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पिथौरागढ़ में फुटबाल का स्वर्णिम इतिहास

पिथौरागढ़ में वर्ष भर फुटबॉल खेली जाती थी. लेकिन दूर्नामेंट का आयोजन देवसिंह मैदान में ही होता और खेल का सीजन मध्य जुलाई से सितम्बर अंत तक रहता. देवसिंह मालदार ट्रॉफी, जनरल करियप्पा सील्ड, महर कप आदि मुख्य रनिंग कप थे और इन चल वैजयंतियों में हर वर्ष लगभग 8-10 टीमें भाग लेती. स्टेशन टीम, आजाद टीम, जी.आई.सी. ए. जी.आई.सी. बी. एम.आई. सी., एस.डी.एस., महर टीम, विलेज यूनियन, सर्विसेस तो कभी-कभी टनकपुर व लोहाघाट की टीमें भाग लेने पहुँचतीं. रुक-रुक कर वर्षा की फुहारें, सतरंगी इन्द्रधनुष, कभी घाम तो कभी छांव, अर्जुनेश्वर की ओर से उठता कोहरा तेजी से थल केदार, बमन धौन होता वड्डा गढ़ी नेपाल को निकलता तो कभी मैदान को ढकता उड़ता ध्वज सौरलेक की ओर. खिलाड़ियों के बीच गोल निकालने की तकनीक, हुनर की होड़ देखने लायक होती. दूसरे दौर से ही मैच गोल रहित अनिर्णित रह जाते. अगले दिन फिर तैयारी के साथ खिलाड़ी उतरते.
(Pithoragarh Football History Uttarakhand)

पचास के दशक के उत्तरार्द्ध में एक ओर जी. आई.सी. टीम तो दूसरी ओर स्टेशन महर, या विलेज यूनियन की टीम फाइनल में पहुँचती जिसमें अनुभवी खिलाड़ी होते . किशोरों की धमनियों में बहता तेज रक्त उनकी स्फूर्ति का कारण होता तो दूसरे पलड़े में अनुभव की शालीनता. खेल चरम पर होता और हजारों दर्शक मंत्रमुग्ध खेल का आनन्द उठाते. खिलाड़ियों की हौसला अफजाई का अपना मंजर होता. जी.आई.सी. के दो-तीन सौ छात्र भोंपू से आवाज देते ‘आल द वाइज मेक ए नाइज’, ‘जी.आई.सी. बकअप, बकअप जी. आई.सी.’. दूसरी ओर की टीमों व स्टार खिलाड़ियों की बकअप होती और सीजन भर पिथौरागढ़ का वातावरण टीमों व खिलाड़ियों की बकअप से गुंजायमान रहता .

खिलाड़ियों का खेल के प्रति जुनून व समर्पित भाव तो देखते ही बनता क्योंकि अपने कस्बे में किसी भी फुटबाल खेलने वाले का अन्तिम लक्ष्य इस फुटबॉल टूर्नामेंट में किसी टीम में जगह पाकर खेल दिखाना ही होता. ऐसे अवसर का पाना खिलाड़ी अपना सौभाग्य समझता और शत प्रतिशत लगाव से अपनी टीम को जिताने का जज्बा दिखाता. इससे फुटबाल का स्तर बुलंदियाँ छूता तो इसमें दर्शकों का भी हाथ होता जो कामकाज छोड़कर मैच देखने पहुँचते . सायं चार बजे के आसपास सोर बाजार की हलचल मंद पड़ जाती क्योंकि पूरा शहर देवसिंह मैदान के चारों ओर जगह बनाकर फुटबॉल का आनन्द लेता. ज्यों-ज्यों मैच अन्तिम चरण की ओर बढ़ते एक बड़ा-सा जन सैलाब निकटवर्ती गाँवों से पहुँचता और चहेती टीम व खिलाड़ियों का उत्साहवर्द्धन करता.

दर्शकों के बीच हार-जीत को लेकर शर्तें लगती. दर्शकों में सरदार ज्ञान सिंह की चहेती टीम व चहेते खिलाड़ी और जहूर मियाँ सब्जी के बड़े थोक व्यापारी के बीच हजारों की शर्त! खुला प्रदर्शन कर अपनी टीम की हौसला अफजाई ! परिणाम कभी इधर तो कभी उधर पर शर्त की धनराशि की टीम के खिलाड़ियों और उसके कद्रदानों में दावत . हिमानी होटल, पाण्डे पकौड़ी, लाली सिलथाम के यहाँ सूखी तो शमशेर दाई के यहाँ शिकार माइल्ड मदिरा की दावतें नगर में मशहूर इनके बिना फुटबॉल की कहानी अधूरी कही जायेगी.

