भोगीलाल जी से मिलूँ और कुछ कथनीय-पठनीय न बने, असम्भव है. कभी-कभी तो वो कथनीय-पठनीय अविश्वसनीय भी होता है. हालाँकि इस बार मुलाकात को अविश्वसनीय बनाने में भोगी भाई से अधिक भूमिका शर्मा जी की थी. हर बार की तरह हम दोनों बैठे थे और वे आ धमके. कुछ बीमार से दिख रहे थे. आँखे लाल, सूजी हुई. बाल बिखरे-बिखरे से. कपड़े अस्त-व्यस्त. चेहरा उजाड़-कबाड़. लगता कई रातों से सोये न हों.
“आइये शर्मा जी. बीमार से दिख रहे हैं. एक चाय और बढ़ा देना!” शर्मा जी का हाल लेते हुए मैंने चाय वाले से कहा. गोविंदपुरी चौराहे की उस टपरी पर सुबह-सुबह हम तीन और चायवाला ही मौजूद थे. भट्टी सुलग चुकी थी. और हमारी बातें भी.
“अरे कुछ नहीं प्रिय. बस देर रात तक जगता रहा. हल्की सी हरारत भी है. ज्यादा कुछ नहीं, ये फुंसी निकल आई है जो परेशान कर रही है. शायद इसी से बुखार सा है. माइल्ड फीवर.” शर्मा जी ने दोनों भौंह के बीच में निकल आई फुंसी की ओर इशारा करते हुए बताया.
भोगी ने शर्मा जी की ओर सिगरेट बढ़ाई तो उन्होंने मना कर दिया. बोले, “बीड़ी पियूँगा.” मैंने और भोगी ने चौंक कर एक-दूसरे को देखा.
“दवाई-अवाई ली कि नहीं?” मैंने पूछा.
“दिखाना तो ज़रा.” भोगी ने अचानक से शर्मा जी की मुंडी पकड़ ली और फुंसी को गौर से देखने लगा.
“तुम तो ऐसे देख रहे हो जैसे बड़े भारी डॉक्टर हो.” मैंने कहा.
“आजकल लगता है किताबें-वितावें बहुत पढ़ रहे हो शर्मा जी.” भोगी ने फुंसी को गौर से देखते हुए कहा.
“क्या फुंसी से स्याही निकल रही है?” शर्माजी ने घबराकर फुंसी को छू कर देखा.
“फुंसी का किताब पढ़ने से क्या लेना-देना? क्यों शर्मा जी से मज़ाक कर रहे हो? आप तो स्किन के डॉक्टर को दिखाइये शर्मा जी.” मैंने कहा.
“किताबें तो बहुत पढ़ रहा हूँ. लॉट ऑफ बुक्स. पर ये फुंसी देखने से पता चलता है क्या?” शर्मा जी चकित थे.
“अरे शर्मा जी आप भी कहाँ भोगी की बातों में आ गए. कुछ सूमेक-ऊमेक करके क्रीम आती है वो लगा लीजिये.” मैंने शर्मा जी को बचाने का पुनः प्रयास किया.
“शर्मा जी कभी कभी गर्दन में झटके आते हैं क्या? नीचे देखने की इच्छा नहीं होती? आसमान की तरफ देखते रहते हो?” भोगी ने पूछा.
“हाँ-हाँ, झटके आते हैं. यस, यस. चाह कर भी नीचे नहीं देख पाता. कांट सी डाउन. सुबह से तीन बार पैर गोबर में जा चुका.” भोगी को सही नब्ज़ पकड़ते देख मुझे मौन होना पड़ा.
“मन करता होगा कि इस फुंसी को किसी में दे मारूँ? राह चलते आदमी से बिना बात भिड़ जाऊँ? उससे हरेक बात पर कहूँ कि तू क्या है?”
“हाँ कल ही एक आदमी को जड्ड मार दी. जबकि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. बस फुंसी उस आदमी की तरफ़ घूमी, खींचती हुई ले गई और मैंने किसी साँड़ की तरह उसकी छाती में सिर दे मारा. हैड बट. उसका कॉलर पकड़ कर कहा भी कि तू क्या है? व्हाट आर यू?”
