अब ऐसे नज़ारे कम दिखाई देते हैं, मगर हमारे छुटपन में जब पहाड़ों का आकाश हर वक़्त बादलों से घिरा रहता, हम बच्चे अपने गाँव की सबसे ऊँची चोटी पर दोनों हाथ फैलाए आकाश की ओर देखकर वहाँ बैठे देवताओं से बादल जीजा को अपने पास बुलाकर घाम दीदी को हमारे पास भेजने की विनती करते. हमारी प्रार्थना के बीच जब बादलों के बीच से कोई टुकड़ा छितरा कर अलग हो जाता तो हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता और हम दुगने उत्साह से आकाश से अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए प्रार्थना करते. (Of Clouds and Sunshine Kumaon)
जीवन की पहली साँस के साथ ही बर्फीली चोटियों से सपनों का खजाना भेजने वाली उस निराली दुनिया में जीना और दीदी-जीजा के द्वारा बसाये जाने वाले एक समानांतर संसार का अनुभव तो सिर्फ और सिर्फ एक पर्वतवासी ही कर सकता है…
उम्र के ऐसे ही किसी पड़ाव में मन में सवाल उठा था कि हिमालय की गोद में विकसित होने वाली जीवन यात्रा में गरमी और सरदी का रिश्ता दीदी-जीजा के रूप में ही क्यों निर्मित हुआ होगा?… पर्वतवासी की सबसे बड़ी नियामत उसकी प्यारी दीदी धूप (घाम) को उससे छीनकर सारे आकाश में राज करने वाले बादल-जीजा के अजीब-से गुस्से को हम पहाड़वासी पूरे चातुर्मास भर झेलते थे, कभी ख़ुशी, कभी लाचारी और कभी भय के साथ… मगर जब वर्षा-ऋतु बीतने के साथ शरत के आकाश से हमारे दीदी-जीजा बर्फ के रूप में अपने सुन्दर सलोने शिशुओं को इस धरती में भेजकर हमारी मौजूदा दुनिया को और अधिक खूबसूरत संसार के रूप में बदल देते थे, तब उन लोगों के प्रति हमारे रिश्ते नया ही रूप धारण कर लेते थे… देखते-देखते वे रिश्ते अधिक आत्मीय और प्रगाढ़ होते चले जाते थे. (Of Clouds and Sunshine Kumaon)
शरद के बाद आने वाली शीत ऋतु मैदानों में रहने वाले लोगों के लिए भले ही मुसीबतों का सबब होता हो, पहाड़ों में रहने वालों के लिए यह उनका सबसे आत्मीय रंग होता है. धरती की स्वाभाविक सृजन-प्रक्रिया के बीच से जन्म लेने वाले इस अलविदा-मौसम का नैसर्गिक अनुभव इसीलिए एक पर्वतवासी ही कर सकता है. शायद इसीलिए यह अनायास नहीं है कि पहाड़ों को दूर से देखने वाला व्यक्ति उसे अपनी निजी आँख से देखता है और उसके एक-एक रेशे का सिर्फ अपने लिए इस्तेमाल करना चाहता है – उसकी हरियाली, ठंडी बयार, ऊंचे-ऊंचे दरख़्त, असूर्यपश्यी वन-भूमि, आकाश छूते हिमनद, पर्वत-शिखरों पर मखमली चादर की मानिंद बिछे बुग्याल, आसमान की ऊँचाइयों से धरती की कोख में शरण लेते हीरे के रंग के पारदर्शी झरने, बलखाती नागिन की तरह चट्टानों से टकराती फेन उगलती भागती नदियां, असंभव मार्गों के बीच निरंतर वायु-प्रहारों से जूझते कठोरता के प्रतिमान पर्वत-शिखर… दरअसल, ये वही नहीं होते जिस रूप में इन्हें एक पर्यटक की नजर से देखा जाता है.
शरद और शीत ऋतु के, काली गुफाओं के समान ये चार महीने अपने गर्भ में से प्रकृति के अनमोल हीरे ऋतुराज-वसंत का प्रसव करती हैं, इस प्रसव-पीड़ा को भी इसीलिए इस धरती में बारहों महीने रहने वाला ही जान सकता है. यही कारण है कि इन पहाड़ों में रहने वाला पर्वतवासी प्रकृति को उसी की नजर से देखता हुआ उसकी सुरक्षा के बारे में सोचता है जब कि अपने निजी नजरिये से देखने वाला पर्यटक इसके उपभोग और दोहन को लेकर ही सोचता रहता है. मैदानों में, खासकर देहातों में, आज भी पहाड़ों में जाने का अर्थ ‘हवा खाना’ समझा जाता है जो एक तरह से उसके निजी उपभोग का ही पर्याय है. यही कारण है कि प्रकृति के वास्तविक सौन्दर्य को शीत ऋतु के और एक पहाड़वासी की दिनचर्या के द्वारा ही समझा जा सकता है.
