गों घर हो या पट्टी, अंग्रेज की शकल किसने देखी? पर पटवारी वो तो साक्षात् राजसेब हुआ.जरा उसकी आँख में बाल पड़ा कि पुरखों के सहेजे खेत पात कागजात खसरा खतौनी पर काली अमिट सियाही का दाग पड़ते देर नहीं. अब कहाँ पधान कहाँ सयाना. अंग्रेज बहादुर ने गुलाम भारत के पहाड़ में अपना सबसे ताकतवर गण इसी पटवारी को बनाया. और वो भी सिरफ यूनाइटेड प्रोविन्स के कुमाऊँ गढ़वाल के गांवों में. कमोबेश इसी की छाया में सत्ता के सारे कारबार चलते.
(Patwari in Uttarakhand)
पटवारी के ठाठ-बाट और गाँव वालों पर उसका रौब. जंगल में जैसे आदमखोर वैसे गाँव घर की हर खबर का जानकार पटवारी. कब किस तरफ से पकड़ कर गचका ले. इससे डरे रहना और इसकी मान लेना ही आने वाली दुर्गत से बचे रहना है. बचाये रखनी है अपनी जमीन इसी पटवारी और उसकी हेराफेरी से. इसने अगर कुछ भी कतर ब्योंत कर दी तो फिर देबता की आगे लगी धाल ही बची. इसकी सेवा तो बिलकुल वैसे ही जैसे देबता के गणों की हो. सवारी आए जब तो सबके सर झुके. पधान मालगुजार हर घर खोले से राशन रसद दूध दन्याली घी शहद मुर्गा बकरी इंतज़ामात के लिए बटोरें. जिस किसी से अदावत हो उसे और ज्यादा चूसें.निचोड़ ही डाले जौंक सा, खून चूसने में माहिर,जब तक पूरा न भरे तब तक चिपटे.साथ ही मारे बिच्छू सा दंश, बड़ी दाह पड़े.
पटवारी की सबसे बड़ी खासियत ये कि वो अपनी कलम और भारी बस्ते के साथ ब्रिटिश हुकूमत की कठपुतली बन हाथ में डंडा पकड़ नाचता. हुनर यह कि जमीन से निचोड़ निचोड़ कर पूरा रस इस तरकीब से निकालता कि सरकार बहादुर की धन दौलत में इजाफा होते रहे. अपने ठुल सैबों की जी हजूरी में अव्वल आता रहे उनकी सारी कमजोरियों की नब्ज़ पकड़ने में चतुर वैद जैसा सयाना बने. साथ ही नजर से तेज ऐसा कुशल माली कि कहीं भी किसी कोने से गोरी चमड़ी की खिलाफत की कंटीली पौंध की मजाल कि वो उग सके. इतनी सारी लायकियत और हुनर का बस्ता ढोता पटवारी गाँव के राजकाज के लिए सृजित किया गया बिलकुल नया पद था. और इसके लिए उसे मिलता भी खूब ज्यादा था. गुरू घंटाल योग. कहाँ नीति कहाँ माणा, पटवारी ने हर ठौर जाणा. तभी कुंडली में ऐसा बृहस्पत राहु के साथ कि जो ऊपर से जितना दबे,नीचे कई गुना ज्यादा माल दाब दे. इसके हाथ का डंडा केतु सा बेरहम, जिसे जहां चाहे घुसेड़ देने की उसे पूरी छूट मिली थी.
होल्डर वाली कलम और काली सियाही के आँखर जो उजाड़ की सारी वर्णमाला लिखने में कभी चूक ना करें. इसी के हाथ में हैं खसरा, खतौनी और इंतेखाब जैसे कागजात. इसके ऊपर है कानूनगो, उससे ऊपर तहसीलदार साब. शहर में बैठा पूरा सरकारी अमला. इनाम इकराम जर जमीन की इफरात में कोई कमी नहीं इस सर्किल में.कितना भी सफ़ेद स्याह करने की आजादी. बस देश की आजादी की बात ही इसके लिए नापाक थी.गुनाहे बेलज़्ज़त.ब्रह्म हत्या.
