक में खोने लगती है. गांगुली द्वारा राजकुमार मालूशाही का नाम लेते ही भावातिरेक में खो जाने से राजुला के मन में जिज्ञासा बढ़ने लगी और कल्पनावश मन ही मन में प्रेम का सुप्त भाव जागता है और वह उसके मालूशाही का दर्शन करने को आतुर होने लगी.
वह दिन भी आ गया जब व्यापारी सुनपति शौक अपने लाव लश्कर के साथ व्यापार हेतु वैराठनगर को जाने की तैयारी करने लगा. यह सुनकर राजुला अत्यन्त प्रसन्न होने लगी, मालूशाही से मिलने की एक आशा जगी, दुर्गम नदी-नाले, कठिन मार्ग, पर्वत, जंगल होते हुए वैराठनगर जाने के लिये सुनपति द्वारा मना करने पर भी राजुला ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. वैराठनगर पहुँचकर सुनपति का शिविर लग चुका है. हर्षोउल्लास के साथ थकान मिटाने के लिये च्यक्ती का पान हो रहा है. किन्तु एकान्त में राजुला, अपने प्रियतम मालूशाही की अभिलाषा में उत्कंठित हो रही है. अष्टमी के दिन द्रोणागिरि मन्दिर में सभी लोग अपने आराध्य की पूजा अर्चना करने को एकत्रित हो रहे हैं
विधाता का विधान देखो राजा मालूशाही भी राजवंश का परम्परागत ध्वज-तोरण अर्पण करने आ पहुँचा है. प्रवेश करते ही ध्यान मग्न अवस्था में एक अदितीय सुन्दरी, जिसकी तेज से द्रोणगिरि आलोकित हो रहा है, को देखकर मालूशाही अचम्भित होने लगता है सहसा जिज्ञासा होने लगी कि कौन है यह अद्वितीय ज्योर्तिमयी, वरदायिनी! इस तरह दो विरहनियों का मिलन होता है. धीरे -धीरे परिचय परवान चढ़ने लगता है, पूर्वाभाषित अभिलाषाओं, परिकल्पनाओं का संयोग अपने उत्कर्ष के साथ साक्षात होकर आबद्ध होने लगता है.
इस मिलन का आभास होते ही व्यापारी सुनपति शौक को राजा ऋषिपाल को दिये अपने वचन की याद आती है, अपने व्यापारिक मित्र के साथ दिये वचन के साथ व्यापारिक हित-अहित की सोचते हुए वह क्रोधाग्नि में जलने लगता है. फलतः वह वैराठ में व्यापार छोड़कर वापस अपने शौक प्रदेश जाने की सोचता है, ताकि यह मिलन आगे न बढ़े.
क्रूर व्यापारिक अभिलाषाओं की अभिशप्तता में जकड़ी राजुला अब वापस अपने शौक देश की और चल पड़ी है अपने पिता के दल-बल के साथ. राजुला का मालूशाही से वियोग बढ़ने लगा और इस वियोगाकुल में उसकी आशा, उसकी कामना क्षीण होने लगी. आखिर वह टूटकर वियोग में विचलित होकर, अपने प्रेम की बात अपनी माँ गांगुली से व्यक्त करती है. माँ की ममता एक तरफ दूसरी तरफ पतिपरायणता इस द्वंद्व के बीच घोर अंतर्द्वंद्व का सामना करने लगती है गांगुली. अन्ततः गांगुली पर राजुला की ममता की विजयी होती है बेटी को सांत्वना देती हुई कहती है, “बेटी तुझे मालूशाही से और मालूशाही को तुझसे इतना ही प्यार है तो वैराठ जाकर मालू से कहना की अगर तू सच्चा प्रेमी है तो और रानी धर्मा देवी का दूध पिया है और तेरे रग में कत्यूरी वंश का खून बहता है तो मुझे ब्याह करने शौक देश आना.”
माँ का आर्शीवचन पाकर ’राजुला’ के मन में एक बल प्रस्फुटित हुआ और अपने कुल देवी-देवताओं की याचना कर, आर्शीवाद और विश्वास ग्रहण कर वह अकेली ही घनघोर, दुर्गम पर्वत, जंगल, घाटियों, नदी-नालों को पार कर चुनौतियों को स्वीकार करते हुए वैराठनगर की ओर प्रस्थान करती है.
