मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से
-रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’
मैं साइमन
न्याय के कटघरे में खड़ा हूं
प्रकृति और मनुष्य मेरी गवाही दे!
मैं वहां से बोल रहा हूं जहां
मोहनजोदड़ो के तालाब के आखिरी सीढ़ी है
जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियां बिखरी पड़ी हैं
इसी तरह एक औरत की जली हुई लाश
आपको बेबीलोनिया में भी मिल जाएगी
और इसी तरह इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां
मेसोपोटामिया में भी मिल जाएँगी
मैं सोचता हूं और बारहा सोचता हूं
कि आखिर क्या बात है कि
प्राचीन सभ्यताओं के मुहाने पर
एक औरत की जली हुई लाश मिलती है
और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां मिलती हैं
जिनका सिलसिला
सीथिया की चट्टानों से लेकर
सवाना के जंगलों तक फैला है.
एक औरत जो मां हो सकती है
बहन हो सकती है
बीवी हो सकती है
बेटी हो सकती है, मैं कहता हूं
तुम हट जाओ मेरे सामने से
मेरा खून कलकला रहा है
मेरा कलेजा सुलग रहा है
मेरी देह जल रही है
मेरी मां को, मेरी बहन को, मेरी बीवी को
मेरी बेटी को मारा गया है
मेरी पुरखिनें आसमान में आर्तनाद कर रही हैं
मैं इस औरत की जली हुई लाश पर
सिर पटक कर जान दे देता
अगर मेरी एक बेटी ना होती
तो और बेटी है कि कहती है
कि पापा तुम बेवजह ही
हम लड़कियों के बारे में इतना भावुक होते हो
हम लड़कियां तो लकड़ियां होती हैं
जो बड़ी होने पर चूल्हे में लगा दी जाती हैं.
और वे इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां
रोमन गुलामों की भी हो सकती हैं
और बंगाल के जुलाहों की भी
या अति आधुनिक वियतनामी, फिलिस्तीनी, इराकी
बच्चों की भी
साम्राज्य आखिर साम्राज्य ही होता है
चाहे वो रोमन साम्राज्य हो
चाहे वह ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अतिआधुनिक अमेरिकी साम्राज्य हो
जिसका एक ही काम है कि-
पहाड़ों पर पठारों पर
नदी किनारे, सागर तीरे
मैदानों में
इंसानों की हड्डियों बिखेर देना-
जो इतिहास को तीन वाक्यों में
पूरा करने का दावा पेश करता है-
कि हम धरती पर शोले भड़का दिए
कि हमने धरती में शरारे भर दिए
कि हम ने धरती पर इंसानों की हड्डियाँ बिखर दीं
लेकिन मैं स्पार्टाकस का वंशज
स्पार्टाकस की प्रतिज्ञाओं के साथ जीता हूं
कि जाओ कह दो सीनेट से
हम सारी दुनिया के गुलामों के इकठ्ठा करेंगे
और एक दिन रोम आएंगे जरूर.
लेकिन हम कहीं नहीं जाएंगे
क्योंकि ठीक इसी समय
जब मैं यह कविता आपको सुना रहा हूं
लातिन अमरीकी मजदूर
महान साम्राज्य के लिए कब्र खोद रहा है
और भारतीय मजदूर उसके
पालतू चूहों के बिलों में पानी भर रहा है
एशिया से लेकर अफ्रीका तक घृणा की जो आग लगी है
वह आग बुझ नहीं सकती है दोस्त!
क्योंकि वो आग
एक औरत की जली हुई लाश की आग है
वह आग इंसानों की बिखरी हुई हड्डियों की आग है.
इतिहास में पहली स्त्री हत्या
उसके बेटे ने अपने बाप के कहने पर की
जमदग्नि ने कहा ओ परशुराम!
मैं तुमसे कहता हूं कि अपनी मां का वध कर दो
और परशुराम ने कर दिया
इस तरह पुत्र, पिता का हुआ
और पितृसत्ता आई
अब पिता ने अपने पुत्रों को मारा
जाह्नवी ने अपने पति से कहा
मैं तुमसे कहती हूं
मेरी संतानों को मुझ में डुबो दो
और राजा शांतनु ने अपनी संतानों को
गंगा में डुबो दिया
लेकिन शांतनु जाह्नवी का नहीं हुआ
क्योंकि राजा किसी का नहीं होता
लक्ष्मी किसी की नहीं होती
धर्म किसी का नहीं होता
लेकिन सब राजा के होते हैं
गाय भी, गंगा भी, गीता भी, और गायत्री भी
ईश्वर तो खैर!
