भूगोल न सिर्फ़ खानपान, वेशभूषा, आवास को बल्कि साहित्य को भी प्रभावित करता है. खासकर गीतों को. सावन को ही ले लीजिए. भारत के मैदानी क्षेत्रों की बात करें तो सावन सर्वाधिक रूमानी महीना है. आग बरसाती जेठ की गर्मी के बाद आषाढ़ में आकाश मेघाच्छादित होने लगता है और सावन आते ही जम कर बरसने लगता है. सहज ही भीगने का मन करता है. बरखा-बूँदों को चूमने और बौछार से लिपटने का मन भी करता है. नवयुगलों पर इस माहौल का असर अधिक होता है. युगल साथ हों तो सावन में अत्यधिक आनंदित होते हैं और जोड़ीदार दूर हो तो ये सुखद महीना बहुत सालता है. जिस नौकरी को नायक ने तन-मन-धन की साधना से अर्जित किया होता है उसी को उसकी प्रियतमा दो टके की ठहरा देती है अपने लाखों के सावन के सामने. सावन की लाखों की क़ीमत भी उस जमाने में तय की गयी है जब नौकरी की पगार टकों में मिलती थी. (Rainy Season in Uttarakhand)
ज़ाहिर है आज की नायिका अरबों का या मिलियन डॉलर सावन कहना चाहेगी. सावन की क़ीमत, रोटी कपड़ा और मकान फिल्म के गीत को लताजी की आवाज़ मिलने से भी निश्चित रूप से बढ़ गयी थी. तेरी दो टकिया की नौकरी मेरा लाखों का सावन जाए, हाए हाए ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी… विडम्बना ये कि मजबूरी और मौसम का द्वैत-दर्शन किसी निदेशक को कभी समझ नहीं आया और नौकरी की नश्वरता व प्रेम-बंधन की शाश्वतता का परम-ज्ञान किसी मालिक-साहब को कभी हुआ नहीं.
मनस्थिति ऐसी उन नवयुगलों की हुआ करती है जिनका जन्म और लालन-पालन मैदानी क्षेत्रों में हुआ हो. पहाड़ों की स्थिति अलग है. पहाड़ों में भी गढ़वाल-सदृश पहाड़ों की जहाँ पहाड़ स्टीप-ग्रेडिएंट के और नदी-घाटियां गहराइयों के कीर्तिमान स्थापित करने की होड़ में दिखाई देते हैं. भूगोल, कहावतों-लोकोक्तियों को भी बदल देता है. ईरान की एक कहावत है कि जो आज अण्डा चुराता है कल ऊँठ चुराएगा. गढ़वाल में ये कहावत कुछ इस तरह हो जाती है – आज गीजी काखड़ी, भौळ लीगि बाखरी अर्थात आज खीरे चुराने की आदत हुई है तो कल को बकरी भी चुराएगा.
ईरान और गढ़वाल के भूगोल को आमने-सामने रख कर समझा जा सकता है कि गढ़वाल में ऊँठ और ईरान में दीर्घकायी-खीरे नहीं मिलते. लोकोक्ति बन कर भी ज़बान पर वही चढ़ा जो ज़मीन में उगा-दिखा. गीतों के साथ भी कुछ ऐसा ही है. भूगोल बदलने के साथ-साथ अनुभूतियां भी बदल जाती हैं और बदले स्वरूप में ही गीतों में प्रतिबिम्बित भी होती हैं.