शालीन दर्शकों में चेयरमैन खीमसिंह सौन, एडवोकेट रमेश चन्द्र पाण्डे, एडवोकेट गंगा राम, नवीन चन्द्र पाण्डे, गुलाब सिंह, हरिनन्दन, सरताज आयोजक रजनीकान्त जोशी, जगदीश लाल खत्री जैसे दर्जनों चेहरे अवश्य दर्शक दीर्घा में होते. रमेश चन्द्र पाण्डे इतनी तल्लीनता से फुटबॉल देखते कि मैदान में खेल के अनुरूप उनके अंग-प्रत्यंग हरकत में रहते. उनकी ठीक अगली पंक्ति में बैठे दर्शक दो-एक हिट व किक खा जाते. उनके स्वाभाविक रिफलैक्श चर्चित रहते और सहज स्वीकार्य भी. फुटबॉल का नजारा भी तो दर्शक को पूर्ण खेलमय बना देता था.
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उस दौर प्रसंगों में जी.आई.सी. द्वारा सिलवर जुबली वर्ष (1955) में जबर्दस्त प्रतिस्पर्द्धा के बीज इन्द्रध्वज की कप्तानी में तीनों कप कब्जा लिये जाने की बात सबसे ज्यादा चर्चित थी. पहली बार स्कूली टीम लोहाघाट के टूर्नामेंट में हिस्सा लेने गई और उमेश्वर सिंह फुटबाल शील्ड जीत लाई. उस टीम के सभी खिलाड़ी आने वाले वर्षों में दूसरी टीमों से चमकदार खेल खेलते रहे और याद किये जाते रहे. उन्हीं दिनों पाण्डे गांव के जीवानन्द पाण्डे, जो जी.आई.सी. के फुल बैक थे, ‘जिबवा अड़ान’ नाम से प्रसिद्ध हो गये. कहा जाता कि उनके रहते गेंद जी.आई. सी. के गोल पोस्ट तक जा ही नहीं सकती थी. कोई फारवर्ड उनकी आड़ को न भेद पाता. दूसरे लोकप्रिय खिलाड़ी महेन्द्र सिंह माहरा के लिये कहा जाता कि डी के आस-पास यदि उन्हें हैड करने को मिल जाय तो गोल निश्चित. फुटबाल में इतनी ख्याति अर्जित की कि उसके बूते आगे चलकर उ.प्र. में विधायक और उत्तराखण्ड में कृषि मंत्री बने. जी.आई.सी. के एक और कप्तान मिलाप सिंह फारवर्ड के लिए कहा जाता कि चुम्बक की तरह से बॉल उनके पैरों से चिपकी दूसरे के गोलपोस्ट तक चलती और हाथ-पैर के संयोजन से दर्शनीय गोल निकाल लेते. रैफरी उनके हैण्ड बॉल को नहीं भांप पाते.

1960 में पिथौरागढ़ जिला बना और शहर मुख्यालय. तब फुटबॉल अपने सर्वोच्च पर थी. जी.आई.सी. की टीम का दबदबा बरकरार था. उधर स्टेशन टीम कुछ हल्की पड़ी क्योंकि आजाद, पिथौरागढ़ यूनियन और विलेज यूनियन टीमें और मजबूत खिलाड़ियों से लैस हो गई. जहाँ जी.आई.सी. टीम के महेश खर्कवाल, कैलास पाण्डे, भूपाल सिंह बिष्ट, रामचन्द्र जोशी, दयाकृष्ण जोशी, रमेश जोशी, संतोष चंद, हर्ष बहादुर सेन ऊर्जावान फुटबॉल खेलते वहीं दिनेश पाण्डे, जगदीश खत्री, जोगादत्त भट्ट, अजीत बख्श, रमेश पुनेठा, छविदत्त पुनेठा, महेन्द्र सिंह माहरा, हरिवरन शाही, श्याम खत्री, गणेश खत्री, यतीन्द्र चन्द्र गोरिंग, प्रेमसिंह सौन, महमूद मियां, कल्लू मियां, मोहन लाल नगर के अति प्रतिभा सम्पन्न खिलाड़ियों के रूप में जाने जाते. ठीक इन्हीं दिनों त्रिलोक सिंह बसेड़ा राष्ट्रीय टीम में फुटबॉल खेलते सर्वाधिक चर्चित खिलाड़ी थे. उन्हें उनके अद्भुत बैकलाइन खेल के लिये ‘आयरन वॉल ऑफ इण्डिया’ का खिताब मिला और यहां के खिलाड़ियों के लिए उनका प्रदर्शन उत्प्रेरक का कार्य कर रहा था.

साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में डिग्री कॉलेज की टीम की चमक बढ़ गयी थी. क्योंकि जी.आई.सी., एम. आई.सी., एस.जी.एस. के चुने हुए खिलाड़ी यहाँ सूत्रबद्ध हो गये थे. सेंटर हाफ महेश जोशी की टीम का अपना दबदबा रहा. इस टीम के खिलाड़ी सदस्य रहते चिरन्तन जोशी, योगेश पाण्डे, जगदीश भट्ट के साथ गोपाल पल्याल व महेश जोशी की फीडिंग पर स्कोर निकालने का आनन्द उठाया. सटीक पास पैरों में आते और हल्की-सी कारीगरी पर कलात्मक स्कोर निकलते. महाविद्यालय के आत्मदेव त्रिपाठी, बनर्जी, खेल प्रशिक्षक लाल तथा बालादत्त जोशी खुश होकर मैदान में ही दूध पीने का इनाम दे जाते. महेश जोशी के लिये प्रसिद्ध था कि हाफ फील्ड के आसपास से उन्हें यदि डायरेक्ट किक मिल जाय तो बार को छूती गेंद गोल की जालियों में ही दिखती. ठीक इन्हीं दिनों बंगाल इंजीनियर्स के जीवानन्द पुनेड़ा (जीवा) सर्विसेस फुटबॉल टीम का प्रतिनिधित्व कर लौटे थे. पैर की चोट के बाद भी जीवा का दर्शनीय छोटे पासों वाला खेल और बनाना किक पर शून्य डिग्री से गोल निकालना तो भुलाये नहीं भूलता. इसी क्रम में दूसरे सर्विसेस खिलाड़ी सुवाकोट के महेन्द्र के खेल का कोई जवाब नहीं था. क्या लहर खाती फुटबॉल व गेंद नियंत्रण-पावर किक! महेन्द्र का खेल देखते ही बनता. इस इलाके के पहले फुटबॉल एन.आई.एस. कर्णबहादुर पाल, विलेज यूनियन से खेलते सेंटर हाफ मल व सेंटर हाफ त्रिलोक सिंह गोल कीपर लेलू के मोहन सिंह आदि का खेल अद्भुत था.
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इन दिनों सेना की टीम से खेलने वाले मध्य भारत नामक खिलाड़ी की चर्चा होती. उनकी किक में इतनी पावर कही जाती कि हाफ लाइन के बाद की किक गोली को गेंद सहित जाली में धकेल देती. यह कहा जाता कि एक बार पैनल्टी में पूरे जोर की किक मारी तो गोल कीपर की आंतें फट गई. यह शक्ति उनके खेल में नजर आती थी. साठ के दशक में इस मैदान से निकले धीरेन्द्र सिंह चौहान फारवर्ड के खेल को नहीं भुलाया जा सकता. सेना में पहुँच जूनियर सर्विसेस फिर गोवा डेम्पो की टीम के लिये चयनित हुए. चोट के कारण कस्बे में लौटे फिर लगातार फुटबॉल के खेलने-खिलाने से जुड़े रहे. 1977 में धीरेन्द्र ने बी.एच. इ.एल. हरिद्वार की टीम के विरुद्ध कॉरनर से बनाना किक में लगातार दो गोल निकाले. शायद उनके द्वारा निकाले गये एक सैकड़ा गोलों में सर्वश्रेष्ठ थे.

फुटबॉल की लोकप्रियता को भांपते हुए समाजसेवी रजनीकान्त जोशी, खीमसिंह चौहान, किशन लाल खत्री ने छोटी उम्र व प्रायमरी के बच्चों के लिए टूर्नामेंट आरम्भ करवाये. कक्षा पांच तक के बच्चे उम्र दस वर्ष तथा जूनियर बच्चे कक्षा आठ तक उम्र 14 वर्ष के लिये चलबैजन्ती चलायी और इसमें हिस्सा लेने वाले अनेक बाल खिलाड़ी आगे चलकर बड़ी टीमों से खेलते ख्याति अर्जित कर सके. पिथौरागढ़ की गली-कूचों, तप्पड़ों में भी आपस में बच्चे बिट मैच खेलते थे. 6-7 बच्चे एक साइड दो आना, चार आना, आठ आना फीस जीतने वाली टीम दूना पा जाती.

