हरेले से एक दिन पहले कुमाऊँ अंचल में डिकारे पूजे जाते हैं. कुछ लोग पहले ही डिकारे तैयार कर लेते हैं और कुछ आज ही उन्हें बनाते हैं. हरेले से एक दिन पहले गौधूली के बाद डिकारे पूजे जाते हैं. इसके लिए गणेश, शिव-पार्वती, रिद्धि-सिद्धि, कार्तिकेय और नंदी आदि के डिकारे तैयार करते हैं. (Harela worship Dikare)
कुमाऊं में हरेले को शिव-पार्वती के विवाह का दिन भी माना जाता है. इसलिए इस दिन शिव परिवार के सभी सदस्यों के मिट्टी के डिकरे बनाकर उन्हें हरेले के पूड़े के बीच स्थापित करने के बाद उनकी विधिवत पूजा की जाती है.
डिकारे या डिकर का मतलब है पूजे जाने के लिए बनायी जाने वाली मूर्ति या वनस्पतियों से निर्मित देव प्रतिमाएँ.
इनका निर्माण मुख्यतः हरेला, कर्क संक्रांति पर मनाये जाने वाले संक्रान्तोत्सव, जन्माष्टमी, सातूं-आठूं, गबला-महेश्वर और नन्दाष्टमी आदि के मौकों पर किया जाता है.
जन्माष्टमी के मौके पर श्रीकृष्ण, गायें, गोवर्धन पर्वत आदि, उनसे जुड़ी चीजों के डिकरे बनाकर पूजे जाते हैं.
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इसी तरह भादों के महीने में अमुक्ताभरण सप्तमी और विरुड़ाष्टमी (सातूं-आठूं) के अवसर पर कुमाऊँ के पूर्वोत्तर क्षेत्र, सोर घाटी में महिलाएं व्रत रखकर सांवाधान्य या मक्के की हरी बालियों और पत्तों को आपस में गूँथकर और सफ़ेद कपड़े से उनकी मुखाकृति बनाकर शिव-पार्वती के डिकरे बनाकर पूजती हैं. शिव के डिकरे के साथ डमरू, त्रिशूल, चंद्रमा आदि के प्रतीकों को भी बनाया जाता है. गौर (पार्वती) के डिकरों को गहनों से भी सजाया जाता है.
समय बदलने के साथ इस परम्परा के निर्वहन में भी बदलाव आ रहे हैं. अब डिकारे नहीं पूजे जाते या फिर बाजार में तैयार मूर्तियों से ही काम चला लिया जाता है. अब वनस्पतियों के बजाय अन्य कृत्रिम चीजों से तैयार मूर्तियां भी काम में लायी जाने लगी है.
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