कोरोना महामारी के इस दौर में सैकड़ों ज्वलंत मुद्दों के बीच एक महत्वपूर्ण मुद्दा शिक्षा की बदलती पद्धति को लेकर भी सामने आया है. पिछले दो महीनों से ऑनलाइन पढ़ाई के साथ-साथ ऑनलाइन वेबीनार की बाढ़ सी आ गई है. क्या ऑनलाइन पढ़ाई किसी क्लास रूम का विकल्प हो सकती है? यह मुद्दा हर स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी के लिए विचारणीय हो गया है. अलबत्ता सारे संस्थान अपने-अपने स्तर पर ऑनलाइन शिक्षा के क्रियान्वयन में जुटे हुए हैं लेकिन क्या यह प्रयास सफल हो पा रहा है? इस पर अभी भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा हुआ है. ऑनलाइन क्लास की गुणवत्ता के साथ ही महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या इन कक्षाओं तक सारे छात्रों की पहुँच है? तो सिरे से जवाब मिलता है नहीं.
(Online Classes In Uttarakhand Colleges)
स्कूल के भी जिन बच्चों तक ऑनलाइन क्लास की पहुँच है उनके माता-पिता इस बात से ज्यादा परेशान रहने लगे हैं कि बच्चा हर समय सिर्फ मोबाइल में ही लगा रहता है. अभी तक जिस मोबाइल से बच्चों को दूर रखने की सलाह दी जाती थी अब उसी मोबाइल के माध्यम से बच्चों को पढ़ाने का दबाव माता-पिता पर डाला जाने लगा है जो एक अजीब विडंबना है. दूसरी तरफ जिन बच्चों के पास स्मार्ट फोन या लैपटॉप नहीं है उनके लिए पढ़ाई लगभग शून्य सी हो गई है. क्लास में जिस तरह से अध्यापक की हर बच्चे पर नजर रहती थी वह ऑनलाइन माध्यम में संभव ही नहीं है. इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान उन गरीब परिवार के बच्चों को उठाना पड़ रहा है जिनके पास न तो स्मार्ट फोन है और ना ही इस माध्यम की बहुत ज्यादा जानकारी.
यूनिवर्सिटी लेवल की बात करें तो समस्याएँ और विकराल हैं खासकर की उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में जहॉं दोनों प्रमुख राज्य व केन्द्रीय विश्वविद्यालय पहाड़ों में स्थित हैं. दिल्ली से देश के समस्त विश्वविद्यालयों के लिए शिक्षा मंत्रालय या यूजीसी का एक ऑर्डर निकाल देना बहुत आसान बात है लेकिन धरातल पर वह ऑर्डर काम कर पाएगा या नहीं यह बात गंभीर रूप से विचारणीय है. हर राज्य की भौगोलिक परिस्थिति विपरीत है. इस बात को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिये जाने की आवश्यकता है जिस पर विश्वविद्यालय शायद मंथन तो कर रहे हैं लेकिन किसी ठोस अंतिम निर्णय तक नहीं पहुँच पा रहे है. जिसका असर यह है कि छात्रों का बहुत बड़ा तबका अपनी शिक्षा और भविष्य को लेकर घोर असमंजस में है.
पिछले लगभग दो महीनों से विश्वविद्यालय परिसर बंद हैं और शिक्षा का कार्य ऑनलाइन ही चल रहा है. पहाड़ों में दूर-दराज गाँवों में रहने वाले बच्चे लॉकडाउन की घोषणा के तुरंत बाद अपने घरों को चले गए. इसी बीच गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय ने भी छात्रों की पढ़ाई को ध्यान में रखते हुए ऑनलाइन क्लास चलाने की पहल की. लेकिन यहॉं पढ़ने वाले अधिकतर छात्र उस पृष्ठभूमि से आते हैं जहॉं गाँवों में नेटवर्क की उपलब्धता ही नहीं है. अगर कहीं नेटवर्क है भी तो वहॉं छात्रों के पास स्मार्ट फोन नहीं है. ऐसी स्थिति में हजारों छात्र ऐसे हैं जो चाहकर भी ऑनलाइन क्लास में अपनी भागीदारी नहीं दिखा सकते. कई छात्र ऐसे भी हैं जिनके पास स्मार्ट फोन तो है लेकिन गॉंव में नेटवर्क ही नहीं आता इसलिए कभी यूनिवर्सिटी की कोई खबर लेनी भी हो तो उन्हें गॉंव से कई किलोमीटर दूर किसी टावर के पास या फिर मेन बाजार में आकर श्रीनगर में रह रहे अपने साथी मित्रों से बात करनी पड़ती है. पहाड़ों की परिस्थितियॉं इतनी विषम हैं कि कहीं लाइट नहीं है, कहीं सड़क नहीं है तो कहीं नेटवर्क ही नहीं है.