भली तरह याद है कि राजेन्द्र लाल ठुलघरिया अपनी भवानीगंज की टीम के लिए हमें सिलथाम से बुला पूरी फीस अपनी ओर से जमा करते और जीत पर रामलीला ग्राउण्ड में अठन्नी थमाते . इस तरह की बच्चों की बिट मैंचें सिलथाम, टकाना, लिंथ्यूड़ा, भवानी गंज, घंटाकरण, सेरा, कुमौड़, हुड़ेती, धर्मशाला आदि के बीच होती और जमीन व धरातल में खेले जाने वाली इस फुटबॉल की बिट मैंचों से ही खिलाड़ी निकलते.

ऐसे खिलाड़ी जो टीमों में जगह पाने से छूट जाते, उन्हें माला की तरह गूंथते नजर मियां. कुछ बच्चे, किशोर और पुराने खिलाड़ियों के संयोग से बनी टीम में ग्यारहवें खिलाड़ी की रिक्त जगह के लिये नजर मियां से पूछा जाता, खिलाड़ी कहां ? बड़े अदब से नजर मियां उत्तर देते, ‘वो आरिया है’. यह सिलसिला रैफरी के खेल शुरू करने तक चलता. ठीक अफरा-तफरी के उन क्षणों में नजर मियां कलर पहनकर मैदान में खिलाड़ी के रूप में उतरते और खुद तो जो भी खेलते अपने खिलाड़ियों से ऐसा खेल खिलवाते कि दो-चार किशोर, स्कूली बच्चे, दर्शकों की नजरों में चढ़ते और अगले टूर्नामेंटों के लिए अपने स्कूलों की टीमों में जगह पा जाते .
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1970 के दशक के पूर्वार्द्ध तक पिथौरागढ़ की फुटबॉल अपने उत्कर्ष में थी. पहले सोर घाटी क्लब द्वारा, फिर सिलथाम बारूद की दुकान से विलेज यूनियन की टीम पिरोयी जाती. बाहर गाँव के सेना में कार्यरत खिलाड़ियों को बाकायदा फुटबॉल सीजन में छुट्टियों में बुलाया जाता. स्टेशन में जंग परिवार व जनार्दन पाण्डे, रेनबो ड्राइक्लीनर्स के आसपास स्टेशन और पिथौरागढ़ यूनियन की टीमें सँवरती . प्रेमसिंह सौन अपने बूते आजाद टीम गूँथते. जी.आई.सी., एम.आई.सी. महाविद्यालय की दो टीमें, आई.टी.बी.पी. मिर्थी की चमकदार टीमें, सेना, पुलिस, एम.ई.एस., वड्डा आदि की 12-14 टीमें टूर्नामेंट में हिस्सा लेतीं और फुटबॉल अधिक प्रतिस्पर्द्धा भरा हो गया था. इन दिनों मोहन कलपासी तथा महेन्द्र आई.टी.बी.पी. से खेलते हुए, गिरीश टोलिया, अनिल कपूर, जी.आई.सी. तो उमेश खत्री, प्रताप लुंठी, विजय पाठक, आनन्द मल, मोहन मेहता, गोविन्द धौनी आदि महाविद्यालय टीम से खेलते हुए अपनी खेल की चमक के लिए जाने जाते थे.