कुमाऊं गढ़वाल के पहाड़ों में अमन चैन की अलमाबदारी यानी कानून और व्यवस्था का पूरा जिम्मा 1837 में कमिश्नर जी. डब्लू ट्रेल ने पटवारी को सौंप दिया था. अब वह पटवारी सर्किल का हाकिम हो गया.
मलिका के राज में यूनाइटेड प्रोविन्स के पहाड़ ब्रिटिश कुमाऊं और गढ़वाल और टिहरी रियासत जैसे अलग-थलग राजनीतिक और प्रशासनिक भागों में विभक्त था. राज काज को चलाने और गाँव में राजस्व लगान की वसूली के लिए पधान था. इससे पहले सामंती शासन में कमीण, सयाना और थोकदार के साथ पधान पर ही गाँव के राज काज का दारोमदार था. अंग्रेजों ने भूमि से राजस्व के दोहन के लिए पटवारी नियुक्त किए. इनकी जिम्मेदारी बहुत अधिक और व्यापक तय की गई. ना केवल जमीन के मामले और गाँव का प्रशासन उसे यानी पटवारी को न्याय-व्यवस्था, अमन- चैन बनाये रखने दायित्व भी सौंपा गया बल्कि उसके पास पुलीसिया अधिकार भी थे.
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वहीं टिहरी रियासत को अंग्रेजों ने कई शर्तों और अपने फायदे के लिए राजा सुदर्शन शाह के हवाले कर दिया था. जमीन पर राजा का अधिकार था और लगान चुकता कर खेती करने वाले खेतिहर खैकर कहलाते थे. लगान की वसूली बेरोकटोक होती रहे इसके लिए राजा अपने कारिंदे अधिकारी नियुक्त करता था इनको थातवान कहा जाता था. मनमाने ढंग से लगान वसूला जाता था.लगान लेने के तौर तरीके राज सत्ता की निरंकुश शैली में किसानों के लिए सबसे बड़ी आपदा बन उभरते. जब तक भू राजस्व मिलता रहे हल बैल चलें, अन्न कटे, भकार भरें, पेट भरें.
इससे पहले सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी में कत्यूरियों के शासन में राजा और गाँव के बीच विराजता था पहरी. मतलब यह कि राज्य दरबार में पहरी गाँव की आवाज बनता था तो गाँव में वह होता था राजा के आदेशों का खेवन हार. हर गाँव का अपना पहरी अमूमन उसी गाँव का बासिंदा होता. पुलिस की भूमिका निभाता.छोटे मोटे अपराधों पर नियंत्रण रखता.तब के परंपरागत समाज की यह खासियत रही कि आतंरिक सुरक्षा को प्रचलित रीति रिवाजों और सामाजिक बंधनों ने बनाये बचाये रखा था राज्य की इसमें सीमित भूमिका ही बनी रही थी.कारण साफ था कि तब अपराध अपेक्षाकृत बहुत कम थे.
चंद राजाओं की कर नीति बहुत स्पष्ट थी.उनके समय में छत्तीस प्रकार के कर लगते थे. खेतिहर थे, जो जमीन से कमाते थे. जमीन थात हुई तो जमीन का मालिक थातवान कहलाता था.करों को थातवान के द्वारा राज्य कोष में जमा करवाया जाता था.जमीन की पैदावार से कमा कर खाने वाला और मालगुजारी देने वाला खायकर कहलाता था.अनाज और नकदी दोनों रूपों में खायकर दिया जाता था. नकद कर देने वाले को सिरतान कहते थे.
अन्न उगाने या कमाने वाले खायकर और राजा के बीच की श्रृंखला में कई और कर्मचारी भी होते थे. इन्हें कुछ इलाकों में इन्हें सयाने और कहीं बूढ़े कहा गया. जैसे पाली इलाके में ये सयाने कहे गए तो जोहार दारमा और काली कुमाऊं में बूढ़े. अन्य स्थानों में ऐसी पदवी वालों को थोकदार का नाम दिया गया. थोकदार के नीचे हर गाँव में एक पधान होता था.वह गाँव से मालगुजारी वसूल करता और तमाम न्याय -व्यवस्था, अमन चैन के निर्धारित काम करवाता. एटकिंसन ने पहाड़ी राज्य की इस समय की व्यवस्था को प्रबंधन की दृष्टि से नागरिक प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण बताया.