“जैसे ज़िडेन ने मेटराज़ी के मारा था दो हज़ार छः के फाइनल में?” मुझे अचानक याद आया.
“हाँ, बिल्कुल वैसे ही.” शर्मा जी ने बताया.
“और महिलाओं को देख कर अतिरिक्त प्रेम उमड़ता होगा?”
शर्मा जी थोड़ा सा शर्मा गए, “उमड़ता तो है.”
“अरे ये क्या उमड़ता-घुमड़ता लगा रखा है? क्या फुंसी देख कर भूत-भविष्य बताने लगे हो? भोगीलाल, फुंसी नजूमी.” मेरा धैर्य छूट रहा था.
“अरे एक मिनट रुकिये प्रिय. शर्मा जी एक बात बताइये कि क्या आपने नोटिस किया है कि कोई किताब निपटाने पर इस फुंसी पर कुछ असर होता है?”
“दरअसल अब आप पूछ रहे हैं भोगी भाई तो याद आया कि जब किताबें पढ़नी शुरू की थीं तब ये हल्की-हल्की सी थी. मिनिमल. फिर जैसे-जैसे किताब पढ़ते गए, ये बढ़ती गई. हर किताब पर कुछ माइक्रोमीटर शायद. पर आप ये कैसे बता रहे हैं?” कुछ देर लपलपाने के बाद अब शर्मा जी के दिमाग़ की ट्यूब लाइट भी जल उठी थी.
“दीवारों पर पुरखों की जगह साहित्यकारों, बड़े पेंटरों, एक्टिविस्ट, नेताओं की फोटो टांगी हैं?” भोगी भाई जारी थे.
“भारतेंदु हरिश्चंद्र और बेग़म अख़्तर की टांगी थी,” शर्माजी सिर नीचा कर के बोले, “फिर आने वाले लोग पूछते- आपके दादा-दादी हैं ये? इसलिये हटा दी.”
“बस एक आखिरी बात और बताइये कि क्या हर पुस्तक के बाद छाती फूली और कद बढ़ा हुआ लगता है?”
“हाँ, हाँ लगता है. पर इसका फुंसी से क्या लेना-देना है?”
“बस! शर्मा जी पहली बात तो ये फुंसी नहीं है. ये शृंग है. सींग. बौद्धिक शृंग.”
“बौद्धिक शृंग?”
“जी. शर्मा जी आपको बौद्धिकता हुई है.”
“बौद्धिकता?” शर्मा जी चकित थे.
“हाँ, बौद्धिकता. इंटेलेक्चुअलाइटिस.”
“इंटेलेक्चुअलाइटिस? अब ये कौन सी बीमारी है?” मैंने पूछा.
“आधुनिक युग की सबसे बड़ी बीमारी है- इंटेलेक्चुअलाइटिस. सोशल मीडिया के आने के बाद तो यह महामारी का रूप ले चुकी है. गांवों में इसे बुद्धि बुखार कहते हैं. आपके ‛बुद्धि का सींग’ निकल आया है शर्मा जी.” ये सुन कर शर्माजी विचलित हो गए, और मैं विस्मित.
घबराते हुए शर्मा जी ने कहा, “अब क्या होगा?”
“घबराने की ज़रूरत नहीं है. आपको छोटी बौद्धिकता हुई है. स्मॉल पॉक्स. एक-शृंगी.”
“और भी होती हैं क्या?”
“हाँ, द्विशृंगी भी होती है. दो सींग वाली. उसे बड़ी बौद्धिकता कहते हैं.”
“क्या होता है इसमें?” मैंने पूछा.
झूठ क्यों बोलूँ, मैं भी घबराया हुआ था. जैसे किसी धमाके के बाद खुद अपने शरीर को टटोल कर देखते हैं कि सब सही सलामत है कि नहीं, मेरा भी हाथ चेहरे पर घूमने लगा कि कहीं मेरे भी तो फुंसी नहीं निकल आई.
