ये बेहतरीन जीवन्त मूर्तियों का निर्माण करते हैं जो बेहद सस्ती, वजन में हल्की और टिकाऊ होती हैं. पचास रुपए से लेकर 15 हजार रुपए तक की मूर्तियां इनके पास हैं. मतलब कि हर तरह की आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति की पसन्द और कीमत की मूर्तियां. ये लोग दुर्गा, राधा – कृष्ण, सीता – राम, हनुमान, श्रीकृष्ण, गणेश, शिव, लक्ष्मी, सरस्वती, लाफिंग बुद्धा, धनकुबेर, विभिन्न आकृतियों के गुल्लक, तोता, मोर, बत्तख आदि कई की आकर्षक मूर्तियों का निर्माण करते हैं. इन्हें बनाने में इन्हें एक हफ्ते से लेकर एक महीने तक का समय लग जाता है. मूर्तियों में रंग भर देने के बाद वे जीवन्त हो उठती हैं. पर अफसोस कि इसके बाद भी कोई इन्हें मूर्तिकार नहीं मानता और न हीं इनकी कला को उचित सम्मान व दाम ही मिल पाता है. यह पीड़ा भरी व्यथा व्यक्त की मंगल सिंह ने. जो इन दिनों अपनी पत्नी और चार बच्चों ( तीन लड़कियां व एक लड़का ) के साथ हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल के सामने से मंडी गेट की ओर जाने वाली सड़क के नहर किनारे लगभग एक बीघा जमीन पर किराए में रह रहा है. जिसका वह व उसका साथी हर महीने ढाई हजार रुपए किराया देते हैं. इस जमीन पर ही मंगल सिंह व उसके साथी सोनू की मूर्तियों का संसार बसता है. Rajasthani Sculptors in Haldwani
मंगल सिंह मूल रूप से राजस्थान के पाली जिले के साधरी गांव का रहने वाला है. जो जोधपुर के नजदीक पड़ता है. गांव में मंगल सिंह के पिता की थोड़ी बहुत जमीन है, लेकिन पानी की बेहद कमी होने से फसल नहीं होती. इसी कारण मंगल का परिवार लगभग एक दशक पहले अपने गांव से निकल गया और वहां से सबसे पहले गौहाटी, फिर पटना और उसके बाद सिवान (बिहार) पहुँचा. वहां उसके परिवार की मूर्तियों का कारोबार बहुत अच्छा नहीं चला तो सिवान से सीधा उत्तराखण्ड के भाबरी शहर हल्द्वानी पहुँच गया. उसके ही गाँव का सोनू कुछ समय पहले से ही हल्द्वानी में था. सोनू के परिवार में उसकी पत्नी, दो लड़कियां व एक लड़का हैं. दोनों का परिवार पिछले लगभग डेढ़ साल से सुशीला तिवारी से मंडी बाईपास को जाने वाली सड़क में नगर किनारे रहता है. दोनों का परिवार मूर्तियां बनाने का काम करता है. मंगल की दो बेटियां देवलचौड़ के बेसिक व जूनियर हाई स्कूल में पांचवी व छठी कक्षा में पढ़ती हैं. बेटियां पढ़ने में होशियार हैं, यह कहते हुए मंगल के चेहरे पर एक गर्व का भाव साफ दिखाई देता है. मंगल का परिवार पिछले पांच साल से हल्द्वानी में रह रहा है. वह पहले रामपुर रोड में देवलचौड़ के पास रहता था, लेकिन सड़क चौड़ीकरण के कारण उसे वह जगह छोड़नी पड़ी. उसके माता – पिता अभी देवलचौड़ में ही रामपुर रोड में रहते हैं और वहीं मूर्तियां बनाते हैं. Rajasthani Sculptors in Haldwani
मंगल व उसका दोस्त सोनू दोनों ही पहले प्लास्टर ऑफ पेरिस से आकृति व जरुरत के हिसाब से एक मूर्ति का निर्माण करते हैं. उसके बाद उस मूर्ति का सांचा तैयार किया जाता है. बाद में सभी मूर्तियों का निर्माण सांचे में ढालकर ही किया जाता है. सांचे में ढालने के बाद एक मूर्ति को सूखने में तीन-चार दिन का समय लगता है. सूखने के बाद ही उनमें रंग भरा जाता है. छोटे आकार की मूर्तियां एक दिन में पांच तक तैयार हो जाती हैं, लेकिन बड़ी मूर्तियों को बनाने में एक हफ्ते से लेकर एक महीने तक का समय लग जाता है. छोटी मूर्ति बनाने के लिए पीओपी और खड़िया मिट्टी का उपयोग मिलाकर किया जाता है. बड़ी मूर्ति बनाने के लिए पीओपी व खड़िया मिट्टी के साथ ही सूखे नारियल के जूट और लकड़ी का उपयोग किया जाता है. लकड़ी का उपयोग मूर्ति को सहारा देने के लिए होता है. अगर लकड़ी का उपयोग ही न हो तो मूर्ति खड़ी नहीं रह पाएगी.
