फुलदेई, उत्तराखंड का सुप्रसिद्ध और बच्चों का खूबसूरत त्योहार है. फुलदेई शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है. फूल और देई (देळी) अर्थात देहरी. फुलसंग्रांद और फुल फुल माई नाम से भी ये त्योहार जाना जाता है. फुलदेई का हिंदीकरण होने से अब ये फूलदेई के रूप में भी प्रचलित हो गया है. चैत संक्रांति से इस उत्सव की शुरुआत होती है. कहीं तीन दिन मनाया जाता है ये त्योहार तो कहीं आठ दिन तक और कहीं-कहीं पूरे एक महीने तक भी.
(Phool Dei Festival of Uttarakhand)
फागुन लगते ही पहाड़ों में बसंत के आसार दिखने लगते हैं. आ़ड़ू, चुल्लू(खुमानी), मेळू के पेड़ों पर कलियां, फूल बनने की तैयारी में दिखने लगती हैं तो खेतों की मेंड़ों को फ्यूंली भी पीले रंग में रंगाने लगती है. जंगलों में बुरांस वृक्ष अपनी लालिमा से दूर से ही पहचाने जाते हैं. जाड़े की कंप-कंपी खत्म होने लगती है और दिन भी बड़े होने लगते हैं. ऐसा लगता है कि प्रकृति श्रृंगार करके खुद ही आमंत्रित कर रही हो, पुकार रही हो- आओ रे फुलारियो, बाहर आओ. फुलदेई मनाओ.
फुलदेई आज उत्तराखंड के सुन्दर-सार्थक लोकपर्व के रूप में पूरी दुनिया में प्रसिद्धि पा रहा है. प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार ने भी एनडीटीवी के लोकप्रिय कार्यक्रम प्राइम टाइम के माध्यम से साल 2018 की फुलदेई के मौके पर एक यादगार प्रस्तुति दी थी. फुलदेई उत्तराखण्ड का एकमात्र ऐसा लोकपर्व है जो पूरे उत्तराखंड में मनाया जाता है.
कुमाऊँ में फुलदेई, गढ़वाल में फुलदेई, फुलसंग्रांद और फुल फुल माई, जौनपुर में फुल्यारी के नाम से. जौनसार-बाबर-रंवाई में भी थोड़े-बहुत अंतर के साथ फुल्यात (बिस्सू) के नाम से बैसाखी के दिन ये त्योहार मनाया जाता है. फुलदेई की तैयारी चैत-संक्रांति से एक हफ्ते पहले से ही होने लगती है. सजोळि, फुलकण्डी और दूसरी गृहोपयोगी हस्तनिर्मित वस्तुएं लेकर रिंगाल-शिल्पी घर-घर जाते हैं. फुलारी भी अपनी सजोळि/फुलकण्डी को गोबर से लीप कर कमेड़ा (सफेद मिट्टी) की छींट-रेखाओं से सजाते हैं.
कुमांऊ में देहली ऐपण से भी सजायी जाती है. फूलसंक्रांति के पहले दिन फुलारी सूर्यास्त के बाद अपनी फुलकण्डी लेकर फूल चुनने खेतों और समीप के जंगलों में जाते हैं. मेळू, आ़ड़ू, चुल्लू, बुुरांस, सिल्पाड़ी और अन्य रंगबिरंगे फूल चुने जाते हैं. सबसे जरूरी होता है फ्यूंली का फूल और पैय्यां की पाती (पत्तियां). इसीलिए इस त्योहार का एक नाम फुलपाती भी है.
(Phool Dei Festival of Uttarakhand)
जरूरी शर्त ये है कि फूल सूर्यास्त के बाद और अगले सूर्योदय से पहले तोड़े जाएं. नहीं तो फूल जूठे हो जाते हैं. क्यारियों और गमलों में उगे फूल भी जूठे माने जाते हैं. महत्व जंगलों और खेतों में प्राकृतिक रूप से उगे फूलों का ही होता है. रुद्रप्रयाग-चमोली में इस अवसर पर घोघा माता की डोली भी बनायी जाती है. घोघा माता, प्रकृतिदेवी का ही प्रतीक है. फुल फुल माई भी वही है.
फुलदेई के अवसर पर देहलियों में फूल चढ़ाते समय फुलारी सामूहिक स्वर में गीत भी गाते हैं. ऐसे गीतों के कुछ बोल इस प्रकार हैं –
घोघा माता तेरा द्यूल
पैयां पाती फ्यूंल्या फूल
वल्या खोला पल्या खोळा घोघा नचाई
घोघा को पुजारी क्वी नि पाई
घोघा को पुजारी म्वार्यूंन चड़काई
दे दे माई दाळ-चैंळ
तांबै तौलीकु फरफुरु भात
भैर आवा, भैर आवा खुलिगे रात.