“प..प.. पहले छोटी बौद्धिकता के बारे में बताइये. स्मॉल पॉक्स. ए.. ए.. एक सींग वाली.” शर्मा जी अब हकलाने-घबराने लगे थे.
“बौद्धिकता की बीमारी में मरीज़ हर बात को दो बार बोलता है, पहले हिंदी में फिर अंग्रेजी में.”
“यह तो है; आई मीन दिस इज़.”
“अगर व्यक्ति एक ही बात को पहले हिंदी में और फिर अंग्रेजी में बोले तो समझ लो यह इंटेलेक्चुअलाइटिस का पहला लक्षण है.”
“सिगरेट की जगह बीड़ी पसन्द आती होगी?”
“पता नहीं क्या हुआ है, या तो बीड़ी पसंद आ रही है, या सीधे चुरट. आई मीन सिगार.” शर्मा जी ने जवाब में उलझन बताई.
“भले ही सोशल मीडिया पर कभी अपने अम्मा-बापू, भाई-बहन, चचा-ताऊ, उनके बच्चे, पड़ोसी के साथ फोटो न डाली हो, पर फलाने कवि के साथ फुर्सत के पल, शायरा दीदी से आज मिलना हुआ, आलोचक जी का सानिध्य प्राप्त हुआ- जैसी फोटो डालते होगे?”
शर्मा जी ने ओठों को चपटा करते हुए स्वीकरोक्ति में सिर हिलाया.
“मन करता होगा कि फटे बांस जैसे गले के साथ भातखंडे क्रमिक पुस्तक मालिका के सभी वॉल्यूम पढ़ डालूँ?”
“किताबें तो बहुत खरीद ली हैं. पढ़ भी रहा हूँ. आई मीन अ बुक इन कपल ऑफ डेज़ एटलीस्ट.”
“ऐसी कौन सी किताबें ले आये आप? क्या पढ़ रहे हैं अभी?” मैंने शर्मा जी से पूछा.
शर्माजी धीरे से बोले, “अभी मेटलर्जी की किताब पढ़ रहा हूँ.”
“मेटलजी?” मैं चीख-चौंक पड़ा, “मेटलजी की किताब क्यों पढ़ रहे हो आप?”
“वो एक इंजीनियर से फेसबुक पर बहस हो गई थी. उसको चित्त करना है. मेक हिम हेड्स.”
“कल को किसी डॉक्टर से बहस हो जाये तो एनाटॉमी की किताब भी ले आना!” मेरा सप्तक तीव्र हो गया.
“अभी मेटलर्जी के बाद लघु सिद्धांत कौमुदी पढूँगा. बीएचयू के एक झाजी को नीचा दिखाना है. लुक हिम लोवर.”
“तभी आँखे सूज गई हैं आपकी,” मैंने कहा.
“अरे नहीं प्रिय, अपने भट्टोजी दीक्षित ने ज़रुर मूवीज़ देखी होंगी रात-रात जाग कर. हैं न भट्टो जी … मतलब शर्मा जी?”
“हाँ. ऋत्विक घटक की पिक्चरें निपटा दीं. अब बर्गमैन की देखूँगा. ऑल क्लासिक्स.”
“पर ये सब आप क्यों कर रहे हो? आप तो कोई फ़िल्म समीक्षक भी नहीं हो?” मेरा चीख-चौंक जारी था.
“प्रश्न ही गलत है प्रिय,” भोगीलाल ने हस्तक्षेप किया, “जैसे किसी बीमार से पूछें कि बुखार में क्यों तप रहे हो? वे फिल्में देख रहे हैं क्योंकि उन्हें बुद्धि बुखार हुआ है. उनके बुद्धि का सींग उग आया है क्योंकि उन्हें इंटेलेक्चुअलाइटिस है. ऐसा ही चला तो अभी इंटलेक्चुअलाइटिस है, फिर ज्ञान की पेचिश होने लगेगी.”
“पेचिश?” मेरा स्वर अब ह्रस्व से दीर्घ हो चला था.
“अब क्या होगा? व्हाट विल हैप्पन?” और शर्मा जी का दीर्घ से प्लुत.