दुनिया अब सिमट आई है इसलिए ऋतुएँ भी बदल गई हैं. चाहे पृथ्वी का तापमान बढ़ जाने से हुआ हो या क्षेत्रीय संसाधनों के पूरी दुनिया में फैल जाने से, शीत ऋतु में पहाड़ों में अब बर्फ गिरनी कम हुई है. कुछ इलाकों में तो एकदम बंद हो गई है. इसका असर पहाड़ी लोगों की समूची जीवन-शैली पर भी पड़ा है. हमेशा से ही, एक संपन्न व्यक्ति का एक घर पहाड़ों में भी होता था और यह प्रवृत्ति भारत में ही नहीं, पूरे संसार में देखने को मिलती है. पुराने पहाड़ी समाजों में तो ठण्ड से बचने के लिए भी और जरूरत की अनुपलब्ध चीजों को प्राप्त करने के लिए मैदानों की ओर प्रवर्जन और आवागमन उनकी अनिवार्य विवशता थी, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि आदमी का मैदानों-पहाड़ों में आवागमन सिर्फ अपनी जरूरतों के लिए था. पहाड़ मनुष्य की नैसर्गिक संस्कृति के प्रतीक हैं जबकि मैदान उसकी अर्जित संस्कृति है. यही कारण है कि मनुष्य हमेशा अपनी स्मृतियों से जुड़ने के लिए बार-बार पहाड़ों की ओर जाता है. यह जाना निश्चय ही शीत ऋतु के उस गर्भगृह की यात्रा है जहाँ से नई ऋतुओं और मानव सभ्यता के नए रास्तों का अंकुरण होता है. मनुष्य जाति की अपनी जड़ों की यात्रा. (Of Clouds and Sunshine Kumaon)
पहाड़ों में जाड़ों की सुबह के वक़्त जब एकाएक सारा संसार बर्फ की चादर से ढँका हुआ दिखाई देता है तो इस दुनिया को बनाने वाले के कौशल को लेकर हैरानी ही नहीं होती, प्रकृति का अंग होने के नाते आदमी को अपनी शक्ति और क्षमता का अहसास भी होता है. दूसरी ओर, मौसम-चक्र के बदलते चले जाने की वजह से मैदानों में भोर का परंपरागत अर्थ और सौन्दर्य एकदम बदल गया है… चारों ओर कोहरे और धुंद की चादर के बीच आदमी की सुबह की शुरुआत होती है, इसके बावजूद, पहाड़ों का आकाश अपनी पुरानी आभा में बचा रह सका है, सिर्फ इसलिए कि वह हमें बार-बार चेतावनी देता है कि पहाड़ों की शीत-संस्कृति को बचाए रखकर ही हम सुखी और स्वस्थ रह सकते हैं.
असल में शीत ऋतु का जो काला और खौफनाक बिम्ब हमने अपने दिमाग में बना रक्खा है, उससे मुक्त होने की आवश्यकता है क्योंकि अंततः यह काला हाशिया ही तो है जो नए जीवन के वसंत को हमारे लिए अंकुरित करता है. वसंत से आरम्भ होकर जीवनदायी शाश्वत ऋतु-चक्र… ग्रीष्म, पावस, शरद, शीत और फिर से एक बार वसंत… जो एक प्रकार से हमारे स्वस्थ और सम्पूर्ण जीवन का ही तो पर्याय है.
पुराने पहाड़ी समाजों में, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न बसे हों, एक अंतर्मुखी समाज का ताना-बाना होता था, जो शीत ऋतु का उपयोग नए वर्ष की खुशहाली की तैयारी के लिए करते थे. दिन भर का उपयोग उपलब्ध शाक, मांस, भोज्य वनस्पतियों को ग्रीष्म के अनुपजाऊ समय के लिए संरक्षित करने का काम और ठण्ड भरी लम्बी रातों में सार्वजनिक अलाव के चारों ओर एकत्र होकर सारा समाज अपने अनुभवों, सुख-दुखों को एक दूसरे के साथ बांटकर न जाने कितनी कला-शैलियों की रचना करता रहता था, इसकी आज के कथित विकसित दौर में कल्पना तक कर सकना संभव नहीं है. मनुष्य ने सभ्यता के विकास के साथ नए-नए कला रूपों को जन्म दिया है, उसे उनकी मौलिकता के साथ संसार के हर कोने में फैले समाजों तक पहुँचाया भी है मगर पहाड़ों की शीत-संस्कृति की उस अमूल्य देन को आज उसी सौन्दर्य के साथ जुटा पाना असंभव लगता है हालाँकि आज हमें उसी की सबसे अधिक जरूरत है. (Of Clouds and Sunshine Kumaon)
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन. टेलीफोन : 9412084322
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1 Comments
शम्भूदत्त सती
गुरूदेव को प्रणाम,
मैं भी इस किस्से को भूल गया था, बरसों बाद आज आपने याद दिला दी। न जाने अभी भी आपके जेहन में कितनी बातें दबी छुपी होंगी। आपसे मिलने की अभिलाषा मन में रखते हुए भी, पलायन की दौड़ में आपसे मिल नहीं पा रहा हूं। जाने कभी संयोग हो जाय। पिछली बार डॉ. विजया सती जी ने बताया आपको बटरोही जी याद कर रहे थे, मैंने उनसे भी आपसे मिलने का वादा कर दिया था लेकिन मिल नहीं पाया। क्षमा याचना के साथ भरपूर कोशिश रहेगी।
सादर,
शम्भूदत्त सती