दूरदर्शन के जमाने के दर्शक पुराना जिक्र छिड़ते ही, यकायक अतीत-मोह से घिर आते हैं. एकदम भावुक से हो उठते हैं. अपने पक्ष-समर्थन में इस दावे पर उतर आते हैं- अस्सी-नब्बे के दशक की पीढ़ी, सबसे खुशनसीब थी. हद से ज्यादा इनोसेंट थी. (Old days of doordarshan)
एक नजर उस दौर के दूरदर्शन विज्ञापनों पर-
‘धारा’ खाद्य तेल का जलेबी ऐड किसको याद नहीं होगा. ”जाना तो है, मगर बीस-पच्चीस साल बाद’.
मासूम सा बच्चा. रामू काका उसे स्टेशन पर पकड़ लेते हैं. बातचीत से जाहिर होता है कि वह घर छोड़कर जा रहा है.
रामू काका उसे जलेबी का प्रलोभन देते हैं. वह खुशी- खुशी घर वापसी को राजी हो जाता है. जलेबी के आकर्षण में रामू काका की साइकिल के डंडे पर बैठकर घर लौट आता है.
कैडबरी ऐडः कुछ खास हैं… हम सभी में…
क्रिकेट की पारंपरिक वेशभूषा में बैट्समैन लंबा शॉट खेलता है. दर्शक दीर्घा में बैठी प्रशंसिका कैडबरी चॉकलेट का आस्वादन ले रही होती है. शॉट हवा में खेला गया है. बाउंड्री पर लगा फील्डर कैच लपकने की नाकाम सी कोशिश करता है. दर्शकों में असमंजस का भाव बना रहता है. गेंद छह रन के लिए चली जाती है. इस खुशी में प्रशंसिका से रहा नहीं जाता. वह उठकर गार्ड को छकाती है और लास्य नृत्य करते हुए बैट्समैन को चीयर्स करने क्रीज पर आ पहुँचती है. बैट्समैन लाज के मारे शरमाने लगता है..
जब घर की रौनक बढ़ानी हो… नैरोलैक पेंट के विज्ञापन में घर का मुखिया दीवारों पर खुद पेंट करता हुआ नजर आता है. बच्चे खुशी में घर में ऊधम काटे रहते हैं. पापा को पेंट करते हुए बड़े चाव से देखते हैं..
या मुँह से भाप देकर स्कूटर चमकाता हुआ गृहस्थ… हमारा बजाज… बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर…
लूना मोपेड तब बड़ा सपना हुआ करती थी. नये वाहन की खुशी में बाकायदा पूजा-पाठ होता था. देहात की सड़कों पर जॉय राइड ली जाती थी. यह खुशी सबके साथ साझा की जाती थी.
या फिर वॉशिंग पाउडर और नहाने के साबुन के विज्ञापन.. प्राकृतिक जल स्रोत पर स्नानरत् रमणी… जब मैं छोटा बच्चा था…बड़ी शरारत करता था… बजाज की रोशनी का विज्ञापन… राजू तुम्हारे दाँत तो मोतियों जैसे चमक रहे हैं. क्यों ना हो मास्टर जी.. मैं डाबर लाल दंत मंजन जो इस्तेमाल करता हूँ…
हाजमोला कैंडी या विक्स के विज्ञापन, जिनमें उद्घोषक अमीन सयानी के लहजे में कम समय में सारी विशेषताएं गिना जाते थे.
फिर दुनिया तेजी से बदली. केबिल आया. इंटरनेट आया. उपभोक्तावाद की आँधी आई. वैश्वीकरण छा गया. ग्लोबलाइजेशन ने कई विकल्प पेश किए.
अभी भी उस दौर की बात करें तो थोड़ी देर के लिए श्रोताओं में मासूमियत सी छा जाती है. वे उन स्वर्णिम दिनों को याद करते हुए दावा करने लगते हैं कि वे सबसे बेहतरीन दिन थे. उनका फिर से उस दौर को पाने का मन करने लगता है.
तब भारत माता सचमुच गाँवों में बसती थी.
जब देश आजाद हुआ तो देश में शहरी आबादी 11% थी. सन् इकहत्तर में 20%. 1981 में 23.3%. वैश्वीकरण के समय अर्थात् 1991 में 25.7%.
जीवन को सहूलियत देने वाले साधनों को जानने का एकमात्र जरिया दूरदर्शन या आकाशवाणी.
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उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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