उत्तराखंड का वन आन्दोलन जवान होने लगा था. सुन्दर लाल बहुगुणा की ओजस्वी वक्तृता व लेखन, चंडीप्रसाद भट्ट के अनथक प्रयास, कामरेड गोविंद सिंह रावत के ‘ठेकेदारो सावधान, आ गया है लाल निशान’ के जनवादी नारों और घनश्याम सैलानी के प्रेरक और मनमोहक गीतों से 1973-74 से ही गढ़वाल के कई स्थानों पर जंगलों में जनता के हक-हकूक लेने और ठेकेदारी प्रथा के विरुद्ध वन आंदोलन का माहौल बनने लगा था. रामपुर फाटा और रेणी में गौरा देवी के वनो के कटान के विरुद्ध प्रतिरोध सफल रहे थे.
कुमाऊँ में वनों की नीलामी के प्रतीकात्मक विरोध का क्रम 1972 से ही शुरू हो गया था. जे.पी. के ‘सम्पूर्ण क्रांति’ आंदोलन की पृष्ठभूमि में 1974 में अल्मोड़ा से जाकर शैले हॉल (नैनीताल) में हो रही नीलामी का विरोध करने वाले 18 लोगों में शमशेर सिंह बिष्ट के साथ हरीश रावत, बचेसिंह रावत, बिपिन त्रिपाठी, शेखर पाठक, जसवन्त सिंह बिष्ट, शेर सिंह धौनी और बालम सिंह जनौटी प्रमुख थे. जैत सिंह किरौला की मदद से बिपिन त्रिपाठी अपने अखबार ‘द्रोणांचल प्रहरी’ में ‘स्टार पेपर मिल’ द्वारा की जा रही जंगलों की लूट को बेनकाब करने के साथ 1975 की ‘उतरैणी’ में बागेश्वर में कांग्रेस के मंच पर कब्जा करने का धमाका कर चुके थे. इसके बावजूद वन आंदोलन को वह त्वरा और विस्तार नहीं मिल पा रहे थे, जिसकी बहुत अधिक जरूरत थी.
सुंदरलाल बहुगुणा ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में पहाड़ की समस्याओं को समग्रता से देखते थे. उनकी दृष्टि में कुमाऊँ व गढ़वाल की समस्यायें एक जैसी थीं. वे विशेषकर छात्रों और युवाओं को पहाड़ के दुर्गम गाँवों की असलियत से परिचित कराना चाहते थे. उन दिनों ग्रामीण युवक शहर आकर पढ़ाई करते और नौकरी ढूँढते. फिर रिटायरमेंट के बाद ही वापस घर आते. नौकरी करते हुए उनके द्वारा घर भेजे गये मनी ऑर्डर गाँवों की अर्थव्यस्था का आधार थे. बहुगुणा ने वर्ष 1974 में छात्रों की ‘अस्कोट से आराकोट यात्रा’ आयोजित की. यह पदयात्रा गांधी के विचारों के नजदीक थी. इसमें न कोई प्रचार था, न दिखावा और न ही कोई महत्वाकांक्षा. इसका मकसद अपने ग्रामीण अंचल को समग्रता में जानना था. कुमाऊँ व गढ़वाल को परस्पर जोड़ने का सोच भी इसके पीछे था और इसलिए इसमें शामिल चार युवकों में से दो, कुँवर प्रसून और प्रताप शिखर गढ़वाल से तथा दो, शमशेर सिंह बिष्ट व चन्द्रशेखर पाठक (जो बाद में शेखर पाठक नाम से विख्यात हुए) कुमाऊँ से थे.
शमशेर सिंह बिष्ट 1972-73 में अल्मोड़ा महाविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष रहते हुए विश्वविद्यालय आंदोलन का नेतृत्व कर चुके थे. इन चार युवकों को कुमाऊँ के पूर्वी छोर पर स्थित अस्कोट से हिमाचल प्रदेश से सटे उत्तरकाशी जनपद के आराकोट तक की पदयात्रा बिना जेब में कोई पैसा रखे पूरी करनी थी, ताकि अपने भोजन, आवास और अन्य जरूरत के लिये ग्रामीणों पर आश्रित रहने से वे उनकी जिन्दगी के बारे में गहराई से समझ सकें. इस यात्रा ने इन चारों युवकों की जिन्दगी पूरी तरह बदल दी, जो बाद में इनके द्वारा किये गये कार्यों से साबित होता है. दुर्भाग्य से कुँवर प्रसून और प्रताप शिखर आज हमारे बीच नहीं हैं.