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राजा रूद्र चंद के दो पुत्रों में बड़े कुंवर शक्ति सिंह जन्माँध थे. कहा जाता है कि उन्होंने जमीन की नाप का दफ्तर बनाया, जमीन की नाप करवाई और जमीन पर रकम या कर लेना आरम्भ किया. इसी काल में मालगुजारी लगायी गई. सोम चंद के शासन काल में पंचायती राज की व्यवस्था आरम्भ हुई. पांच दलों या थोकों के सलाह मशवरे से राज्य का प्रबंध किया जाता था. यह कुमाऊं का स्वयं स्फूर्ति काल था. कर और प्रशुल्क की बेहतर व्यवस्था बनी.
1790 पर अल्मोड़ा में गोरखों ने कब्ज़ा कर लिया और अगले पचीस साल कुमाऊं की धरती उनके अत्याचार से भयाक्रांत और पीड़ित रही. इसे गोरख्याणी के नाम से जाना जाता है. सन 1791-92 में कुमाऊं पर शासन अधिकार सूबा जोगामल ने पाया और मालगुजारी के लिए पहला बंदोबस्त किया. गोरखों के कठोर और क्रूर शासन में न केवल नाना प्रकार के कर लगाए गये बल्कि उन्हें वसूलने के लिए उन्होंने खुले आम अत्याचार भी किए. प्रत्येक आबाद बीस नाली जमीन पर एक रुपया कर लगा. एक रुपया हर आदमी राजकर तो दो रूपये प्रति परिवार सालाना ‘घुरही पिछही ‘नाम का कर पड़ा. साथ ही हर गाँव से एक रुपया सुवांगी दस्तूर और मेजबानी दो आना छः पैसा दफ्तर के खर्च की दस्तूरी लगायी गई.
27 अप्रैल 1815 को अंग्रेजों के साथ गोरखों की सन्धि हुई. अंग्रेजों की ओर से ई गार्डनर ने ऐलान किया कि तीन मई 1815 को कुमाऊं राज्य ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया है. कमिश्नर बने ट्रेल जिनका 1823 का बंदोबस्त अस्सी साल का बंदोबस्त कहलाता है. गाँव की सीमाएं तय की गईं. 1855में मालगुज़ारी के नियम बने.1856 में हेनेरी रामजे कुमाऊं के शासक बनाये गये जो विभिन्न पदों पर चव्वालीस वर्ष तक कुमाऊं में बने रहे.कुमाऊं में राजस्व पुलिस के वह प्रबल समर्थक रहे. बाद में बदलती परिस्थितियों में कमिश्नर गार्डनर की संस्तुति व गवर्नर जनरल के अनुमोदन से अस्थाई रूप से पुलिस व्यवस्था को लागू किया गया. जब जी. डब्लू. ट्रेल कमिश्नर बने तो उन्होंने गढ़वाल के पुलिस थाने बंद कर पुलिस के दायित्व तहसीलदारों को सौंप दिए. गोवन और बैटन ने पुलिस और राजस्व की जिम्मेदारी का निर्वाह करने में पटवारी की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया.
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दीवानी और फौजदारी प्रशासन हेतु पहली जनवरी 1922 से कुमाऊं रूल्स,1922 बनाये गये जो पहली अप्रैल से लागू हुए. इसके पांचवे चैप्टर की धारा पचीस से सत्ताइस में पटवारी, पेशकार, थोकदार,पधान के काम और इनकी जिम्मेदारी की अधिसूचना थी. इसमें विक्टोरिया के राज की बुनियाद को मजबूत बनाने के सारे जतन मौजूद थे. पधान और थोकदार गाँव की उस हर खबर का भेद अपने आला अधिकारियों तक पहुँचाते जो प्रशासन के लिए जरुरी होती. सरकार के हित में आड़े आने वाले किसी भी खतरे की जानकारी जुटाना और उसे ऊपर तक पहुंचा देना पहला काम होता. जाहिर है ऐसे लोग और उनके समूह जो राज की खिलाफत करते हों की पहचान करना और उनकी गिरफ़्तारी मुकम्मल करना बुनियादी कर्तव्य था.आजादी के आंदोलन की ख़बरें और इनमें शामिल लोगों की हर हरकत की जानकारी ब्रिटिश हुकूमत के आला अफसरों को पहुँचाने की पूरी जिम्मेदारी इसी अमले ने निबाही.