पिछले कुछ समय में शहरों में भी इंटरनेट स्पीड और मोबाइल नेटवर्क की गुणवत्ता के मामलों में शिकायतें तेजी से बड़ी हैं. कॉल ड्रॉप की वजह से उपभोक्ता पहले ही परेशान थे और लॉकडाउन के बाद से मोबाइल नेटवर्क पर दबाव इतना बढ़ गया है कि यह समस्या और विकराल हो गई है. श्रीनगर जैसे शहर में शायद ही कोई नेटवर्क हो जिस पर पूर्णत: भरोसा किया जा सके. यही हॉल तराई के क्षेत्रों का भी है. कई बार कमरे में नेटवर्क न आने की वजह से छात्रों को घंटों छत में बैठकर ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल होना पड़ता है. जब शहरी और तराई क्षेत्र नेटवर्क और स्लो इंटरनेट स्पीड की समस्या से इतनी बुरी तरह जूझ रहे हैं तो पहाड़ों का अंदाजा आप खुद ही लगा सकते हैं.
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पुन: अगर बात गढ़वाल विश्वविद्यालय की करें तो यहॉं प्रोफेशनल कोर्स जैसे एमबीए, टूरिज़्म और फार्मा में छात्रों की संख्या सीमित होने की वजह से 70 से 80 फीसदी छात्र ऑनलाइन कक्षाओं से जुड़ पाए हैं लेकिन बीएससी या बीए में छात्रों की संख्या इतनी ज्यादा है कि बमुश्किल 25 से 30 फीसदी छात्र ही इन ऑनलाइन कक्षाओं का फायदा ले पा रहे हैं. अगर औसतन बात की जाए तो विश्वविद्यालय के लगभग 35 से 40 फीसदी छात्र ही इन कक्षाओं में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर पाए हैं. वैसे भी ऑनलाइन पढ़ाई के मामले में उत्तराखंड का अब तक का रिकार्ड कुछ खास रहा भी नहीं है. राज्य में अब तक मात्र 44 फीसदी छात्र ही इन ऑनलाइन कक्षाओं तक पहुँच पाए हैं. ऐसी स्थिति में छात्रों की बड़ी संख्या का शिक्षा के प्लेटफॉर्म से ही गायब हो जाना चिंता के साथ-साथ ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली को भी कटघरे में खड़ा करता है.
इस सब के बीच एक बड़ी समस्या बच्चों की परीक्षाओं को लेकर भी हैं. जिस हिसाब से ऑनलाइन क्लास में बच्चों की सहभागिता है उसके मद्देनजर ऑनलाइन परीक्षा का विकल्प स्वत: ही धराशायी हो जाता है. दूसरी तरफ जब तक स्थिति सामान्य नहीं हो जाती छात्र विश्वविद्यालय परिसर में आकर भी परीक्षाएँ नहीं दे सकते. ऐसी स्थिति में विश्वविद्यालय के साथ-साथ शिक्षा मंत्रालय व यूजीसी को देश के समस्त छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए किसी ऐसे निर्णय पर आना चाहिये जो सर्वमान्य हो और सभी पर एक तरह से लागू हो ताकि कल की तारीख में समस्त छात्र इस संकट की घड़ी में किये गए अपने मूल्यांकन को सही व बराबर ऑंक सकें.
गढ़वाल और कुमाऊँ में स्थित विश्वविद्यालय प्रशासनों को अपने राज्य की विपरीत परिस्थितियों को समझते हुए छात्रों को ऑनलाइन परीक्षा फॉर्म भरने में रियायत या कुछ और समय देना चाहिये. साथ ही वित्तीय संकट की इस घड़ी में परीक्षा फॉर्म भरना नि:शुल्क किया जाना चाहिये. प्रशासन को इन तमाम पहलुओं पर गौर करने के बाद ही किसी अंतिम निर्णय पर पहुँचना चाहिये ताकि लिये गए निर्णय कोरोना काल में समस्याओं का सामना कर रहे छात्रों के हित में हो. यह समय अपने निर्णयों को छात्रों के ऊपर थोपने से ज्यादा नए विकल्पों की तलाश का है तथा भविष्य में उन विकल्पों में सुधार का भी है जो हमारे पास पहले से उपलब्ध हैं.
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नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं
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