“अरे घबराइये मत, बोला था न आपको छोटी बौद्धिकता हुई है. एक सींग वाली.”
“दो सींग वाली कैसी होती है?”
“द्विशृंगी बौद्धिकता बहुत खतरनाक है. एक सींग वाली बौद्धिकता व्यक्ति की समस्या है, पर दो सींग वाली राष्ट्र की.”
“कैसे?”
“द्विशृंगी खतरनाक है. यह राजनीति, पत्रकारिता, साहित्य से प्रारम्भ करके इतिहासकार, फ़िल्मसमीक्षक, आलोचक बनता हुआ अपनी गंतव्यत्रयी की ओर बढ़ता है.”
“गंतव्यत्रयी? प्रस्थानत्रयी तो सुनी थी, ये गंतव्यत्रयी क्या बला है?” मैने पूछा.
“प्रिय, बौद्धिकता की बीमारी में गंतव्यत्रयी होती है. राजनीति, पत्रकारिता, साहित्य; इंटेलेक्चुअलाइटिस की प्रस्थानत्रयी कुछ भी हो सकती है, पर इसकी गंतव्यत्रयी पुस्तक, पुरस्कार, और पद्मश्री है. इसमें अगर पार्लियामेंट और जोड़ दें तो गंतव्य चातुष्टय का अनुप्रास पूर्ण होता है.”
“पर अंतर क्या है छोटी बौद्धिकता और बड़ी बौद्धिकता में?”
“छोटा बौद्धिक वर्चुअल है, बड़ा बौद्धिक रियल. छोटा एमेच्योर है, बड़ा प्रो. एक-शृंगी के लिये विद्या साध्य है, पर द्विशृंगी के लिये साधन. एक अपनी विद्वता का लोहा मनवाना चाहता है, वहीं दूसरा अपने लोहे की विद्वता.”
“लोहे की विद्वता?” मुझे लगा मैंने कुछ गलत सुन लिया.
“हाँ, लोहे की विद्वता. द्विशृंगी बौद्धिक चाहता है कि मण्डन मिश्र के तोतों की तरह इसके घर के भी तोते, बिल्ली, कुत्ते, लोहे-लंगड़, जीव-निर्जीव सभी से उसकी विद्वता टपके. उसके घर का लोहा, सामान्य लोहा नहीं होता. वो बस्तर की पिटवा आर्ट होती है. दीवारों पर टँगे फोटू भी सामान्य फ़ोटो नहीं होते. रागमाला की मिनिएचर पेंटिंग होती हैं. कुत्ते पामरेनियन होते हैं और बिल्लियाँ पर्शियन. चादरें कलमकारी की, और कटोरियाँ मीनाकारी की. साड़ियाँ पोचमपल्ली, और खिलौने कोंडापल्ली… .. यदि बौद्धिकता की रोगी कोई महिला हो तो बिना इक्कत के उसे बहुत दिक्कत हो जाती है.”
“ये जो आपने लोहे का बताया वो पिटाई आर्ट, वो क्या है, कहाँ मिलेगा? व्हेयर?” शर्मा जी संयत से स्वर में बोले. उनकी धड़कनें अब कुछ काबू में लग रही थीं.
“अरे आप तो छोटी बौद्धिकता के मरीज हो, क्या करोगे खरीद कर. गूगल, विकिपीडिया से पढ़ लीजिये इसके बारे में, और एक लेख लिख मारिये बस! ज़्यादा हो तो एक-आध किताब खरीद लीजिये. वैसे भी ये सब चीज़ें महँगी हैं. और चूँकि महँगी हैं, इसलिये अनुपयोगी भी हैं. किसी भी बीमारी से अधिक खर्चा इंटेलेक्चुअलाइटिस में होता है. बड़ा बौद्धिक दिखने के लिये मरीज़ लाखों रुपया गला देता है.”
“अरे पर्सनालिटी में क्या अंतर आता है, वो तो बताओ. जैसे एक सींग वाले शर्मा जी में आया है, दो सींग वालों में भी तो आता होगा?” मैंने टोका.