फिर पहली मई 1919 को पटवारियों के हित का वह शासनादेश हुकूमत की ओर से जारी हुआ जिसमें जमीन से सम्बंधित काम, जमीन से सम्बंधित कागजात का रखरखाव, जमीन से मिलने वाले राजस्व और बाकी देयों की वसूली, जंगलों से जुड़े काम के साथ पुलिस द्वारा किए काम मुख्य थे. तब के कमिश्नर पी विन्दहम ने पटवारियों के लिए यह खास फरमान भी जारी किया कि जिन पहाड़ी जिलों में रेगुलर पुलिस तैनात नहीं है वहां पटवारी इस जिम्मेदारी को निभाएंगे. इससे पहले ही 1831 से ही तहसीलदारों को पुलिस से अधिकार दे दिए गये थे.1887 तक पटवारियों के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था न थी और न ही उनको रखे जाने सम्बन्धी कोई मानक तय किए गये थे.राजकाज की सबसे बुनियादी जमीन पर काम कर राजसत्ता की मुश्किलें हर लेने वाले संकटमोचक यही पटवारी थे.
ब्रिटिश राज में नये नये फरमान जारी होते और पटवारी उन जिम्मेदारियों को पूरा करने में जी जान से जुट जाते. ऐसा ही एक फरमान यह था कि जब भी कभी अंग्रेज अफसर पहाड़ के दौरे करें तो उनके सामान को ढोने और चलत फिरत की सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए कुली मौजूद रहें. इसे कुली बेगार कहा गया. लम्बे समय तक जीवन निर्वाह खेती से गुजारा करते मौसमी गरीबी और बेकारी के कुचक्र में फंसे आम लोगों ने कुली बेगार की इस प्रथा को झेला. आजादी के आंदोलन में कुमाऊं के मतवालों ने इस प्रथा का पुरजोर विरोध किया. कुली बेगार के खिलाफ जबरदस्त जन आंदोलन हुआ.1921 में मकर संक्रांति के अवसर पर बागेश्वर में कुली बेगार की चरम परिणति यह हुई कि विशाल उमड़ी भीड़ के बीच कुली बेगार के अनगिनत रजिस्टर और कागजात मालगुजारों पधानों ने सरयू नदी में प्रवाहित कर दिए. अंग्रेज अफसर आला अधिकारी हैरत में पड़ गये. ब्रिटिश सरकार के आदेशों की इस खुली खिलाफत की घटना को महात्मा गाँधी ने अपने पत्र यंग इंडिया में रक्त हीन क्रांति का ज्वलंत उदाहरण बताया. बागेश्वर में सरयू के तट पर गुलामी और बेगारी की खिलाफत कर रही जनचेतना पंडित बद्री दत्त पांडे के उदघोष और वचन की समय साक्ष्य बन गई. मेले में डी. एम ने उत्तरायणी मेले में आए कुमाऊं के प्रबुद्ध जनों पंडित हरगोविंद पंत, लाला चिरंजी लाल और कूर्मांचल केसरी पंडित बद्री दत्त पांडे को हुक्म दिया कि वो तुरंत बागेश्वर छोड़ चले जाएं. तब मेले में हजारों की उमड़ी भीड़ को बद्री दत्त पांडे की गरजती आवाज सुनाई दी, “तुम सब मेर दगड़ छा त मैं याँ बटी कैं नि जूंल. नंतर मेरि लाश जाली”. भीड़ में चेतना जागी उसने साथ देने की सौं खायी. स्वर दिया हम तुम्हारे साथ हैं. “सब तुम्हार दगड़ रूँल”. तब पंडित बद्री दत्त पांडे ने प्रतिज्ञा ले कुछ कर गुजरने की बात कही. “उ छ बागनाथक धाम और याँ पवित्र सरजू नदीक पाणी. ये कें हाथ में ले बेर संकल्प करो कि आज बटी कुली उतार, कुली बरदायस, कुली बेकार बंद.”