इस यात्रा के प्रभाव से शमशेर सिंह बिष्ट जे.एन.यू. जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में शोध कार्य छोड़ कर स्थायी रूप से पहाड़ में काम करने के लिये लौट आये. हेमवती नंदन बहुगुणा और के.सी. पन्त जैसे दिग्गज नेताओं के प्रलोभन भी उन्हें कांग्रेस में शामिल नहीं कर पाये, जबकि उस वक्त कांग्रेस इस क्षेत्र की एकमात्र राजनीतिक ताकत थी. उनकी वैकल्पिक राजनीति की सोच उन्हें कम्यूनिस्ट आंदोलन के नजदीक दिखाती थी. 1967 से नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हो चुका था और सरकार ऐसे विचारों के प्रति बहुत सतर्क रहती थी. मगर शमशेर सिंह बिष्ट जितने वामपंथी थे, उससे कहीं अधिक गांधीवादी थे. उनका कोई राजनीतिक गुरु नहीं था. चुनावी राजनीति से दूर रहते हुए वे उत्तराखंड के पिछड़ेपन का अपने ढंग से विश्लेषण कर रहे थे और इस क्षेत्र की शोषण मुक्ति के लिए तरीके ढूँढ रहे थे. जल्दी ही अल्मोड़ा में उन्हें इस विचार के लिए चन्द्रशेखर भट्ट, पी.सी.तिवारी, प्रदीप टम्टा, षष्ठीदत्त जोशी, खड़क सिंह खनी, जगत सिंह रौतेला आदि जुझारू युवाओं का साथ मिल गया. इनमें से ज्यादातर युवक प्रखर वामपंथी थे. शीघ्र ही ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ नाम से एक संगठन बन गया, जो अल्मोड़ा की छात्र राजनीति में छा गया.
आपातकाल के आतंककारी माहौल के दौरान भी यह संगठन पूरी तरह सक्रिय रहा. उस बीच अस्कोट-आराकोट यात्रा के नाम से ही 1975 अल्मोड़ा से गोपेश्वर तक की एक यात्रा कर जन जागरण किया गया. जुलाई 1977 में मनान (अल्मोड़ा) में एक बैठक में ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ की स्थापना हुई, जिसमें पर्वतीय युवा मोर्चा के युवाओं के साथ केदार सिंह कुंजवाल और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे सर्वोदयी कार्यकर्ता भी शामिल हुए. चंडी प्रसाद भट्ट व शमशेर सिंह बिष्ट को संयुक्त रूप से वाहिनी का संयोजक बनाया गया. इस संगठन का उद्देश्य उत्तराखण्ड की जनता को शोषण से मुक्त कराना था. मुख्य रूप से स्वरोजगार, वनों से रोजगार व वनाधिकार के विषय इसके एजेंडा में प्रमुख थे.
वाहिनी का ठीक से गठन भी नहीं हुआ था कि 15 अगस्त 1977 को सीमान्त पिथौरागढ़ जनपद के तवाघाट में एक भीषण भूस्खलन में 45 लोग मारे गये. उस वक्त तक वाहिनी अस्तित्व में न आ गई होती तो शायद यह उसी तरह की एक सामान्य घटना होती, जैसे तवाघाट दुर्घटना से पहले होती थी या आजकल भी होती है. मगर संघर्ष वाहिनी ने कुमाऊँ में पिछड़ेपन, उपेक्षा व शोषण को अपने तरीके से विश्लेषित करना शुरू कर दिया था. उसने इस घटना को वनों के अनियंत्रित दोहन के साथ जोड़ा और वाहिनी के सभी कार्यकर्ता तवाघाट जाकर आंदोलन में जुट गये.
वाहिनी के नेतृत्व में यह पहला आंदोलन होने जा रहा था. नैनीताल में राजा बहुगुणा, निर्मल जोशी व विनोद पांडे द्वारा व्यापक जन संपर्क के बाद एक दिन के ‘नैनीताल बंद’ का ऐलान कर दिया गया. कमिश्नर कुमाऊँ को एक ज्ञापन भी दिया गया. उस वक्त के हिसाब से यह एक बहुत बड़ी घटना थी, क्योंकि तब आंदोलन, बंद, ज्ञापन, धरना आदि महज खबर छपवाने के लिये नहीं होते थे. अखबार ज्यादा थे ही नहीं. राष्ट्रीय अखबार ही मुख्य रूप से पढ़े जाते थे. स्थानीय रूप से ‘पर्वतीय’ था, जिसने उन्हीं दिनों दैनिक का रूप लिया था.