“प्रिय पहले ही बताया था कि द्विशृंगी खतरनाक है. यह सामान्य तौर पर जनसरोकार की बात करता दिखेगा. पर जनसरोकार से अधिक रुचि इसको सामने वाले को नीचा दिखाने में होती है. नेम ड्रॉपिंग के लिये एक-शृंगी ने जिन किताबों के नाम रटे होते हैं, द्विशृंगी ने वे किताबें सचमुच में पढ़ रखी होती हैं. यह छोटी-मोटी बहसों में भाग नहीं लेता, क्योंकि उनसे पेट नहीं भरता और ऐसा करना इसकी शान के ख़िलाफ़ भी है. परंतु यदि कहीं आपने द्विशृंगी से बहस कर ली तो यह आपके पृष्ठ भाग में दोनों सींग कुच्च देगा. फिर सींगों पर ऊपर उठा कर सबको दिखायेगा कि देखो, एक और को पटकने जा रहा हूँ. यह अनेक एक-शृंगी रोगियों को पाल कर रखता है.”
“पाल कर रखता है?”
“हाँ, बहस होते ही उन्हें आप पर छोड़ देगा. वे भी आपको घेर लेंगे. इस देश में बौद्धिकों का अलग ही ज़ोम्बीलैंड बना हुआ है. बड़े बौद्धिक के इशारे पर छोटे बौद्धिक आपसे चिपट जायेंगे, खा डालेंगे. छोटी बौद्धिकता का मरीज़ सस्ती-सड़क छाप गालियों से आपको त्रस्त और स्वयं को तृप्त कर लेगा. पर बड़ी बौद्धिकता के रोगी की गालियाँ अलग प्रकार की होती हैं.”
“अलग प्रकार की?”
“हाँ, अंग्रेजी में मिसॉजनिस्ट, फ़ासिस्ट, कम्युनल, नक्सल, बिगट आदि बोलेगा. हिंदी में ब्राह्मणवादी, साम्प्रदायिक, वामी, संघी आदि. यह भाषायी शिष्टाचार के सभी नियमों का पालन करते हुए गाली देगा.”
“मतलब?”
“मतलब यह कहेगा कि श्रीमान, प्रतीत होता है आपके नेत्र कोटरों के पीछे का स्थान रिक्त है. श्रीमान, आप और समझदारी, दोनों एक सिक्के के दो पहलू की तरह हैं, जो सदा एक दूसरे से विमुख रहते हैं. श्रीमान, आप और मूर्खता, दोनों चुम्बक के विपरीत ध्रुवों की तरह हैं, जो सदा एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं. सबसे विकट स्थिति तब होती है जब दो द्विशृंगी आपस में भिड़ जाते हैं.”
“क्या होता है तब?” पूछा शर्मा जी ने, पर दिल थाम के मैं भी सुन रहा था.
“पिछली बार दक्षिणपंथी और वामपंथी द्विशृंगी के आमने-सामने आते ही पूरे सोशल मीडिया पर भगदड़ मच गई थी, भगदड़. सबके कम्प्यूटर, और फोन पर धूल ही धूल उड़ रही थी. दोनों कई दिन तक सींग लॉक किये ज़ोर-आजमाइश करते रहे.”
“कैसे?” मैंने पूछा, क्योंकि शर्माजी का मुँह खुले का खुला रह गया था.
“पहले दो सींग वाले वामपंथी ने दक्षिणपंथी से कहा- यू आर बिगोटिकली मिसॉजनिस्टिक मोरोनिकल पैट्रिआर्कियल पीस ऑफ ए फासिस्ट रिजीम. फिर दो सींग वाला दक्षिणपंथी वामपंथी से बोला- एंड यू आर अ नौंसेंसिकल एग्ज़ाजरेटिड ओवर-इंफ्लेटिड अंडर-डिवेलप्ड साइकोलॉजिकली हाइबरनेटिड नार्सिसिस्टिक अर्बन नक्सल. फिर इन दोनों में जन सारोकार के अत्यंत महत्वपूर्ण विषय- आर्य कहाँ से आये थे पर दस दिवसीय सोशल मीडिया बहस शुरू हुई.”