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बंद, बंद, बंद.नहीं देंगे कुली बेगार, नहीं होगा कुली उतार, नहीं चलेगा कुली बरदायस. और इस वचन इस प्रतिज्ञा के साथ सभी पधानों ने सरयू नदी की पवित्र वेगवती धारा में कुली बेगार के रजिस्टर बहा डाले.
यह घटना एक ऐसा सम विच्छेद बिंदु बन गई जब ब्रिटिश हुकूमत का राजस्व पुलिस प्रणाली से विश्वास डगमगा गया. वो पधान माल गुजार जो अपने हाकिमों के इशारे पे कठपुतली से नाचते थे. हर सियाह को सुफेद करने के दाव पेंच जानते थे. सत्ता जिन्हें अपना आँख कान समझती थी. जो शासन की सबसे छोटी और उतनी ही महत्वपूर्ण इकाई गाँव की हर समस्या का फौरी हल निकलने में माहिर थी, वही पधान मालगुजार पटवारी सत्ता की खिलाफत कर गये. कुली बेगार के जन आंदोलन में कूद पड़े.
कुली बेगार आंदोलन की सफल परिणति से पटवारी व्यवस्था को गहरा धक्का लगा. यह मामूली से खर्चे पर सबसे ज्यादा फायदा देने वाली व्यवस्था थी. गाँव का ही आदमी गाँव की हर बात जान लेता है. किसी भी गड़बड़ी को सूंघ लेता है. और फिर उसे मामूली सी तन्खा दे खुश किया जा सकता है जो पहले पहल पांच रुपे माहवार ही तो थी. उसे एक बेहतर नाम और ओहदा दे दिया जाय. हुकूमत का साथ देने वाले हर काम में उसे इनाम -इकराम दे सम्मानित होने के काबिल बनाया जाय. राज काज भी चलेगा और मुखबिरी भी होगी. पर एकबारगी ही यह सारा रिवाज ये सिलसिला बिखर गया. जनआंदोलन की प्रतिक्रिया इतनी प्रभावी थी कि 1921 में ब्रितानी हुकूमत को मजबूर होना पड़ा कि वह कुली बेगार प्रथा को खतम कर दे.
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आखिरकार सरकार ने यह माना कि आजादी के आंदोलन के गहरे असर पहाड़ में पसर गये हैं. अब अफसरों के हुक्म की तामील पहले की तरह तुरत -फुरत नहीं होती. नियम कानूनों को मानने में भी हिचक होती है. 1925 के गज़ेटियर में ऐसे संकेत साफ थे कि पटवारियों का रौब दबदबा अब सिमटने लगा है. पटवारी जो वसूली की रकम उगा रहे थे वह भी कम हो गई है. सबसे बड़ा खतरा तो यह उभर गया कि आजादी की लहर का असर अँग्रेजी राज की रीढ़ बने राजस्व विभाग पर पड़ने लगा.
इसके बावजूद राजस्व पुलिस व्यवस्था बनी रही.1937 में कांग्रेस की लोकप्रिय सरकार द्वारा न्याय मंत्री की अध्यक्षता में जिन ग्यारह सदस्यों की कमिटी बनाई गई उसने पहाड़ में नागरिक पुलिस व्यवस्था को राजस्व पुलिस के मुकाबले कमतर पाया. ये “कुमाऊं लॉ कमेटी” के नाम से जानी गई. यह देखा गया कि पटवारियों के अधीन जो इलाके हैं वहां संगीन अपराधों की संख्या बहुत कम है. इन सब हालातों पर गौर कर यह जरुरी समझा गया कि उनके काम काज के तरीके को सुधारा जाये. बेहतर ट्रेनिंग दी जाये. उनके वेतन में बढ़ोत्तरी की जाय. इनके बदले अगर गांवों में नियमित पुलिस की व्यवस्था लागू हो तो एक तो उस पर खर्च अधिक आएगा और दूसरा पटवारी स्थानीय होने के नाते किसी भी विवाद मारपीट या किसी संगीन वारदात के हर पहलू को आसानी से जान लेते हैं रेगुलर पुलिस के लिए यह इतना आसान न होगा.
