तुम्हारी निश्चल आंखें
चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
जरूर दिखायी देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी
दुनिया भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में तुम अव्वल हो
पहली कतार में मेरे लिए
मुझे माफ करना
मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही
सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी
तुम्हारी अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं खुश हूं सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई !
7 नवंबर 1936 को जौलखेड़ा, बैतूल (मध्य प्रदेश) में जन्मे चन्द्रकांत देवताले समकालीन हिन्दी कविता के सबसे बड़े हस्ताक्षरों में से थे. उन्होंने अपने कार्य के लिए साहित्य अकादमी पुरुस्कार के अलावा मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान और कविता समय पुरस्कार हासिल किये. उनकी प्रमुख कृतियों में हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उसके सपने, बदला बेहद महँगा सौदा, पत्थर फेंक रहा हूँ हैं. 14 अगस्त 2017 को उनका निधन हुआ.
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