धुर गहराती कातिग के महीने चम्म चमकीले झीने उजास को बिखेरती जुन्याली रात का उजाला ऐसा कि दूर खड़ीक के पेड़ों पर पिंगलाई छोटी-छोटी खड़ीक की दाणी भी साफ दिखाई दे. कातिग के महीने में घर बौण का काम धाम सब ख़त्म. घर की काकी, बौडी, दादी, नानी सब बेफिक्र. फसल-पात सब सुखा-पका के सार सम्हाल दी. अब क्या बस दो चार कठगल (लकड़ी का करीने से लगा ढेर) लकड़ी काट कर जाड़ों की पूरी तैयारी हो गयी.
द्यूराण, जिठानी घर गृहस्थी के काम निबटातीं, गोर बाछी चरातीं, हंसी ठिठोली करतीं. जुन्याली रात में अपनी अपनी छज्जा, डिंडियाली में कथा, आणे लगाती. सफ़ेद बाखरी पानी पीने गई और लाल हो के आई बोलो रे क्या? अपनी दादी माओं की गोद में लेटे बच्चे जोर से बोलते स्वाली (पूरी) और क्या!
जुन्याली रात में बोलते झींगुरों की चर्र चर्र के साथ बच्चों की तालियों की आवाजें सामने वाले पहाड़ों में पडी जून की परछाईं के साथ खिलखिला पड़तीं. इन दिनों किसी बेटी-ब्वारी को रात-बिरात काम करने के लिए केड़े, छिल्ले जलाने की जरुरत ही नहीं होती. जमानों पहले के पहाड़ों में रहने वाले भोले-भाले पहाड़ी लोगों के लिए यही अनमोल चीजें थीं जो उनके जीवन जीने की धुरी भी थी ओर संसाधन भी. बिना मोल के कुदरत के बक्शे.
कातिग महीने के इन्ही फूल फटक चांदनी वाले दिनों में गाँव के मर्द नमक, गुड़, कपड़े के साथ सभी जरुरत की चीजें जो वो अपने खेतों में खुद पैदा नहीं कर सकते थे लेने ढाकर जाते थे.
दादा जी बताते थे उन दिनों लोग एक दूसरे के घर से दो ही चीजे मांगते थे, पहली आग और दूसरी नमक. कहावत कही सुनी जाती थी – तेरी लौण की गारी तब देंगे जब मेरा ढाकरी आ जायेगा.
बैलगाड़ी,घोड़ागाड़ी की बात की कल्पना पहाड़ों के उतराई चढ़ाई के रास्तों में की ही नहीं जा सकती. जहाँ जाना हो बस अपने पैरों का सहारा होता. समूह में पैदल चलने के लिए लोग रात को घरों से निकलते. और ये दिन तो भरपूर जुन्याले थे. अपनी कुटरियों में हफ्ते-दस दिन का राशन बाँध के चल दिए . रास्ता साफ दिखाई दे रहा था. पहाड़ी संकरी पगडण्डी एक दूसरे के पीछे गप्पें मारते चल दिए सब. बीच-बीच में दूसरे गाँव के ढाकरी भी साथ होते गए. चलते-चलते आधी रात से जादा बीत गयी.
जिस गांव, जिस जंगल, जिस उंदार, उकाल से ढाकरी जाते, जून साथ-साथ उनको बाटा दिखाती चलती. दो रात बेखटके चलने के बाद सुबह की झुस-मुस तक जून साथ की साथ.
उनमे से एक सयाणे को कुछ चिंता होने लगी पर उन्होंने अपने मन की शंका किसी को नहीं बताई. दोपहर तक सब नजीबाबाद पौंछ गए. सबने खाना बनाया खाया और सामान का मोल भाव करने बजार में निकल गए.