1938 में इन पहलुओं पर गौर करने के बाद राजस्व पुलिस बिल का मसविदा तैयार किया गया पर वह लागू नहीं हो पाया. कुमाऊं लॉ कमेटी ने पहाड़ में राजस्व पुलिस, कानूनगो और पटवारी की नियुक्ति चले आ रहे तरीके से ही करने पर जोर देते हुए दस सिफारिशें दीं पर 1947 तक इनमें कोई अमल नहीं हुआ.
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आजादी के बाद भी पहाड़ की राजस्व पुलिस व्यवस्था बदस्तूर चलती रही. उत्तरप्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम 1966 में लागू हुआ तो थोकदार, पधान और मालगुज़ारों के पद खतम कर दिए गये. इससे पहले पहाड़ में पटवारियों की संख्या 259 थी जो बढ़ा कर 1220 की गई. पर पटवारी इलाके छोटे कर दिए गये.काम बदस्तूर वही कि खसरा, खतौनी और इंतखाब से कागजात मुकम्मिल रखना. पुलिस के सारे काम, समन -वारंट की तामील, जाँच तलाशी गिरफ़्तारी, पंचायतनामा के साथ विवेचना. इन सब की पत्रावली तैयार रखना और उनका रखरखाव. गंभीर मामलों में रेगुलर पुलिस की मदद लेना. इन सबके साथ ही गाँव में कानून व्यवस्था बनाये रखना, विविध कार्यक्रमों और मेले उत्सव की ड्यूटी. वी आई पी ड्यूटी आदि आदि.
अंग्रेजों के जमाने से गाँव के बेताज बादशाह की हैसियत रखने वाला पटवारी आज के नये जमाने में अपनी पुरानी हैसियत को बनाये रखने में कमजोर पड़ गया. अब लोग बाग भी कोई समस्या होने पर सीधे डी. एम, एस पी, विधायक की ठौर पकड़ते हैं. सूचना क्रांति ने हर एक को हर जगह की बारीकी बता दी है. अब पटवारी की परेशानी यह कि उसकी तनखा बहुत कम है. गाँव में लोग बाग पहले जैसे नहीं इधर उधर बाहर जा पढ़ लिख देश मैदान में कमा खाने का हुनर उनमें आ गया. उन्हें झांसा देना अब आसान नहीं. फिर पटवारी के सामने संचार साधनों की कमी है, पुलिस की तरह जीप वाहन वर्दी नहीं और तो और लम्बे समय तक पटवारी चौकी भी नहीं.अब जा कर पटवारी चौकी बनी हैं. उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था हुई है हालांकि पटवारी ट्रेनिंग स्कूल में प्रशिक्षकों की कमी बनी रहती है. ऐसे स्कूलों में नियुक्ति को कम तर दर्जा दिए जाने की सोच है इस कारण यहाँ जो अधिकारी नियुक्ति पाते हैं वह आने के दिन से ही ट्रांसफर का जुगाड़ भिड़ाने में लगे पाए जाते हैं. पटवारियों ने यह भी चाहा कि उन्हें पुलिस की तरह हथियार दिए जाएं, जीप मिले, संचार के आधुनिक साधन मिलें और स्नातक योग्यता वाले मानक हों.
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राजस्व विभाग का विस्तृत लेखा जोखा तत्कालीन प्रमुख सचिव राजस्व श्री नृप सिंह नपच्याल ने महत्वपूर्ण सन्दर्भ, “सतप्रयास, संघर्ष,सफलता :अग्रणी उत्तराँचल ‘ में वर्णित किया है. जिनसे जाहिर होता है की पदों की कमी से तहसील के कामकाज बुरी तरह प्रभावित होते हैं. पटवारियों को जहां अपने राजस्व पुलिस के कामों के लिए पुलिस थानाध्यक्ष की शक्तियां तो मिली हैं पर उनकी तुलना में साधन नहीं, वेतन भत्ते नहीं.
