आपने यह कहानी पढ़ी “पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप“. आज की कहानी में जानते हैं पुष्पदंत के साथ आगे क्या हुआ.
श्राप के कारण, पुष्पदंत धरती पर वररुचि (जिन्हें कात्यायन भी कहा जाता है) के रूप में जन्मे. जब उन्होंने सभी विद्याओं में महारत हासिल कर ली और राजा नंद के यहाँ मंत्री का पद भी संभाला, तो उन्हें इस जीवन से थकान हो आई. उन्होंने देवी दुर्गा के एक मंदिर की यात्रा करने का निश्चय किया. दुर्गा उनकी तपस्या से प्रसन्न हुईं और उन्हें सपने में आदेश दिया कि वे विन्ध्य पर्वत के जंगलों में रहने वाले काणभूति नामक पिशाच से मिलें.
वररुचि विन्ध्य के घने जंगलों में भटकने लगे. वहाँ बंदर और बाघ तो बहुत थे, पर पानी या इंसानों का कोई निशान नहीं था. आखिरकार, उन्हें एक नीम का पेड़ दिखाई दिया और उसके पास ही वह काणभूति मिला. वह एक विशाल पेड़ की तरह दिखने वाला पिशाच था, जिसके चारों ओर सैकड़ों अन्य पिशाच थे.
काणभूति ने वररुचि को देखा तो तुरंत उठा और उनके पैर छूए. वररुचि ने उसके पास बैठकर पूछा, “तुम स्पष्ट रूप से एक अच्छे कुल के हो. तुम ऐसे कैसे हो गए?”
वररुचि का स्नेह देखकर काणभूति बोला, “मुझे खुद नहीं पता कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ, पर मैं तुम्हें वह कहानी सुनाता हूँ जो मैंने उज्जैन के श्मशान में स्वयं भगवान शिव से सुनी थी. सुनो…”
काणभूति ने आगे बताया, “एक बार देवी पार्वती ने शिवजी से पूछा, ‘आप खोपड़ियों और श्मशान में इतना समय क्यों बिताते हैं?’ शिवजी ने उत्तर दिया, ‘बहुत पुराने समय की बात है, जब संसार जल में डूबा हुआ था. मैंने अपनी जांघ से एक बूंद रक्त निकालकर जल में गिराया. वह रक्त एक अंडे में बदल गया, जिससे ‘पुरुष’ का जन्म हुआ. उस पुरुष से मैंने सृष्टि की रचना की. इसीलिए पुरुष को संसार का दादा कहा जाता है. लेकिन सब कुछ रचने के बाद पुरुष घमंडी हो गया और मुझे उसका सिर काटना पड़ा. इसके प्रायश्चित के लिए मैंने एक कठिन व्रत लिया, इसीलिए मैं खोपड़ियाँ धारण करता हूँ और श्मशान में रहता हूँ.'”
काणभूति ने आगे कहा, “मैं यह कहानी सुनकर और जानने को उत्सुक हो गया और श्मशान में ही छिपा रहा. तभी मैंने पार्वती जी को शिवजी से पूछते सुना, ‘पुष्पदंत हमारे पास कब लौटेगा?’ शिवजी ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘यह पिशाच कभी कुबेर का यक्ष था. कुबेर ने इसे श्राप देकर पिशाच बना दिया. जब यह पुष्पदंत से ‘बृहत्कथा’ की कहानियाँ सुनेगा और फिर उन्हें माल्यवान को सुनाएगा, तभी इन तीनों के श्राप खत्म होंगे.’ यह सुनकर मैं बहुत खुश हुआ और इसी जंगल में पुष्पदंत का इंतज़ार करने लगा.”
यह सुनते ही वररुचि को अपना असली रूप याद आ गया, मानो गहरी नींद से जागे हों. वे बोले, “मैं ही वह पुष्पदंत हूँ. अब तुम मुझसे वह कहानी सुनो.” और वररुचि ने काणभूति को सात लाख श्लोकों वाली सात महान कथाएँ सुनाईं.
कहानियाँ सुनकर काणभूति बोला, “आप तो शिवजी के ही अवतार हैं. आपके कारण मेरा श्राप पहले ही हल्का होने लगा है. कृपया मुझे अपने जन्म से लेकर आज तक की पूरी कहानी सुनाएँ.”
वररुचि ने अपनी कहानी शुरू की:
“कौशाम्बी नगरी में सोमदत्त नाम के एक ब्राह्मण रहते थे. उनकी पत्नी का नाम वासुदत्ता था, जो एक श्राप के कारण धरती पर जन्मी थीं. मैं अपने श्राप के कारण उन्हीं के पुत्र के रूप में पैदा हुआ. बचपन में ही मेरे पिता का देहांत हो गया, और मेरी माँ ने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया.
एक दिन, दो ब्राह्मण हमारे घर ठहरे. उसी समय एक बड़े ड्रम की आवाज सुनाई दी. मेरी माँ को अपने स्वर्गीय पति की याद आ गई और उन्होंने बताया कि शायद उनके पिता के मित्र, एक नट, का कार्यक्रम चल रहा है. मैंने उस कार्यक्रम को देखकर माँ के सामने पूरा नाटक दोहराने की बात कही.
यह सुनकर दोनों ब्राह्मण हैरान रह गए. मेरी माँ ने उन्हें बताया, “मेरा बेटा जो कुछ भी एक बार सुन लेता है, उसे वह ठीक वैसा ही दोहरा सकता है.” ब्राह्मणों ने मेरी परीक्षा ली और मैंने उनके द्वारा बोले गए हर शब्द को बिना गलती दोहरा दिया.
ब्राह्मणों में से एक, व्याड़ी, ने मेरी माँ को अपनी कहानी सुनाई. “हमें स्वप्न में कार्तिकेय भगवान ने आदेश दिया कि हम पाटलिपुत्र नगरी में वर्षा नामक ब्राह्मण से ज्ञान प्राप्त करें. पर वर्षा केवल उसे ही ज्ञान देगा जो कुछ भी एक बार सुनकर याद रख सके. हम पूरी धरती पर घूमे, लेकिन ऐसा कोई नहीं मिला, आज आपके पुत्र को पाकर हमारी खोज पूरी हुई है.”
मेरी माँ ने सहर्ष मुझे उनके साथ जाने की अनुमति दे दी. हम पाटलिपुत्र पहुँचे और गुरु वर्षा ने हमें ‘ॐ’ का उच्चारण करवाया. उसी क्षण, उनके मन में सभी वेद और विद्याएँ प्रकट हो गईं. मैंने हर बात केवल एक बार सुनकर याद कर लिया. सभी ब्राह्मण और स्वयं राजा नंद भी इस चमत्कार को देखकर अचंभित रह गए. गुरु वर्षा का घर धन-संपदा से भर गया और इस तरह मैं वररुचि के रूप में प्रसिद्ध हुआ.”
नोट: यह कहानी संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कथासरित्सागर’ का हिस्सा है, जिसके रचयिता सोमदेव भट्ट हैं. यह ग्रंथ गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ पर आधारित है. इस ग्रन्थ को ‘कश्मीर का पंचतंत्र’ भी कहा जाता है.
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