जब रात हुई तो यहाँ देश में भी फूल फटक की जून लगी थी. अब सयाणा जी से रहा नहीं गया. उन्होंने अपने मन की शंका सबके सामने रखी – यार ब्यटा मै तीन दिन से देख रहा हूँ ये जून तो हमारे साथ साथ ढाकर में आ गयी, और वहाँ गाँव में बेटी ब्वारी चुकपट अँधेरे में काम कैसे कर रही होंगी. और ये तो आज भी यही हमारे साथ रुक गयी देश में. अब कुजाण हमारे साथ वापिस जायेगी कि नहीं.
द! लाटे पहाड़ियों की सारी बात एक बणिया सुन रहा था. चंट बणिये को लगा यही मौका है जब इन को और लटियाया जा सकता है. उसने कहा सयाणा जी ये तो गजब हो गया. अब इस चाँद का यहाँ से उन पहाड़ों में वापिस जाना भौत कठिन है. यहाँ से भी पिछले साल के ढाकरियों के साथ गया था अब ठीक एक बरस बाद तुम लोगों के साथ वापिस आया. बिचारे सारे ढाकरी चिंता में पड़ गए. अब क्या जो होगा!
ऐसा मरा इस जून का टुप-टूप हमारे पीछे लगा और हमने ध्यान ही नहीं दिया. बणिये को लगा लोहा गरम है चोट सीधे लगेगी. कुछ सोच विचार की मुद्रा बना कर बोला लै भई मिला एक उपाय. अगर तुम लोग बोलो तो बात करूँ. सब फिकर में पीले पड़े भोले पहाड़ी गर्र से बणिये की तरफ देखने लगे.
अब यही तो एक उजाला है उनके पास. चलो कोइ बात नहीं दसेक दिन जने कहाँ-मुँह छिपाये रहता है पर फिर आ तो जाता हैं न. अगर हमने इस जून को यहीं छोड़ दिया तो सारे इलाके वाले हमारी थू-थू करेंगे. चाहे कुछ भी हो जाये इसे ले कर ही जायेंगे.
सबकी आँखों के इशारो को समझ कर बणिया बोला कुछ खर्चा पाणी लगेगा इसमें. और फिर चाँद को देश से पहाड़ में ले जाने के लिये मोल भाव शुरू हो गया. बची-खुची जमा से गुड़ नमक लेकर रात को जून निकलते ही ढाकरी तेजी से चल दिए. कहीं ऐसा न हो दोनों में से कोइ मुकर जाये. अर बस देखते ही जून उनके पीछे पीछे चलने लगी.
गाँव में पंहुचते ही ढाकरियों ने अपनी मोल ली जून की बात सबको बताई.
और गाँव के लोग भौंचक्क. पर यहाँ तो फूल फटक की जून लगी थी. तुम साले बेकूफ लूण छोड़ के एक और जून म्वल्या के ले आये. अबे जब हमारा एक से काम चल रहा था तो दूसरे की क्या जरूरत थी.
चुप रहो तुम सब . हम देशी लोगो को ठग कर उनकी जून म्वल्या लाये. अब हमारी जून जादा जुन्याली होगी.
कहते है तभी से पहाड़ो में दो के बराबर एक बड़े से गोल चाँद की चटक चांदनी बर्फीले इलाकों को चाँदी से भर देती है.
-गीता गैरोला
देहरादून में रहनेवाली गीता गैरोला नामचीन्ह लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. उनकी पुस्तक ‘मल्यों की डार’ बहुत चर्चित रही है. महिलाओं के अधिकारों और उनसे सम्बंधित अन्य मुद्दों पर उनकी कलम बेबाकी से चलती रही है. वे काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगी.
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3 Comments
Anonymous
“दो के बराबर एक चाँद की जुन्याली क्यों होती है पहाड़ों में” सुंदर भोले जन की सुंदर भोली कहानी।
Taruna Jain
वाह गीता दी, पढ़ा और मन के भीतर कुछ सिरज गया। आप ऐसे ही लिखती रहें।
विरेन्द्र सिंह बिष्ट
नानछिना भौत सुनी थी जुन्याली रात, आज समझ मे आई।