हेम पंत
हेम पंत मूलतः पिथौरागढ़ के रहने वाले हैं. वर्तमान में रुद्रपुर में कार्यरत हैं. हेम पंत उत्तराखंड में सांस्कृतिक चेतना फैलाने का कार्य कर रहे ‘क्रियेटिव उत्तराखंड’ के एक सक्रिय सदस्य हैं .
बात सन् 1993-94 की है, हम लोग नवीं में पढ़ते थे. पिथौरागढ़ में हमारे स्कूल की तरफ से पहली बार पैराग्लाइडिंग का प्रशिक्षण शुरू हुआ. रंगीन छतरियों की उड़ने की कोशिश को नजदीक से देखने की चाहत में हम बहुत बार स्कूल से भागकर उस पहाड़ पर चढ़ जाते थे जहाँ पैराग्लाइडिंग चल रही होती थी. उस समय उड़ान भरने की तो हमारी उम्र थी नहीं लेकिन ये तो ठान ही लिया था कि किसी दिन अपने गांव-शहर का बर्ड आई व्यू जरूर देखना है.
लगभग उसी दौरान पिथौरागढ़ में हवाई पट्टी का उदघाटन हुआ तो शहर के लोगों के सपनों को पंख लग गए. ऐसा कहा जाने लगा कि अब जल्द ही पिथौरागढ़ विश्वभर के पर्यटन मानचित्र पर छा जाएगा. ऐसा हो भी सकता था क्योंकि यहां के अनछुए पर्यटक स्थलों में विश्वभर के पर्यटकों को आकर्षित करने की पूरी सम्भावनाएं छुपी हुई हैं. लेकिन अफ़सोस की बात है कि एअरपोर्ट की कहानी आज 23 साल बाद भी घोंघे की रफ्तार से आगे बढ़ रही है.
ख़ैर वापस पैराग्लाइडिंग पर लौटते हैं. पहले पढ़ाई और बाद में नौकरी की उलझनों में फंसकर बहुत लम्बा समय निकल गया. पिथौरागढ़ में पैराग्लाइडिंग करने की इच्छा मन में बनी रही पर संयोग बन नहीं पा रहा था. इस बार की छुट्टियों में शंकर सिंह जी के मार्गनिर्देशन में पिथौरागढ़ के आसमान में पैराग्लाइडिंग करने का मौका मिला तो इस अनुभव की अमिट यादें दिल के कोने में दर्ज हो गई.
मौसम साफ़ था, हल्की धूप थी और बादल बिल्कुल भी नहीं थे. हवा की तीव्रता थोड़ा कम थी. कुल मिलाकर पैराग्लाइडिंग के लिए ठीक-ठाक मौसम था. मुझे मनोज ओली जी के साथ टेंडम फ्लाइट में उड़ना था और हमारा साथ देने के लिए शंकर दा ने ‘सोलो फ्लाइट’ की. एअरपोर्ट के ठीक ऊपर समुद्रतल से लगभग 1900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कनारी-पाभैं की चोटी पर पहुँचकर एक अलग ही अनुभूति हुई. यहां से पिथौरागढ़ की सोरघाटी का पूरा नजारा एक ही नजर में दिख जाता है. इतनी ऊँची जगह से मैंने भी पहली बार अपने शहर को देखा था. अब इससे भी ऊपर उड़ने को मैं उत्साहित था. देश, राज्य और पिथौरागढ़ जिले में साहसिक खेलों को आगे बढ़ाने वाले दो महत्वपूर्ण लोग आज मेरे साथ थे. मैं, शंकर दा और मनोज जी से बातचीत करते हुए उनके अनुभवों से बहुत कुछ सीखता-समझता जा रहा था. दोनों पैराग्लाइडर बैग से निकल चुके थे और हम लोग कैमरा और बांकी उपकरणों के साथ पूरी तरह से तैयार हो गए. हवा की अनुकूल दिशा के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा. मनोज ओली जी के निर्देश मिलते ही ढलान की तरफ लगभग 10 कदम की दौड़ लगाने पर ग्लाइडर हवा में उठ गया. अपने रोमांच को नियंत्रित करने में मुझे 5-7 सेंकड लगे और उसके बाद मैं अपने सपने को पूरा होते देखने का आनन्द उठाने लगा.
वाह! अदभुद अनुभव. हमारे बाएँ हाथ की तरफ नेपाल के पहाड़, सलेटी का मैदान और वड्डा कस्बा था. सामने मेरे गाँव का ऊपरी कोना, कामाक्ष्या मन्दिर और सेंट्रल स्कूल. दाएं हाथ की तरफ हवाईपट्टी, पिथौरागढ़ का मुख्य शहर और पैरों के नीचे कनारी-पाभैं, नैनी-सैनी गाँव थे. ऊपर से दिखने वाली जानी पहचानी पहाड़ों की चोटियां, गहरी खाइयां, जंगल, खेल के मैदान, नदियां इन सबसे मेरा बचपन से ही भावनात्मक जुड़ाव रहा है. मैं सोचने लगा हमारे आसपास उड़ रहे चील उड़ते हुए कितना सुंदर नजारा देखते हैं.
लगभग 10 मिनट हवा में रहने के बाद बहुत ही सुरक्षित लैंडिंग हुई. इस यादगार हवाई यात्रा के बाद जब हम हवाईपट्टी के पास बने हुए अपने लैंडिंग पॉइंट पर उतरे तो मेरे दिल में सन्तुष्टि का भाव था. थोड़ी देर बाद शंकर दा का पैराग्लाइडर भी नीचे उतरा.
शंकर सिंह जी और एडवोकेट मनोज ओली जी से हुई लम्बी बातचीत और इस पैराग्लाइडिंग अनुभव के बाद मैंने महसूस किया कि उत्तराखंड राज्य में (खासकर पिथौरागढ़ जिले में) रॉक क्लाइम्बिंग, फिशिंग, हाईकिंग, माउंटेनियरिंग, माउंटेन बाइकिंग, वाटर स्पोर्ट्स जैसे साहसिक खेलों को बढ़ावा दिया जाए तो हम स्विट्ज़रलैंड को भी पीछे छोड़ सकते हैं. हमारे पास कमी है तो सिर्फ सुगम आवागमन सुविधाओं की और ठोस सरकारी नीतियों की.
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