प्रथम संस्करण की प्रस्तावना लिखते हुए मुझे उतना ही हर्ष हो रहा है जितनी मेरे साथी साहित्यकारों को प्रस्तावना पढ़ते हुए ईर्ष्या होगी. प्रस्तावना में मैं सर्वप्रथम आपको बताऊँगा कि जो मैंने लिखा है वह व्यंग्य संग्रह है (जिससे व्यंग्य पढ़ते हुए आप कहीं गलती से उसे कहानी, निबन्ध आदि न समझ लें). स्वयं को बौद्धिक दिखाने का प्रयास करने के लिये (जिससे कहीं आप मुझे हल्के में न लें), मैं कुछ भारी-भरकम नामों, जैसे वुडहाउस, ऑरवेल, आदि का उल्लेख करूँगा.
(Satire by priy abhishek)
अब मैं आपको बताऊँगा कि एक लेखक के रूप में मैं कितना विशिष्ट हूँ. इसके लिए मैं प्रस्तावना में लिखूँगा कि पुस्तक में क्या-क्या लिखा गया है. बीच-बीच में मैं ये भी लिखता चलूँगा कि पहले क्या-क्या नहीं लिखा गया, क्या-क्या उपेक्षित रहा (और मैं धीरे से इसमें सब-कुछ घुसेड़ दूँगा). फिर निष्कर्षतः मैं बताऊँगा कि जो-जो मैं लिख रहा हूँ, वह पहले कभी नहीं लिखा गया (और इस तरह मैं साबित कर दूँगा कि पहले कुछ नहीं लिखा गया), व्यंग्य लेखन की शुरुआत इस किताब से ही होती है. (पुस्तक की प्रस्तावना ही वह अवसर है जहाँ लेखक खुद के क़सीदे लिख सकता है.)
मैं लिखूँगा कि पहले व्यंग्य संग्रह को आपके हाथों में सौंपते हुए मुझे खुशी महसूस हो रही है. आपको क्या महसूस हो रहा है, ये आप जानें. अपनी तो एक कॉपी ठिकाने लग गई. हिंदी लेखकों के लिये कॉपी ठिकाने लगाना, लाश ठिकाने लगाने जैसा ही मामला है.
प्रूफ़ में छूट गईं और अब किताब में छप चुकी गलतियों को मैं साहित्य और व्यंग्य में किये गए नवीन प्रयोग कहूँगा. कई जगह नुक़्ते लगने से रह गए होंगे (और कई जगह मुझे ख़ुद नहीं पता कि वे कहाँ लगते हैं), इसलिये मैं लिख दूँगा कि मैं हिंदी में इसके प्रयोग को अनावश्यक मानता हूँ. (भले ही मेरा जलील, ज़लील हो जाय.)
(Satire by priy abhishek)
पहले संस्करण की प्रस्तावना में मैं ये हर तरह से साबित करने की कोशिश करूँगा कि इस किताब की समाज को कितनी आवश्यकता थी. यदि यह किताब न आती तो संम्भव है तीसरा विश्वयुद्ध छिड़ जाता. मैं उन लोगों के भी नाम इस प्रस्तावना में लिखूँगा जिन्होंने मुझसे अनेक अवसरों पर ये किताब लिखने का आग्रह किया. कुछ ने तो, यदि मैंने किताब न लिखी तो, आत्महत्या की धमकी भी दी. मैं उस मृगनयनी का नाम गुप्त रखते हुए बताऊँगा कि उसने कहा था- तुम्हारी किताब के बिना मैं जी नहीं सकती.(उसने ये भी कहा था कि मैं अपनी गोदी में तुम्हारी किताब देखना चाहती हूँ.)
(Satire by priy abhishek)
मैं उन बड़े आयोजनों का (जिनमें मैं कभी गया ही नहीं) उल्लेख करूँगा, जहाँ बड़े-बड़े विद्वानों ने (जो मुझसे कभी मिले ही नहीं) कहा था कि अब तुम्हारी क़िताब आ जानी चाहिये. उनमें से कुछ मुझे हैबिटेट सेंटर में मिले, कुछ मंडी हाउस में, कुछ भारत भवन में. इन सब लोगों के विशेष आग्रह पर, समाज पर महान उपकार करने हेतु, भारी मन से मैंने ये पुस्तक लिखी. वरना मेरी कोई इच्छा नहीं थी.
प्रस्तावना के अंत में मैं अपने माता-पिता, पत्नी-बच्चों का धन्यवाद करूँगा. जिस काम से एक धेले की भी कमाई न हो, उस काम के लिये मैं लिखूँगा कि मेरी पत्नी ने हमेशा लेखन में मेरा सहयोग किया और (तुमसे कुछ न हो सकता, तुम बस लिखो-पढ़ो कहकर) मेरा उत्साह बढ़ाया. भामती की तरह दीपक जला कर (क्योंकि इन्वर्टर ठीक कराना मैं भूल गया) मेरा लेखन का काम सुगम किया.
मैं इस किताब को अपनी पत्नी को समर्पित करना चाहता था, पर तभी मुझे माँ का ख़्याल आ गया. अतः मैं इस किताब को अपनी माँ को समर्पित करने लगा, पर तभी मुझे पत्नी का ख़्याल आ गया. अब ये किताब मैं अपने पिताजी को समर्पित कर रहा हूँ, पर मुझे रह-रह कर अपने श्वसुर और उनकी बेटी का ख़्याल आ रहा है. मैं अपनी किताब राष्ट्र को समर्पित करता हूँ. राष्ट्र को इस किताब की महती आवश्यकता है.
(Satire by priy abhishek)
प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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