सावन को ही देख लें. जो सावन मैदानी क्षेत्रों के वासियों में रूमानी भाव जगाता है वही सावन गढ़वाल-सदृश पहाड़ों में दहशत पैदा करता है. गढ़वाल का एक भी लोकगीत ऐसा नहीं है जिसमें नायक या नायिका सावन के महीने में रूमानी अहसास व्यक्त करती हो. चैमासे में नायक का नायिका को डांडा-छानियों में चलने का निवेदन जरूर कुछ लोकगीतों में दिखता है कितु यहाँ भी केन्द्रीय भाव रूमानियत का नहीं बल्कि दुग्धनिर्मित-खाद्यों की प्रचुरता और कठिन-दिनचर्या से अल्पकालिक-मुक्ति से उत्पन्न सुखद-अनुभूति का भाव होता है. तरुण-किशोर इस उदंकार (Brightness) में एक किरण रूमानियत की भी तलाश लेते हों इससे इंकार नहीं है पर ये किरण कभी भी उतनी रसातलगामी नहीं रही जितनी कुछ (लोक)गायकों के गीतों में दिखायी देती है.
गढ़वाल-सदृश पहाड़ों में सावन के प्रति असली भाव दहशत का ही होता है. बादल फटना, खेत-मकानों का टूटना, पेड़-पत्थर गिरना, नालों का मार्ग बदल कर तबाही मचाना, रास्तों का फिसलन भरा होना. बादलों की गड़गड़ाहट और मूसलाधार बारिश से उमड़ते नदी-नालों का दृश्य प्रलयंकारी लगता है. कई बार प्रलय में बदल भी जाता है जो अगले दिन अखबारों की सुर्खियों में बादल फटा, लैंडस्लाइड, बाढ़ और झील बनने के रूप में पढ़ने को मिलता है. ऐसे में नायिकाओं (प्रकृतितः कोमलहृदया) के मन में पहला और केंद्रीय भाव दहशत का ही होता है. अकेली नायिकाओं का हाल तो और भी बुरा होता है. उनका तो और भी बुरा जिनके साथ छोटा बच्चा भी हो.
(Rainy Season in Uttarakhand)
पति को वो याद तो बहुत करती हैं किंतु रूमानियत के चलते नहीं बल्कि सावन की दहशत से आतंकित होकर. सावन आने से पहले ही मन ही मन माँ को भी याद करती है कि मैं अभागी, सावन के महीने में पति के बिना अकेली कैसे रहूंगी. यही भाव गढ़वाल के सावन विषयक गीतों का केंद्रीय-भाव है. गौरतलब है कि यहाँ सावन के साथ भादौ भी शामिल है. मतलब नायिका के लिए दहशत के महीनों की ऐसी सलामी-जोड़ी का पर्याय है, सावन-भादौ जो एक दूसरे का साथ कभी नहीं छोड़ते.
उत्तराखण्ड के प्रमुख कवि और लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगीजी ने भी सावन विषयक गीत लिखे हैं. उनका एक गीत, पहाड़ में सावन के इसी केन्द्रीय-भाव को पूरी तरह प्रतिबिम्बित करता है और लोकगीत की प्रतिष्ठा सहज ही प्राप्त करने से श्रोताओं को न सिर्फ़ पहाड़ी-सावन का रोमांचक, दहशतभरा दृश्य दिखाता है बल्कि उनके नयनों से भी सावन-भादौ की तरह बरसात करा देता है. सुलभ-संदर्भ के लिए गीत मूल रूप में दिया जा रहा है. गढ़वाली को शब्दशः न समझने वालों के लिए अंग्रेजी अनुवाद-प्रयास भी है.
(Rainy Season in Uttarakhand)
सौणा का मैना,
ब्वे कनुकै रैणा, कुयेड़ी लौंकअली.
अँधेरी रात,
बर्खाकि झमणाट, खुद तेरि लागअली
चैडाँड्यूँ पोर सर्ग गगड़ाँद आँद
हिरिरिरि पापी बर्खा झुकी आँद
बडुळी लागअली.
सौणा का मैना…
गाड-गदन्यो स्वींस्याट घनाघोर
तुम परदेस मी यखुाली घौर
जिकुड़ी डौरअली.
सौणा का मैना…
डेरा नौन्याळ अर पुगड़्यूं धाण
रुण झण बरखा घासअकू भी जाण
झुलि मेरि रुझअली.
