फूलन और मनोहरश्याम की जुबान के बगैर कोई लेखक बन ही कैसे सकता है जैसे पराई धरती पर पौधा नहीं रोपा जा सकता, इसी तरह परायी भाषा से रचना का पौधा नहीं जमाया जा सकता. आजादी के बाद हिंदी में आंचलिक कथाओं का दौर चला था, मगर वो तो अंकुरित नहीं हो पाया. आंचलिक... Read more
वीरेन्द्र डंगवाल : कविता और जीवन में सार्थक भरभण्ड -नवीन जोशी गरुड़ बटी छुटि मोटरा, रुकि मोटरा कोशिअघिला सीटा चान-चकोरा, पछिला सीटा जोशि हमारी गाड़ी कोसी पहुंची ही थी कि मेरे मुंह से बचपन में बहुश्रुत ‘चांचरी’ के ये बोल अपने-आप ही निकल पड़े थे- गरुड़ से... Read more
पिछले दिनों हमने विनोद कापड़ी के विषय में लिखा था. 2016 के अंत में हल्द्वानी फिल्म फेस्टिवल के दौरान विनोद कापड़ी की फिल्म ‘मिस. टनकपुर हाजिर हो ‘और ‘कांट टेक दिस शिट एनीमोर’ दिखायी गयी थी. इस फिल्म के प्रदर्शन दौरान सुचित्रा... Read more
अल्मोड़ा से बम्बई चले डेढ़ यार – दूसरी क़िस्त पिछली क़िस्त में उत्तराखंड से हिंदी साहित्य में कूद पड़े हमारे किस्सागो-पुरखों का जिक्र हुआ ही था कि चारों ओर से शिकायती आवाजें उठने लगी … मालूम नहीं, इसके पीछे क्या कारण हैं? यह हमारा अज्ञान भी हो सकता... Read more
अल्मोड़ा से बम्बई चले डेढ़ यार – पहली क़िस्त पहले अल्मोड़ा से अपनी मीट की दुकान से भागकर मुंबई पहुंचे आधे यार रमेश मटियानी उर्फ़ शैलेश का किस्सा. आधा यार इसलिए कि सोलह साल की उम्र में भावुकता में ‘कालिदास बनने का’ सपना संजोए, चाचा के घर से एक हड़पी घी चुरा... Read more