सात दिन और सात रात तक दुर्गम, बीहड़, वन, पर्वतों, नदी-नालियों को पार कर वह अर्द्धरात्रि में वैराठ के राजा मालूशाही के पास पहुँचती है. उसका प्रिय गहरी निद्रा में सोया है. राजुला का पता ही नहीं चला है कि वह अपने प्रियतम को कब से निहार रही है. उसको लगता है जैसे वह स्वप्न देख रही है. सहसा राजुला की निद्रा भंग होती है पर मालू अभी भी सोया है. मालूशाही की निद्रा भंग करने से जो कष्ट की अनुभूति होगी उसकी कल्पना मात्र से वह सिहरने लगती है तो वह अपने मन की व्यथा तथा आग्रह भरी पाती लिखकर रखकर, गले में पुष्पमालिका डालकर, हाथ में अंगूठी पहनाकर, विरह की वेदना में आंसू की धार बहाते हुए प्रतीक्षा किये बिना चुपचाप वैराठ से अपने देश वापस लौट चली आती है.
मालूशाही जागते ही देखता है सुगन्धित माला, सिरहाने पर पत्र और हाथों में अंगूठी! विस्मय से अचंभित होकर मालूशाही पत्र पढ़ते-पढ़ते विरह की वेदना में जलने लगता है. वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो अहसास करने लगता है कि शक्ति सम्पन्न राजकुमार को राजुला के प्रेम ने झकझोर दिया है. उसे अब सब कुछ अच्छा नहीं लगने लगता है और राजुला के प्रेम से वह आबद्ध होकर एक योगी का रूप ग्रहण कर वह राजुला के देश दारमा पहुँचता है.
पंचाचूली की उपत्यका दारमा में पहुँचकर शिव मन्दिर में धूनी रमाता है. राजकुमार मालूशाही के तेज आलोक से पूरी धरती साधनामयी होने लगी. लोग दूर-दूर से इस योगी के दर्शन करने आने लगे. रहस्यमयी योगी के मुखमण्डल से दिव्य तेज किरण प्रस्फुटित हो रही है, दिव्य तेज से पूरा क्षेत्र महक रहा है. इस महक मात्र से राजुला भी योगी के दर्शन करने चल पड़ती है. योगी को पहचानते ही राजुला का मन व्याकुलता, स्नेह, सर्मपण तथा मालूशाही की दशा देखकर द्रवित हो आँसू की धारा प्रवाहित करने लगता है. अंततः दोनो ने एक दूसरे को पहचान लिया.
उधर सुनपति शौक अपने दिये वचन के अनुसार हूण राजा ऋषिपाल के साथ तिथि निर्धारित करके आते हुए अपने क्षेत्र में एक तरूण योगी के आलोक की चर्चा सुनता है. राजुला योगी को आग्रहपूर्वक अपने घर भोज में निमन्त्रण देती है. राजुला अति प्रसन्नता में है परन्तु सुनपति व्यापारिक तीक्ष्ण नजरें राजकुमार मालूशाही को पहचान गई. सुनपति एक दिन मौका पाकर योगी के भोजन में जहर देता है और राजुला को हूण देश के ऋषिपाल से शादी कर हूण देश पहुँचा दिया जाता है.