फुल फुल माई दाळ-चैंळ
फुल फुल माई फ्यूंल्या फूल
फूलदेई छम्मादेई भर भकार
ईं डेळिक सौ नमस्कार
पूजे द्वार बारम्बार
फ्यूंली बुरांस फुलसंग्रांद
सुफल होयां बर्स नयो आंद
चला फुलारी गीत, संस्कृति मर्मज्ञ प्रो.डी.आर.पुरोहित द्वारा लिखित और विद्याधर श्रीकला मंच के बैनर के लिए सुभाष पाण्डे-संगीता तिवारी के मधुर स्वर में स्वरबद्ध-संगीतबद्ध है. ये पारम्परिक चैती गीत फुलदेई के पूरे मर्म और साफ तस्वीर को प्रस्तुत करने वाला अद्भुत गीत है. इस गीत को पाण्डवाज़ श्रीनगर द्वारा भी रिमिक्स करके वीडियो फार्मेट में फिल्माया गया है. ये रिमिक्स वीडियो भी खूब लोकप्रिय है. देवसाल गाँव में सुने गये मूल चैती गीत की एक पंक्ति के आधार पर प्रो. पुरोहित ने ये गीत अपने नाटक देहरी देहरी फूल के लिए लिखा था. गीत का शब्द-विन्याश बहुत सार्थक और प्रभावित करने वाला है.
चला फुलारी फूलोंक सौदा सौदा फूल बीणला.
म्वार्यूंका झुट्ठा फूल न लायां भौंरों का झुट्ठा फूल न लायां
फूल चढ़ौला माता तैं फूल चढ़ौला घोघा तैं
चला फुलारी फूलोंक सौदा सौदा फूल बाीणला.
घोघा मातान बाळा उबायां घोघा मातान फूल फुलायां
चला फुलारी सार्यों मा बणदेवोंकि फुलार्यों मा
चला फुलारी फूलोंक सौदा सौदा फूल बीणला.
डेलि-डेल्यूमा फूल सजावा खोळि-खोळ्युंमा गीत लगावा
घरों-घरों मा डोलि नचावा वीं माता को ध्यान लगावा.
चला फुलारी फूलोंक सौदा सौदा फूल बीणला.
चला फुलारी फूलोंक पूरब दिसा का कांठों मा
घाम उगिगे घाम उगिगे घाम उगिगे डांड्यों मा.
दे दे माई दाळ-चैंळ कांसाक् भड्डूकु फरफरु भात
भैर आवा, भैर आवा भैर आवा खुलिगे रात.
चला फुलारी फूलोंक पूरब दिसा का कांठों मा
प्रो.डी.आर. पुरोहित द्वारा लिखा गया एक और गीत भी बहुत सुंदर है. इसे ईशान डोभाल के संगीत के साथ सुभाष पाण्डे द्वारा गाया गया है. इसके वीडियो फिल्मांकन का निर्देशन रमन सिंह रावत ने किया है.
घोघा माता फूल्यां फूल
दे दे माई दाळ चैंळ
तांबै तौळिकु फरफरू भात
उठ जावा छोरो खुलिगे रात
ऐगे फुलारी संग्रांद हे गोबिंद फूल ले ऐलो
बजे ढोल की बढ़ई हे गोबिंद फूल ले ऐलो.
ऐगे चैत को पैसारो हे गोबिंद फूल ले ऐलो
डांड्यूं फूलिगे बुरांस धारू फूलिगे अंयार
हे गोबिंद फूल ले ऐलो
लगे धियाणों को खुदेड़ू हे गोबिंद फूल ले ऐलो
ऐगे चैत की चैतोली हे गोबिंद फूल ले ऐलो
ऐगे भेंटुली त्योहार हो जुड़े भै-बैणों को नातो हो
सार्यो फूलिगे लयेड़ी हे गोबिंद फूल ले ऐलो
डांड्यों बासदी म्योलड़ी पाखों बासदू कफुआ
बिट्टों फूलिगे सिलपाड़ी हे गोबिंद फूल ले ऐलो
ये दोनों गीत यूट्यूब पर भी देखे-सुने जा सकते हैं. फुलदेई के अवसर पर फुलारियों के इन निःश्छल गीतों में गाँव-परिवार के सुख-सम्पन्न रहने की कामना भी है और हिंदू नववर्ष के पहले दिन व्यक्त की जाने वाली शुभकामना भी. जब बच्चा गीत गाके देहलियों में फुलपाती चढ़ाते हैं तब गृहस्वामिनी उनको दाल, चावल, गुड़, तिल और रुप्या-पैसा देती है. संक्रांति के आठवें दिन गाँव के समीप, प्रकृति के बीच सामूहिक रूप से फुलारी दाल-भात-हलवा, गुलगुले, मालपुए आदि बनाते हैं और हँसी-खुसी फुलदेई के प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. इस वनभोज को देख कर प्रौढ़ भी ललचाते हैं पर उनको चखने की भी मनाही होती है.