सौणा का मैना…
सौण भादो बरखी कि चली गैनी
रितु गैनी मेरी आँखि नि उबैनी
झणि कब उबाली.
सौणा का मैना…
In the rainy month of Saun
How would I live O mother
In the dark of night, mist would drift in
I would miss you in thrumming rain
Clouds thunder on other side of mountains
And wicked rain keeps pouring down
I would feel hiccups
In the month of Saun.
Rivers rivulets roar tremendously
You(husband) are in distant land, here I ‘m alone
I would get terrified
In the month of Saun.
Baby at home and lots of work in fields
To fetch fodder in drizzling too
My dress would get wet
In the month of Saun.
Saun Bhadau downpouring is over
Gone is the rains my tears don’t dry
Do not know when would dry up
In the month of Saun.
भूगोल और भावों का ये अन्तर उन सब लोगों को जरूर समझना चाहिए जिनकी भौगोलिक -पृष्ठभूमि उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्र से अलग है. इस समझ के बिना उनके लिए स्थिति हास्यास्पद भी हो सकती है. जैसे कि आप किसी पहाड़ी-नायिका को कहते हुए सुनें और पढ़ें कि लो फिर सावन आ गया और आपका मन रूमानी-हिलोर लेने लगे. और अगर गलती से इज़हार-ए-खयाल भी कर दिया तो यही जवाब मिलेगा कि सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखायी देता है.
(Rainy Season in Uttarakhand)
भूगोल और भाव का अंतर प्रतिबिम्बित करने वाले इस तरह के लोकगीत और उनके अनुवाद सहित व्याख्या को उत्तराखण्ड प्रशासनिक अकादमी नैनीताल को भी नवप्रवेषी-अधिकारियों के प्रशिक्षण का हिस्सा बनाना चाहिए. दोनों लाभान्वित होंगे – भावी अधिकारी भी और ज़मीन से जुड़ी सेवा की अधिकारिणी जनता भी.
सावन, जिसे गढ़वाली-कुमांउनी-नेपाली में सौंण कहा जाता है, भौतिक गुणधर्म में अन्य क्षेत्रों के समान होने के बावजूद पहाड़ी-अंचल के निवासियों के मन में जो भाव उत्पन्न करता है और जो अर्थ व्यंजित करता है वो अन्य क्षेत्रों से बहुत अलग है. भूगोल, भाषा, संस्कृति की भारत में विविधता है और इसी विविधता में एकता हमारे लोकतांत्रिक राष्ट्र का सशक्त आधार.
सावन के स्वरूप में भी विविधता है पर विविध भाषाभाषी और क्षेत्रवासी इस बात पर एकमत होंगे कि सावन किसी के मन में आग लगा देता है, किसी के मन को तरलता-शीतलता प्रदान करता है. कहीं इसके स्वागत में मयूर भी नाचने लगते हैं तो कहीं इसके नाम से ही मन में दहशत होने लगती है. कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसी ही व्याख्या के आधार पर शिवजी ने भी इसे प्रियमास माना हो. उनके व्यक्तित्व और सावन में समानता भी कितनी है. दोनों ही सामान्य और प्रसन्न हों तो आशुतोष होकर धरती और धरतीवासियों के जीवन को हरा-भरा कर देते हैं तो रौद्र रूप में तांडव करने से भी नहीं चूकते.
(Rainy Season in Uttarakhand)
एक और गढ़वाली लोकगीत में सावन के बारे में अनमोल व्यवहारिक सीख दी गयी है कि सावन के महीने बिछावन-बिस्तर को झाड़े बिना जमीन पर नहीं सोना चाहिए. सौण बिसौण झाड़िक लगौणु सुधि नि सेणु भुय्यां.
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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सौंण का मैनाकॖ बहुत ही सजीव चित्रण । उन त पहाडक जीवन कठोर च, वेफर लोकगीत और इना लेख मलहमक काम करदिन ।