मालूशाही के वैराठनगर से माँ धर्मा देवी को किसी अनिष्ठ क्षति की आशंका से गढ़वाली तान्त्रिक के साथ अपने भाई को शौक देश भेजती है और साथ में सेनायें भी. तान्त्रिक गुरू अपनी योग विद्या से मालूशाही की स्थिति का पता लगा लेते हैं तान्त्रिक अपने मंत्र बल से मालू की देह को, जिसे हिमखण्डों मे छिपा दिया गया है, मन्त्र द्वारा जीवित कर देते हैं. मालू जाग उठता है तथा तान्त्रिकों के साथ विचार कर राजुला की मुक्ति के लिये मालू के गले में यंत्र बांध दिया जाता है. मालू तोते का रूप धारण कर तिब्बत की ओर उड़ जाता है. मालू तिब्बत पहुँचकर हूण राजा के महल में कैद राजुला के सम्मुख प्रस्तुत होता है. फिर बिना समय गँवाये राजुला के गले में भी यंत्र बाँधता है जिसके फलस्वरूप दोनो तोता-तोती के रूप धारण कर शीघ्र ही शौक देश उड़ चलते हैं. तभी तिब्बत के राजा को अपने तांत्रिकों के माध्यम से पता चलता है तो उसकी सेना बाज पक्षी बनकर तोता-तोती का पीछा करती है लेकिन तब तक तोता-तोती शौक देश पहुँचते ही राजुला-मालूशाही के रूप में बदल अपने गुरू और सेना के पास पहुँच जाते हैं. ऋषिपाल और कत्यूर की सेना के बीच घमासान युद्ध छिड़ता है दोनो ओर से सैन्यबल और तांत्रिक बल का प्रयोग होने लगता है. अन्ततः ऋषिपाल की पराजय होती है और वह हूण देश भाग जाता है. इस युद्ध में ऋषिपाल का साथ दे रहे सुनपति शौक को लज्जित होकर, पश्चताप और खेद प्रकट करने के सिवा कुछ नहीं बचता है. समृद्धि और वैभव से बन्द हो चुकी आँखें खुलती हैं. वह अपनी बेटी राजुला और मालूशाही से कहता है, “मुझे क्षमा कर दो तभी मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी.”
इस तरह दोनों प्रेमी और प्रेमिकाओं का मिलन होता है इस तरह राजुला-मालूशाही, कत्यूर सेना, तांत्रिक गुरूओं को सुनपति शौका दम्पत्ति खुशी-खुशी मंगल कामनाएं, आशीर्वाद व उपहार देकर मित्रों की तरह विदा करते हैं.
इस लोक गाथा में वस्तुतः शौक इतिहास प्रसिद्ध शक जाति से सम्बन्धित थे और सुनपति शौक एक प्रसिद्ध धन सम्पन्न व्यापारी रहा होगा. सुनपति शौक असंख्य भेड़-बकरियों का स्वामी था जिस पर वह सामान लादकर पूरे उत्तर भारत में व्यापार किया करता रहा होगा. राजुला निश्चय ही शक कन्याओं के भाँति अदभुत सौन्दर्य की स्वामिनी रही होगी और सुनपति शौक व्यापारी की पुत्री होने के कारण भ्रमण जैसे दुष्कर कार्य में समर्थ रही होगी.
सुनपति सौका की चेली, राजुली सौक्याणी के सौन्दर्य को इस तरह प्रस्तुत किया गया है:
सूर्य वंशी राजा को गैछे, राजुली सौक्याणी.
पुन्यों की जून जैसी, राजुली सौक्याणी.
काटिया हल्दी जैसी, राजुली सौक्याणी.
ईखें की डांकुली जैसी, राजुली सौक्याणी.
पालिंग की त्यूनों जैसी, राजुली सौक्याणी.
केलारी का खाम जैसी, राजुली सौक्याणी.
जैका लें नजर लागी, राजुली सौक्याणी.
देखियां रें जां छै भागी, राजुली सौक्याणी.
सूरज उदय जैसी, राजुली सौक्याणी.
सुनपति सौका की चेली, रजुली सौक्याणी.
ईश्वर की कला कैसी, राजुली सौक्याणी.
रूपसी राधिका जैसी, राजुली सौक्याणी.
सुनपति सौका की चेली, रजुली सौक्याणी.
वास्तव में शौक, कत्यूरी, हूण तीनों जातियां उस क्षेत्र में छोटी-छोटी ठकुराईयों के रूप में रही होंगी. यद्यपि यह लोक गाथा कई रूपान्तरों में प्रस्तुत होती रही परन्तु उसके ऐतिहासिक बिन्दुओं को अस्वीकार नहीं किया जा सकता.
इस लोक गाथा में नायक मालूशाही के स्थान वैराठनगर का उद्धरण कई बार हुआ है जिससे इनके निवास स्थल को लेकर कोई विवाद नहीं. लेकिन राजुला के निवास स्थल के बारे में तत्सम स्पष्ट उल्लेख नहीं है, डूंगर सिंह ढकरियाल उन्हें दांतू का निवासी बताते हैं. जोहार देश के लोग लोक गाथा में जलनर देश का अनुमान जोहार में होना मानकर उसे जोहारी बताते हैं. बाबू राम सिंह पांगती सुनपति को जोहार का राजा बताते हैं वहीं खुशाल जलनर देश को मल्ला जोहार में बताते हैं. जुगल किशोर पेटशाली के कथानक में दारमा, रङबङच्यिम, पंचाचूली, दर्मान्योली, नमज्युंग, धौली, च्युकला, ज्युज्यं, च्युंभाला, फाफर, पनापति (खेल) मरदू, तिदलम्हा, स्यंसै, कौगर शब्दों का उल्लेख प्रचुर मात्रा में है. ये शब्द रं शौक क्षेत्र की भाषा बोली के शब्द हैं जो सुनपति के निवास स्थल दारमा होने को इंगित करते हैं.