(Phool Dei Festival of Uttarakhand)
बसंत पंचमी से शुरू होने वाला बसंत मैदानी इलाकों में होली के साथ विदा हो जाता है पर पहाड़ में ये बैसाखी तक अपने पूरे ठाठ में देखा जा सकता है. मैदानी बसंत के प्रतीक-पुष्प टेसू, ढाक, कचनार, सरसों पहाड़ में भी खूब होते हैं पर यहाँ बसंत-उपमान बन कर लोकगीतों में इतराने के लिए वे सदैव तरसते रहते हैं. आखिर हो भी क्यों नहीं, फ्यूंली, बुरांस और साकिनी जैसे फूल जब अपने पूरे शबाब में जलवाअफ़रोज़ हों तो नज़र किसी और पर टिकेगी भी क्यूं कर. हमारे लोकसमाज ने कदाचित् इसीलिए एक पर्व ही फूलों के नाम किया है. चैत संक्रांति के दिन मनाये जाने वाले इस पर्व फुलदेई का आयोजन, व्यवस्थापन और प्रसादग्रहण का सर्वाधिकार लोक ने समझदारी से, फूल जैसे कोमल बच्चों को ही दे रखा है. सुबह-सवेरे देहलियों में ताज़े, सुगंधित खिले फूल चढ़ा कर बच्चे ये संदेश देते हैं कि फूलों(प्रकृति) का सम्मान और संरक्षण करेंगे तभी सम्पन्नता भी मिलेगी. सचेत भी करते हैं कि फूलों से सजी इन हरी-भरी पहाड़ियों को बचाना तुम बड़े-सयानों का दायित्व है.
जिनको भी बचपन में इस खूबसूरत पर्व फुलदेई का हिस्सा बनने का अवसर मिला होगा वो सब इन पंक्तियों का अर्थ बेहतर समझ सकते हैं पर जिनको नहीं भी मिला वे लोकगीत, लोकगाथाओं में इस प्रकृतिपूजन पर्व के संदेश और सौंदर्य को महसूस कर सकते हैं. और हां, अगर आज भी आपके घर आपकी देहली पर फूल चढ़ाने बच्चे आएं तो उनको सिर्फ बच्चे न समझें. वे संस्कृति के मासूम संवाहक हैं और पर्यावरण के मौन सचेतक.
पहली फुलदेई बच्चों के लिए प्रकृति का पहला साक्षात्कार भी होती है और पर्यावरण का पहला फील्डसर्वे भी. ये बच्चों की आँखों से दुनिया को समझने का पहला प्रयास भी होता है और प्रकृति का पहला सबक भी. इतने महत्व के लोकपर्व वाले समाज का हिस्सा होने पर हम सबको गर्व है.
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पैयां पाती फ्यूंल्या फूल फुलदेई बालगीतों के इस बोल का भी खास महत्व जरूर समझना चाहिए. पैयां देववृक्ष है और चैत में इस पर पुष्प नहीं खिलते इसीलिए इस देववृक्ष का प्रतिनिधित्व फुलदेई में पैयांपाती करती है. फ्यूंली के फूल के साथ फ्यूंली की लोककथा जुड़ी है. फ्यूंली प्रकति से प्रेम करने वाली एक सुंदर पर्वतपुत्री थी जिसका विवाह किसी सम्पन्न घर में किसी राजकुमार के साथ हुआ था. चैती गीत में कत्यूरी राजा धामदेव की बेटी बतायी जाती है, फ्यूंली. एक जागर में फूलदेवी को धामदेव की पत्नी अर्थात फ्यूंली की माँ भी बताया गया है. ससुराल में अन्न-धन, राजसी ठाठ सब कुछ था पर फ्यूंली को वो सब अच्छा नहीं लगता था. उसका मन हर वक्त हरी-भरी पहाड़ियों वाले रमणीक मायके जाने का करता था. निष्ठुर सास मायके नहीं भेजती है और एक झूटे आरोप में फ्यूंली को मरवा देती है. ऐसी मान्यता है कि वही पर्वतपुत्री फ्यूंली के फूल के रूप में फिर से जन्म लेती है, हर बसंत में. प्रत्येक वर्ष चैत माह में फुलदेई के अवसर पर कन्याएँ गाँव की सभी देहलियों पर फ्यूंली के फूल और पैयांपाती चढा कर फ्यूंली को मायके पहुँचने वाली पहली धियाण (ब्याही बेटी) का सांकेतिक मान प्रदान करती हैं. फ्यूंली को हमारे लोकसमाज ने एक पुष्प के रूप में जीवित रखा है और उसकी करुण कथा को बसंत के पुष्पोत्सव, फुलदेई के रूप में अमर.
बालपर्व फुलदेई, बचपन की सबसे मधुर यादों में एक है. उसी मधुर-स्मृति की डोर पर फूलों जैसे पहाड़ी बच्चों का फुलदेई का ये शुभाशीष –
डाळ्यूं मा जु बौड़िक लांद मौळ्यार
(Phool Dei Festival of Uttarakhand)
हरि-भरि राखी ये गौं कि सार
गात भी सुपिन्या भी सब्ुबका मौळ्ये दे
खैरी को ह्यूंद जीवन को खळ्ये दे
आस को त्योहार हम बसंत पुजारी.
फूल-बसंत ढोलण ऐग्या फुलारी…
–देवेश जोशी
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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