शायद वहाँ थोड़ी सी नमी थी
या हल्का सा कोई रंग
शायद सिरहन या उम्मीद
शायद वहाँ एक आंसू था
या एक चुम्बन
याद रखने के लिए
शायद वहाँ बर्फ़ थी
या छोटा सा एक हाथ
या सिर्फ़ छूने की कोशिश
शायद अंधेरा था
या एक ख़ाली मैदान
या खड़े होने भर की जगह
शायद वहाँ एक आदमी था
अपने ही तरीके से लड़ता हुआ.
मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी साहित्य के चर्चित नामों में हैं. मंगलेश डबराल का जन्म 1948 में टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड के काफलपानी गाँव में और शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई. दिल्ली आकर हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद भोपाल में भारत भवन से प्रकाशित होने वाले पूर्वाग्रह में सहायक संपादक रहे. जनसत्ता अखबार में साहित्य संपादक का पद सँभाला. कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद नेशनल बुक ट्रस्ट से भी जुड़े रहे. मंगलेश डबराल के प्रमुख प्रकाशित कविता संग्रह हैं — पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है और नए युग में शत्रु. इसके अतिरिक्त इनके दो गद्य संग्रह लेखक की रोटी और कवि का अकेलापन के साथ ही यात्रावृत्त एक बार आयोवा भी प्रकाशित हो चुके हैं. ओम प्रकाश स्मृति सम्मान, शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, हिंदी अकादेमी दिल्ली का साहित्यकार सम्मान और कुमार विकल स्मृति सम्मान से सम्मानित मंगलेश जी की ख्याति अनुवादक के रूप में भी है. उन्होंने बेर्टोल्ट ब्रेख्त, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस,जिबग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊष रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि की कविताओं का अंग्रेज़ी से अनुवाद किया है. वे बांग्ला कवि नबारुण भट्टाचार्य के संग्रह ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ के सह-अनुवादक भी हैं. उन्होंने नागार्जुन, निर्मल वर्मा, महाश्वेता देवी, अनंतमूर्ति, गुरदयाल सिंह, कुर्रतुल-ऐन हैदर जैसे कृती साहित्यकारों पर वृत्तचित्रों के लिए पटकथा लेखन किया है. वे समाज, संगीत, सिनेमा और कला पर समीक्षात्मक लेखन भी करते रहे हैं। मंगलेश जी की कविताओं के भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, स्पानी, पोल्स्की और बल्गारी भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं. उन्होंने आयोवा विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम, जर्मनी के लाइपज़िग पुस्तक मेले, रोतरदम के अंतरराष्ट्रीय कविता उत्सव में और नेपाल, मॉरिशस और मॉस्को की यात्राओं के दौरान कई जगह कविता पाठ भी किये हैं.मंगलेश कविताओं में सामंती बोध एव पूँजीवादी छल-छद्म दोनों का प्रतिकार है. वे यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे के साथ नहीं बल्कि प्रतिपक्ष में एक सुंदर सपना रचकर करते हैं. उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म है और भाषा पारदर्शी.
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