बढ़ते हुए जन दबाव को देखकर उ.प्र. सरकार ने वाहिनी की सभी माँगे मान लीं और तवाघाट के आपदा प्रभावितों को तराई में बसाया गया. इस तरह के पुनर्वास की उत्तराखण्ड में यह पहली घटना थी. इस आन्दोलन की सफलता से उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी को व्यापक प्रचार व मान्यता मिली. वाहिनी अपनी इस अप्रत्याशित सफलता को समेट भी नहीं पायी थी कि 4 सितम्बर को उ.प्र. सरकार ने नैनीताल में कुमाऊँ के जंगलों की नीलामी के लिये 6, 7 व 8 अक्तूबर की तिथियाँ घोषित कर दीं. वनों को तब तक आय का प्रमुख स्रोत माना जाता था. उनका प्रबंधन ब्रिटिश शासन के दौरान निर्धारित सिल्वीकल्चर के नियमों के आधार पर किया जाता था और जंगलों का उनकी बढ़वार के आधार पर वर्गीकरण कर पेड़ काटे जाते थे.
इस व्यवस्था में जंगलों के प्रति क्रूरता का भाव था और ठेकेदारों द्वारा वन विभाग की मिलीभगत से खरीद से अधिक पेड़ काटे जाते थे. स्टार पेपर मिल को करीब 25 पैसा प्रति क्विण्टल की दर से चीड़ की लकड़ी आंबटित होती थी, जबकि ग्रामीणों को हक हकूक मिलने में बहुत कठिनाई होती थी. गाँवों में जलावनी लकड़ी और चारा-पत्ती की समस्या दिनोंदिन बढ़ रही थी. सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत और चंडीप्रसाद भट्ट आदि के प्रयासों से गढ़वाल में वनान्दोलनों (चिपको) का सिलसिला शुरू हो गया था और उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के गठन के बाद जंगल की यह आग कुमाऊँ में भी फैलने लगी थी.
तवाघाट आन्दोलन की सफलता से उत्साहित वाहिनी ने जंगल की नीलामी का विरोध करने का फैसला किया. हालाँकि नैनीताल में नीलामी का विरोध 1972 से ही किया जाने लगा था, मगर वह प्रतीकात्मक ही रहता था. इस बार वाहिनी की नैनीताल इकाई, जिसमें निर्मल जोशी, विनोद पांडे व राजा बहुगुणा के अलावा अब प्रदीप टम्टा भी शामिल हो गये थे, ने जबर्दस्त जन संपर्क से इस प्रतिरोध में धार दे दी. प्रकाश फुलारा और महेन्द्र बिष्ट जैसे कुछ छात्र भी आन्दोलन में शामिल हो गये. उन दिनों आंदोलनों में छात्रसंघ की निर्णायक भूमिका हुआ करती थी, क्योंकि छात्रों के विशाल जुलूस ही स्कूलों से लेकर सरकारी कार्यालय व बाजारों को बंद करवा सकते थे.
अपने जन सम्पर्क अभियान के दौरान उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के युवा, किन्तु साफ छवि के कार्यकर्ता यह बात समझाने में पूरी तरह सफल हो रहे थे कि पहाड़ के पिछड़ेपन और बेरोजगारी के पीछे सरकार की लापरवाही है. जंगल, जो कि यहाँ रोजगार के प्रमुख साधन हो सकते हैं, ठेकेदारों को मिट्टी के भाव बेचे जा रहे हैं. इसी संबध में सेवॉय होटल, नैनीताल में एक बैठक की गयी, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया. इस होटल के मालिक राजीव लोचन साह इसी साल 15 अगस्त से ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू कर चुके थे. शेखर पाठक और गिरीश तिवाड़ी, जो बाद में ‘गिरदा’ के नाम से प्रसिद्ध हुए, इस अखबार से जुड़ चुके थे. ये लोग तवाघाट के आन्दोलन के साथ भी रहे, परन्तु 1977 के वनों की नीलामी के विरोध के साथ उनका प्रत्यक्ष सहयोग तब तक नहीं हो सका था और न ही उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी से उनका सीधा जुड़ाव था.