जैसा कि सुनपति नाम अर्थात सोने का मालिक. अठारहवी शताब्दी में ऐसी ही एक महिला जसुली सौक्याणी दांतू में निवास करती थी. उसके पास सोने का अथाह भण्डार था जिन्हें वह रोज नदियों में गंगा दान करती थी. तत्कालीन कमिश्नर ने उन्हें समझाकर धन का सदुपयोग करने के लिये धर्मशाला बनाने हेतु प्रेरित किया. कमिश्नर कई घोड़े में सोन-चाँदी लादकर ले आया और उस ईमानदार कमिश्नर ने लगभग 200 धर्मशालायें कैलास-मानसरोवर यात्रा मार्ग में बनाईं जिनके अवशेष आज भी विद्यमान हैं. जसुली सौक्याणी दांतू (दारमा) की सम्पन्नता का उदाहरण हैं . अतः उस क्षेत्र की सम्पन्नता एवं जसुली के पीछे सौक्याणी लिखा जाना भी गांगुली सौक्याणी से मेल खाता है.
श्री डूंगर सिंह ढकरियाल लिखते हैं – “सिरी डंनो च्यनम लुड.वा, चमें डंनो दर्मा.” अर्थात दारमा की स्त्रियां वह जोहार के पुरूष सुन्दर होते थे जिसको पण्डित चिन्तामणीं की पंक्तियों “आपण मुलुक छोड़ि न जा परदेश. त्यर ब्या करूल चेलि जुहार मुन्स्यार” से स्पष्टता मिलती हैं कि माँ गांगुली राजुला को शादी हेतु सांत्वना देते हैं और कहते है कि अपने पास के देश जोहार में सुन्दर पुरूष के साथ शादी करा देंगे.
कुमाऊँ में प्रचलित मालूशाही गायी जाती है –
“मांग दिया मांग दिया बाबा, सुनपति शौका की चेली.
सुनपति शौका की चेली, दानपुर जोहार मली.’’
अर्थात -सुनपति का निवास स्थल दानपुर व जोहार मल्ली (ऊपर) है. दानपुर व जोहार से ऊपर दारमा ही स्थित है. श्री शुक्ला जी अध्यक्ष हिन्दी विभाग राजकीय महाविद्यालय नैनीताल द्वारा लिखित पुस्तक ‘मालूशाही’ में निम्न पंक्तियां हैं-
“सजा कल्पना में जैसे रंगबंग. ल्हमसाल गीत गूँजे नाच संग.
धारे ज्यों ’च्युकला’ चुँग औ, चाकटी में झुमें, राजूली-उमंग.”
इन पंक्तियों में राजुला के वस्त्र आभूषणों का संकेत मिलता है वह च्युंगभाला, च्युंकला व ज्युजंग में सुशोभित रहती थी. ये तीनों वस्त्र दारमा, व्यांस, चौंदास के औरतों की पोशाक हैं. श्री जुगलकिशोर पेटशाली ने राजुला के वस्त्र आभूषणों को इस पंक्तियों में प्रस्तुत किया है:
“सतरंगी परिधान सजाए, च्युंकला, ज्यूज्यं पहन च्युंगभाला
मन में प्रिय की मिलन-कल्पना, लिए नील-कमलों की माला.”