परिवार के बच्चे व महिलाएँ मूर्तियों में रंग भरने का काम करते हैं. महिलाएँ जब मूर्तियों में रंग भर सकती हैं तो उन्हें बनाती क्यों नहीं हैं? सवाल के जवाब में मंगल कहता है कि उन्हें बनाना नहीं आता. बनाना क्यों नहीं आता? तुम बनाने नहीं देते होगे के जवाब में मंगल कहता कि औरतें ध्यान कम देती हैं और हमारा दिमाग अलग (मतलब पुरुषों का दिमाग ज्यादा?) हुआ और इनका अलग. पास में घूँघट निकाल कर खड़ी मंगल की पत्नी शायद मेरे कहने का आशय समझ जाती है और वह घूँघट की ओट से ही हँसते हुए एक तरह से अपनी पति मंगल का बचाव करते हुए कहती है कि हम लोगों के पास खाना बनाने व चूल्हे-चौके का काम भी होता है. इस कारण से हम लोग मूर्ति बनाने के लिए पूरा समय नहीं दे पाते हैं और केवल मूर्तियों में रंग भरने का ही काम करते हैं. Rajasthani Sculptors in Haldwani
एक बड़ी मूर्ति जो दस से पन्द्रह हजार की बिकती है, उसमें 500 से लेकर 1,000 रुपए का मुनाफा हो जाता है. पर यह मुनाफा तब घाटे का सौदा बन जाता है जब पांच मूर्तियों में से केवल दो ही बिकती हैं. दुर्गा पूजा के समय दुर्गा की बड़ी मूर्तियों की मांग अब हल्द्वानी में तेजी के साथ होने लगी है. इसी तरह गणपति की बड़ी मूर्तियों की मांग भी पिछले दो-तीन वर्षों से हल्द्वानी में बढ़ी है. मंगल के कथन से पता चलता है कि हल्द्वानी में गणपति व दुर्गा महोत्सव का चलन तेजी के साथ बढ़ रहा है. छोटी मूर्तियों की कीमत 50 रुपए से लेकर 5,00 रुपए तक है. दुर्गा व गणेश महोत्सव के लिए मूर्तियां बनाने का काम ये लोग एक महीने पहले से करने लगते हैं. इन महोत्सवों के लिए मूर्तियों के खरीददार रामनगर, रुद्रुपर, काशीपुर, सितारगंज, खटीमा, बाजपुर आदि स्थानों से मंगल सिंह व उसके दोस्त सोनू के पास आते हैं.
इनके पास भले ही हल्द्वानी में कोई स्थाई ठिकाना नहीं है, लेकिन इन लोगों के पास देवलचौड़ (हल्द्वानी) के राशनकार्ड, आधार कार्ड व मतदाता पहचान पत्र अवश्य हैं. सोनू कहता है कि इसके बाद भी हमें सरकार की किसी तरह की योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिल रहा है. मूर्तियों को बनाने के लिए भी किसी तरह की कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती है. सब कुछ अपनी ही मेहनत के बल पर करना पड़ता है. पर किसी तरह से पारिवार की गुजर-बसर हो ही जाती है.
मंगल व सोनू कहते हैं कि दुख केवल इस बात का होता है कि हमारे कला की कद्र कोई नहीं करता और जिन मूर्तियों को हम इतनी मेहनत व लगन से बनाते हैं, उसे खरीदने में अक्सर ग्राहक कह देते हैं, “इतनी महंगी मूर्ति? इसे बनाने में खर्चा ही कितना हुआ होगा तुम्हारा?”. Rajasthani Sculptors in Haldwani
ऐसा कहते हुए हमारी मेहनत व लगन को हर कोई नजर अंदाज कर देता है. पता नहीं ऐसा क्यों करते हैं लोग ये मूर्तियां ही तो हमारे परिवार को दो वक्त की रोटी व बदन पर कपड़ा पहनने को देते हैं.
-जगमोहन रौतेला
[सभी फोटो : रीता खनका रौतेला]
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काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.
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