वनों के मुद्दे से सहानुभूति रखने के बावजूद उस आंदोलन के प्रति ऐसी उदासीनता अनेक लोगों में थी. सम्भवतः वे इस आन्दोलन को युवाओं की अनुभवहीनता और जल्दबाजी मानते हों. हालाँकि प्रशासन में भी उन दिनों जिलाधिकारी बृजमोहन वोहरा और मल्लीताल के थानाध्यक्ष जे.सी. उपाध्याय जैसे लोग थे, जो वनान्दोलन से जुड़े छात्रों के साथ हमदर्दी रखते थे. बाद में इसका खामियाजा इन दोनों, विशेषकर उपाध्याय को उठाना पड़ा. बहरहाल सितम्बर में पॉलीटेक्निक कॉलेज में छात्रों की मारपीट के कारण नैनीताल में धारा 144 लगी हुई थी, जिसे स्थिति सामान्य हो जाने के बावजूद प्रशासन ने जारी रखा.
उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के संयोजक शमशेर सिंह बिष्ट ने नीलामी के विरोध के नैनीताल के इन युवा साथियों के निर्णय को भरपूर समर्थन दिया था, जिससे ये आन्दोलनकारी खासे उत्साहित थे. बस एक चीज उनके खिलाफ जा रही थी. 6 और 7 अक्तूबर को श्राद्ध की अष्टमी व नवमी के अवकाश के कारण जुलूस के लिए छात्र जुटा पाना कठिन था. परन्तु इन युवाओं ने हिम्मत नहीं हारी. नैनीताल के फैशनेबुल शहर में शायद पहली बार हाथ से लिखे पोस्टर खूबसूरती से चिपकाये गये.
तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार 6 अक्टूबर 1977 को 9 प्रातः प्रदीप टम्टा, राजा बहुगुणा, निर्मल जोशी, विनोद पांडे आदि उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ता डाँठ पर जुट गये. पुराने कामरेड विश्वम्भर नाथ साह ‘सखा’ व युवा कांग्रेस के विजय पंत वैद्य’ व आन्दोलनकारियों से हमदर्दी रखने वाले करीब 10-12 लोग भी जमा हो गये. शहर में निषेधाज्ञा लागू होने की वजह से भी शायद कई लोगों ने जुलूस में शामिल होना ठीक नहीं समझा. इस मामूली सी उपस्थिति से वाहिनी के कार्यकर्ता थोड़ा निराश हुए और यह तय हुआ कि जुलूस अब बाजार न जाकर सीधे नीलामी स्थल (रिंक हॉल) ही जायेगा. जलूस के थोड़ा आगे बढ़ने पर कुमाऊँ विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रवक्ता शेखर पाठक भी इसमें शामिल हो गये. न जाने क्यों इस जुलूस में शामिल लोगों, जिनमें वास्तविक आन्दोलनकारी सिर्फ आठ ही थे, को न तो गिरफ्तार किया गया और न ही जलूस को भंग करने की कोई कोशिश की गई. ‘वनों की लूट बंद करो,’ ‘वन नहीं हमें काटो’, ‘स्टार पेपर मिल का आबंटन रद्द करो’ जैसे नारे लगाता हुआ जलूस रिंक हॉल तक पहुँचा.
जलूस में शामिल न रहे हों, मगर मगर दिल में सहानुभूति रखने वाले दर्जनों तमाशायी वहाँ मौजूद थे. हॉल के अंदर नीलामी शुरू हो गयी थी. प्रशासन अब भी आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार करने से कतरा रहा था. अन्ततः आंदोलनकारियों ने आक्रामकता दिखाते हुए हाॅल में प्रवेश करने का प्रयत्न किया. वन विभाग के भयभीत अधिकारियों के कहने पर प्रशासन ने इन आठों कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेकर मल्लीताल थाने में बंद कर दिया. चालीस साल पहले नैनीताल इतना भीड़भाड़ वाला शहर नहीं था. छुट्टी का दिन था, यह खबर आग की तरह शहर में फैल गयी. धीरे-धीरे मल्लीताल थाने के आगे भीड़ जुटने लगी, अन्ततः हजारों में पहुँच गई. थाने के भीतर आन्दोलनकारी निजी मुचलके पर छूटने की प्रशासन की पेशकश को नकार कर जेल भेज दिये जाने की जिद पर अड़े थे और बाहर गगनभेदी नारे लग रहे थे, ‘‘जेल के ताले टूटेंगे, साथी हमारे छूटेंगे!’’