1958 से 1978 तक पिथौरागढ़ में फुटबॉल अपने स्वर्णिम काल में था. तभी धारचूला से 4/4 गोरखा रेजीमेंट की टीम पिथौरागढ़ खेलने पहुँची. तकनीकी दृष्टि से अतिसंतुलित छोटे पास और अद्भुत फिनिशिंग की क्षमता के कारण इस टीम ने परम्परागत फुटबॉल खेलने वाली पिथौरागढ़ की टीमों को 5-7 गोलों तक से रौंद डाला और देखते ही देखते बुजुर्गवार ढलती उम्र का दबाव झेल रहे दर्जन भर खिलाड़ी एक साथ फुटबॉल खेलना छोड़ गये. पिथौरागढ़ यूनियन, विलेज यूनियन जैसी टीमें बिखर गयीं. इसका सीधा प्रभाव इस कस्बे की फुटबॉल पर पड़ा और खेलने वालों के स्थानापन्न मिलने कठिन हो गये. शायद यह इसलिए भी कि ठीक इन्हीं दिनों विद्यालयों की टीमों से अच्छा खेलने वाले जूनियर खिलाड़ी लखनऊ स्पोर्टस हॉस्टल के लिए चयनित हो, अध्ययन हेतु लखनऊ चले गये. पिथौरागढ़ की फुटबॉल की चमक जैसे लखनऊ सरक गयी. उत्तर-प्रदेश की सब नेशनल जूनियर टीमें पिथौरागढ़ के खिलाड़ियों से लैस थीं. राष्ट्रीय स्तर पर जीत दर्ज कर नाम कमा रहीं थीं. विनोद वल्दिया, हेम पुनेठा, अनिल पुनेठा, भुवनचन्द्र पन्त, राजेन्द्र बिष्ट, भुवनसिंह गुन्ज्याल, आनन्दसिंह रावत, मनोज पुनेठा, भुवन कापड़ी, भैरव दत्त, प्रकाश मखौलिया आदि लखनऊ में ख्याति अर्जित कर रहे थे.

दो-तीन वर्षों के अवसाद के बाद एक बार पुनः पिथौरागढ़ में फुटबॉल लौटी जब एन. आई. एस. कोच विक्रम दस्तीदार ने धर्मशाला की किशोर टीम को बाकायदा प्रशिक्षित कर पिथौरागढ़ टूर्नामेंट में उतारा. एक बार तकनीकी दृष्टि से पूर्ण फुटबॉल का नजारा देखने को मिला. मनोज पुनेठा, बर्मा से लौटे कांचा के खेल को देखकर लोग अभिभूत हो उठते. 1982-83 में फिर एक बार पिथौरागढ़ में फुटबॉल का आकर्षण लौटा जरूर लेकिन बहुत कम अवधि के लिए. 70 के दशक में जिला क्रीड़ा अधिकारी का कार्यालय यहाँ स्थापित हो गया था और खेल विभाग क्रिकेट, हॉकी, बाक्सिंग की कोचिंग देवसिंह मैदान में देने लगा. नयी पीढ़ी का रुझान क्रिकेट, बैडमिन्टन की ओर था. काफी लड़के बाक्सिंग में कैरियर ढूंढ़ने लगे. धीरे-धीरे पिथौरागढ़ की फुटबॉल की आभा मलिन पड़ने लगी. यह खेल का अस्वाभाविक कैसा विस्तार कि सर्वाधिक लोकप्रिय खेल रसातल में पहुँच गया. अब मुश्किल से दो-एक टूर्नामेंट मल्लिकार्जुन कप, मालदार चंचल सिंह कप आयोजित हो पाते हैं. जहाँ फुटबॉल खिलाड़ियों का अभाव और प्रतिस्पर्द्धात्मक फुटबॉल का माहौल ही न बचा हो तो भला दर्शक वहाँ क्यों पहुँचें. शायद फुटबॉल यहाँ पुनर्जीवित हो सकता है. देवसिंह मैदान की पौध, जो एन.आई.एस. फुटबॉल के प्रशिक्षक हैं और जो अनेक अन्य फुटबॉल खेल से रोजगार या आय अर्जित कर रहे हैं, डी.एस.ए. पिथौरागढ़, धीरेन्द्र चौहान, महेन्द्र लुंठी तथा महेन्द्र सिंह माहरा भी सामूहिक प्रयास करें तो शायद एक दिन फिर पिथौरागढ़ में वह फुटबॉल लौट आये.
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डॉ ललित पंत

शिक्षा से जुड़े और प्रतिष्ठित पहाड़ पत्रिका के संपादक मंडल तथा संस्थापक सदस्य डॉ ललित पन्त, पहाड़ की समाजार्थिकी के विशेषज्ञ हैं. हिमालय में लंबी यात्राओं के साथ इसके समाज पर लगातार लिखते रहे हैं. वर्तमान में पिथौरागढ़ में रहते हैं.

डॉ ललित पन्त का यह लेख पहाड़ पत्रिका पिथौरागढ़-चम्पावत अंक से साभार लिया गया है. पहाड़ हिमालयी समाज,संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर केन्द्रित भारत की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में है जिसका सम्पादन मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा  किया जाता है.

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