अस्कोट के कुछ गाँवों में तो बूदी गाँव के पास स्थित नामज्युंग की एक चोटी को धनवान सुनपति का प्रतीक माना जाता है. इस कथा में बैराठ के सैन्यबल को विष मिली हुई सींग (रू) वाली पूरियां खिलाकर मारे जाने का जिक्र आता है. सींग वाली पूरी मात्र दारमा, व्यांस व चौंदास के शौकाओं में ही प्रचलन में हैं. उक्त प्रमाण सिद्ध करते हैं कि सुनपति शौक वास्तव में दारमा निवासी था. सुनपति शौक व्यापार हेतु दारमा से मुनस्यारी मार्ग होते हुए समस्त कुमाऊँ में व्यापार हेतु भ्रमण करता था. अगर वह मुनस्यार, जोहार का होता तो दारमा का जिक्र वहां की बातों होना में सम्भव नहीं है. वहीं जोहार शेष कुमाऊं क्षेत्र में व्यापार हेतु मार्ग होने से वहां का जिक्र होना स्वाभाविक है. तथापि, राजुला-मालूशाही की लोकगाथा में बहुत कुछ जानने और सत्यापित करने की आवश्यकता है.
[यह लेख भिन्न-भिन्न पुस्तकों के आधार पर लिखा गया है. इनमें प्रमुख हैं: 1. श्री रतन सिंह रायपा कृत ‘शौका सीमावर्ती जनजाति’ (1974), 2. श्री डूंगर सिंह ढकरियाल करी ‘छिरा खा मंगला भरनी’ (2004), 3. श्री जुगलकिशोर पेटशाली ‘राजुला-मालूशाही’ (1991), 4. श्री खुशहाल सिंह ’छिला-दिगा’ (2007), 5. डॉ. एस.एस.पांगती ’राजुला-मालूशाही प्रेमगाथा’ (2007), श्री चिन्तामणी पालीवाल ’मालूशाही – राजुला’ (सौक्याणी) (1973) और 7. श्री शुक्ला, ‘मालूशाही’.]
मत्स्य वैज्ञानिक डॉ. रविन्द्र सिंह पतियाल (रवि) भीमताल के कोल्ड वाटर फिशरीज डिपार्टमेंट में कार्यरत हैं. वे रं कल्याण संस्था के महत्वपूर्ण सदस्य हैं और उसकी वार्षिक स्मारिका ‘अमटीकर’ के सम्पादक मंडल के वरिष्ठ सदस्य हैं. एक बेहतरीन फोटोग्राफर के तौर पर उनका काम कई पुस्तकों-पत्रिकाओं में छपता रहा है.
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राजुला को दारमा की बता कर इस लोक गाथा को छेत्रवाद की ओर ढकेल दिया गया है प्रारम्भ से ही राजुला सम्पूर्ण कुमाऊ की रही है राजुला लोक गाथा को कुमाऊ में गाया गया है इससे इनकार नही किया जा सकता। उसी दृष्टिकोण में ही इसकी समालोचना हो सकती है राजुला को गाने वाले उसे जीने वाले कुमाउनी थे अगर कहे राजुला मायके में नही ससुराल में जीवंत रही गलत नही होगा। आज अगर कोई उसे अपने से जोडे तो उसे खुद जीना होगा , जोहार में जलथ (जलथल ) में सुनपति का भग्नावेष , दानपुर में शिखर निलिंग में सुनपति के पाषाण चिन्ह (संबोध), जोहर में वर्तमान ल्वाल जाति सुनपति के वंसज आज भी जीवंत है मालूशाही के वर्तमान वंसजो ने एक दसक पूर्व जोहार से मायके की मिट्टी उठायी यह जीवंतता का प्रमाण है, लोक गाथा होती है जन संवादों से पैदा होती है जिसमे भाव प्रधानता होती है स्थान संवाद भाषा सभी काल कालांतर में अतिशयोक्ति रोमांचो व्यक्ति की अपनी सूझ से बनती है । इस लिहाज से दारमा की राजुला मालूशाही लोकगाथा क्या इसे पोषित करेगी या पुनः भ्रम का एक जाल बुनेगी ? ऐसे कुमाऊ के लोगो ओर साहित्यकारों को समझना होगा, राजुला मालूशाही लोक गाथा को एक इतिहासकार ओर लोक साहित्यकार ही समालोचित कर सकता है । जिसके लिए हमे (राजुला मालूशाही एक समालोचना डॉ एस एस पांगती) को आधार मानना चाहिए जब तक कि आपके पास ठोस आधार न हो।
कुमाऊँ के एतिहासिक व सांस्कृतिक तथ्यों व साक्षों के आधार पर श्री दिनेश निखुर्पा जी का समर्थन करता हूँ।