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2011 के शासनादेश से राजस्व पुलिस संवर्ग के पुनर्गठन और वेतनमान सन्दर्भ में पहाड़ के पटवारियों की मांगे मानी गईं. अब इन्हें राजस्व उपनिरीक्षक के नाम से जाना जाएगा. न्यूनतम शैक्षिक योग्यता स्नातक रहेगी. पटवारी के अनुसेवक राजस्व सेवक कहलाये जायेंगे. वहीं कानूनगो राजस्व निरीक्षक. इनका वेतन मान भी बढ़ा. प्रशिक्षण का नया पाठ्यक्रम और नौ महिने की ट्रेनिंग नियत की गई.
दुर्गम और सुदूर के गांवों में राजस्व पुलिस वाली तहसील पर वायरलेस सेट के भी इंतज़ामात रहेंगे.पहले हर गाँव की छोटी बड़ी खबर पटवारी को पधान से मिल जाती थी पर मालगुज़ारी खतम होने से ये सूचना संवाद बिखर गया. इस अंतराल को पाटने के लिए राज्य सरकार ने हर गाँव में एक ग्राम प्रहरी की नियुक्ति की जिसे मानदेय और वर्दी भी मिलती. काम यह की गाँव में हो रही हर गतिविधि और घटना की खबर पटवारी को दे. हाल ही में काफी बड़ी तादाद में ग्राम प्रहरियों की नियुक्ति के फरमान हुए हैं. इससे पटवारियों को गाँव की हर जानकारी जुटाने में मदद मिलेगी. गाँव के साथ पटवारी का रिश्ता बड़ा पुराना परंपरागत चाहे जैसा खट्टा मीठा रहा हो यह तो देखा ही गया कि जहां कहीं इनके बदले रेगुलर पुलिस चौकी आई वहां अपराधों का ग्राफ भी बढ़ा. बहुत उदाहरण और घटनाएं हैं जहां पटवारियों ने तमाम साधन हीनता के बावजूद ऐसे केस सुलझा दिए कि उनके रसूख उनके रौब के दीदार आज भी गाँव गाँव दिखाई देते हैं. रोचक रोमांच भरी पटकथा से भरीं हैं पहाड़ और पटवारी के रिश्ते की तमाम कहानियाँ.
पहाड़ में राजस्व व भू प्रबंध की व्याख्या पत्रकार देवेंद्र उपाध्याय की पुस्तक,”उत्तराखंड में राजस्व पुलिस व्यवस्था” में विस्तार से की गई है. साथ ही प्रफुल्ल चंद्र पंत की उत्तराखंड का फौजदारी प्रबंध, डॉ आर एस टोलिया की “पटवारी,घराट एंड चाई”, चमनलाल प्रद्योत की उत्तराँचल विकास एवं उपयुक्त पुलिस व्यवस्था व सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, नैनीताल की अंतरविद्या परियोजना के खंड तीन व चार के प्रकाशन उल्लेखनीय हैं.बी डी पांडे की कुमाऊं का इतिहास और कई अंग्रेज हाकिमों के रोजनामचे तो हैं ही.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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Bhai sahab , ki yug mein ji rahe ho.
Angrej chale gaye, raajshaahi khatm hui.
Ab to loktantra hai, jis patwaari ki aap baat kar rahe hain, wo to aaj anta departments ki tarah ek sarkaari mulaajim hai,
Jaise rules and regulations anya logon ke oiye gain, vaise hi patwaari ke liye bhi hain.
Aap kahan khedit hai, vahan jaakar apni samasya ja samaadhaan karvaayein.
Aisa post likhkar, kahin aap imaandaar logon ja manobal to nahi gira rahe?
Please think about it.
उत्तराखंड में पटवारी राजस्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा, पहले किसी इलाके को जान लें तब कमेंट करें। यह लेख ही पढ़ लेते।