“दस दिवसीय?”
“हाँ, ये तो सामान्य है. दस-दस दिन तक दोनों आपस में सींग उलझाये रहते हैं. पुस्तकों के बड़े-बड़े उद्धरण, डीएनए प्रोफाइलिंग के निष्कर्ष और भी जाने क्या-क्या. सुधी पाठक जड़-चेतन पक्ष के इन पक्षकारों के उच्चस्तरीय तर्क, विषय विशेषज्ञता, प्रांजल भाषा और ठलुआपन से प्रभावित होते हैं. पांच दिन के बाद बहस ब्रह्माण्ड से पिण्ड की ओर बढ़ी.”
“पिण्ड की ओर?”
“हाँ, अब तर्क निम्नस्तरीय हैं, विषय का विषयांतर हो चुका है और प्रांजल भाषा से प्रा हट चुका है. बात अब माइक्रो पर आ चुकी है. एक कहता है- तू दलाल है सत्ता है. दूसरा कहता है- तू दल्ला है विपक्ष का. एक कहता है- भूल गया तूने कैसे पुरस्कार की जुगाड़ की? दूसरा कहता है- भूल गया तूने कैसे कविताओं की जुगाड़ की? भाषा, तर्क, विषय के इन निरंतर बदलते प्रतिमानों के बीच केवल ठलुआपन स्थाई रहता है. दोनों ही तड़ित गति से मोबाइल, कम्प्यूटर के अभिलेखागारों से स्क्रीनशॉट निकालते हैं. पहला बौद्धिक कहता है- भूल गया जब तूने लड़की भगाई थी तब हमने तुझे बचाया था. दूसरा कहता है- भूल गया जब तेरा एमएमएस बना था तब हमने तेरी रक्षा की थी.”
“ये बड़ी बौद्धिकता के मरीज काम क्या करते हैं?” शर्माजी ने लय भंग की.
“पाठक जानते हैं शर्माजी कि द्विशृंगी रोगी क्या काम करते हैं. यह रोग सामान्य मेहनत-मजदूरी करने वालों को नहीं होता. आप तो एक सींग से ही संतोष करो. वो भी आप ज्यादा समय तक अफोर्ड नहीं कर पाएंगे. घर भी चलाना है.”
“तो क्या करूँ, क्या इलाज है इसका?” शर्मा जी ने पूछा.
“अरे एक-शृंगी बौद्धिकता का इलाज तो बहुत सरल है. किसी भी दिन कोई द्विशृंगी मुंडी पकड़ के फुंसी को ज़मीन में घिस देगा, सबके सामने गर्दन पकड़ कर मान मर्दन कर देगा, फुंसी तुरंत बैठ जाएगी. क्या पता वो बीचयू वाले झाजी द्विश्रंगी निकलें और वे ही इलाज कर दें. यू नेवर नो.”
“और द्विशृंगी?”
“हूँ… वो तो गम्भीर मामला है. इनके सींग निरन्तर बढ़ते रहते हैं. जिससे ये पुलिस एजेंसियों, शत्रु प्रोफेसरों, विरोधी साहित्यकारों, पुरानी प्रेमिकाओं की नज़र में आ जाते हैं. और पकड़े जाते हैं. पर इससे इनके सींग समाप्त नहीं होते. उल्टा इनके सींगों में चार चांद लग जाते हैं.”
“तो सींग समाप्त कैसे होते हैं?”
“इसके लिये इन्हें और अधिक किताबें पढ़नी पड़ती हैं. एक समय के बाद जैसे-जैसे किताबों की संख्या बढ़ती जाती है, बीमारी का ग्राफ नीचे आने लगता है. और अंत में शून्य पर आ जाता है.”
शर्माजी उठे और धीरे धीरे अपने घर की ओर निकल लिये. मैं भी उठा तो भोगीलाल ने कहा, “आप कहाँ जा रहे हैं प्रिय?”
मैंने कहा, “मैं भी जा रहा हूँ. आई एम गोइंग टू.”
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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1 Comments
Kamal Kumar Lakhera
सच में बौद्धिक बुखार होता है, शायद ।