राजा के घोड़ों की घास ही छिलता रहा
बढ़ा नेक था ईश्वर!
राजा का स्वामीभक्त!
अफसोस कि अब नहीं रहा
बहुत दिन हुए मर गया
और जब मरा तो
राजा ने उसे कफन भी नहीं दिया
दफन के लिए दो गज जमीन भी नहीं दी
किसी को नहीं पता
ईश्वर को कहां दफनाया गया है,
खैर ईश्वर मरा अंततोगत्वा
और उसका मरना ऐतिहासिक सिद्ध हुआ-
ऐसा इतिहासकारों का मत है
इतिहासकारों का मत यह भी है
कि राजा भी मरा अंततोगत्वा
उसकी रानी भी मरी
और उसका बेटा भी मर गया
राजा लड़ाई में मर गया
रानी कढ़ाई में मर गई
और बेटा, कहते हैं पढ़ाई में मर गया
लेकिन राजा का दिया हुआ धन रहा
धन वचन हुआ और बढ़ता गया
और फिर वही बात!
कि हर सभ्यता के मुहाने पर एक औरत की
जली हुई लाश
और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां.
वह लाश मिली नहीं है, जलाई गई है
ये हड्डियां बिखरी नहीं है, बिखेरी गई हैं
ये आग लगी नहीं है, लगाई गई है
ये लड़ाई छिड़ी नहीं है, छेड़ी गई है
लेकिन कविता भी लिखी नहीं है, लिखी गई है
और जब कविता लिखी जाती है
तो आग भड़क जाती है
मैं कहता हूं तुम मुझे इस आग से बचाव मेरे दोस्तो!
तुम मेरे पूरब के लोगो! मुझे इस आग से बचाओ
जिनके सुंदर खेतों को तलवार की नोकों से जोता गया
जिनकी फसलों को रथों के चक्कों तले रौंदा गया
तुम पश्चिम के लोगो! मुझे इस आग से बचाओ
जिनकी स्त्रियों को बाजारों में बेचा गया
जिनके बच्चों को चिमनियों में झोंका गया
तुम उत्तर के लोगो! मुझे इस आग से बचाओ
जिनकी बस्तियों को दावाग्नि में झोंका गया
जिनके नावों को अतल जलराशियों में डुबोया गया
तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे बचाओ
जिनके खून के गारे से
पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं
क्योंकि मुझे बचाना उस औरत को बचाना है
जिसकी लाश
मोहनजोदड़ो के तालाब के आखिरी सीढ़ी पर
पड़ी है मुझको बचाना उन इंसानो को बचाना है
जिनकी हड्डियां
तालाब में बिखरी पड़ी हैं
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है
तुम मुझे बतचाओ मैं तुम्हारा कवि हूं.
रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ (3 दिसम्बर 1957 – 8 दिसंबर 2015) हिंदी के लोकप्रिय जनकवि रहे. वे स्नातकोत्तर छात्र के रूप में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से जुड़े. यह जुड़ाव आजीवन बना रहा. उनका निधन 8 दिसंबर 2015 को 58 वर्ष की अवस्था में हुआ. जन्म 3 दिसंबर, 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के अंतर्गत आहिरी फिरोजपुर गांव में हुआ. आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई. सुल्तानपुर में उन्होंने स्नातक किया. इसके बाद उन्होंने कमला नेहरू इंस्टीट्यूट में वकालत में दाखिला लिया. वे इसे पूरा नहीं कर सके. उन्होंने 1980 में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर में प्रवेश लिया. 1983 में छात्र-आंदोलन के बाद उन्हें जेएनयू से निकाल दिया गया. इसके बावजूद वे आजीवन जेएनयू में ही रहे. वही उनकी कर्मस्थली और कार्यस्थली बना रहा. अंतिम समय में उन्होंने ऑक्युपाई यूजीसी में जेएनयू के छात्रों के साथ हिस्सेदारी की. इसी दौरान उनका निधन हो गया.
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