दूसरी ओर रिंक हाॅल, जहाँ जंगलों की नीलामी चल रही थी, में एक दूसरा नाटक चल रहा था और एक पत्रकार आन्दोलनकारी में तब्दील हो रहा था. ‘नैनीताल समाचार’ के सम्पादक राजीव लोचन साह अपने साथी हरीश पंत को साथ लेकर इस आन्दोलन की रिपोर्टिंग करने जब तक रिंक हाॅल पहुँचे, तब तक आठों आंदोलनकारी हिरासत में ले लिये गये थे. हाॅल के भीतर नीलामी चल रही थी और बाहर दर्जनों लोग आँखों में गुस्सा लिये खड़े थे. राजीव लोचन साह के शब्दों में :
न जाने मेरे मन में अचानक कैसे गुस्सा फूटा कि मैं हॉल के अन्दर घुस कर मेजों को लात मार कर गिराने लगा. इस आक्रमण से भौंचक्के हुए वन विभाग के कर्मचारी जब तक सम्हल कर मुझे नियंत्रित करते, तब तक बाहर खड़ी भीड़ भी अन्दर घुस आई और कुछ ही क्षणों में नीलामी की सारी प्रक्रिया तहस-नहस हो गई. उस रोज रिंक हॉल के भीतर जाते समय मैं एक पत्रकार था और बाहर आते-आते एक आन्दोलनकारी बन चुका था.
उधर चैतरफा जन दबाव के आगे प्रशासन ने हथियार डाल दिये और आन्दोलनकारियों को बिना शर्त रिहा कर दिया. मगर आन्दोलनकारी बगैर नीलामी रद्द किये थाने से बाहर आने को भी राजी नहीं हुए. अन्ततः प्रशासन को जंगलों की नीलामी रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी.
आंदोलनकारियों के रिहा होते ही थाने से हजारों लोगों का जलूस बैंड स्टैंड पर जाकर जमा हो गया. यह भीड़ अनियंत्रित हो सकती थी और कुछ अप्रिय घट सकता था. विश्वम्भर नाथ साह ‘सखा’, जो उस वक्त 40-42 साल के रहे होंगे, ने नेतृत्व अपने हाथ में लेकर संक्षिप्त भाषण दिया, ‘‘ये लड़के, जिन्हें हम लौंड-मौंड कहते हैं, ने आज वह कर दिया जो मँजे हुए नेता नहीं कर पाते. अब आज का कार्यक्रम स्थगित होता है.’’
‘धारा 144’ के अंतर्गत लागू निषेधाज्ञा पहले ही तोड़ी जा चुकी थी. सारे शहर में लाऊड स्पीकर से घोषणा की जा रही थी कि शाम को 5 बजे मल्लीताल रामलीला स्टेज में वनों की नीलामी के बारे में आम सभा होगी. प्रशासन के इसरार के बावजूद वाहिनी के कार्यकर्ताओं ने इस सभा के लिये औपचारिक अनुमति लेने से इंकार कर दिया और जिलाधिकारी बृजमोहन वोहरा की सूझबूझ की भी सराहना करनी होगी कि उन्होंने किसी भी टकराव की स्थिति नहीं पैदा होने दी. उस शाम एक गैर राजनीतिक संगठन के द्वारा जंगल के मुद्दों पर पहली बार एक विशाल जनसभा हुई, जिसमें उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ने आंदोलन को समर्थन देने के लिए जनता का आभार व्यक्त किया पर आगाह किया कि भविष्य में नीलामी होने पर फिर ऐसी ही एकजुटता दिखानी होगी. इस सभा में किसी भी राजनीतिक पार्टी से जुड़े व्यक्ति को बोलने का अवसर नहीं दिया गया.
एक अनाम से संगठन ने शासन-प्रशासन को झुका दिया था. स्थानीय से राष्ट्रीय अखबारों तक में इस खबर को पर्याप्त स्थान मिला. ‘दिनमान’ में इस बारे में शेखर पाठक की रपट प्रमुखता से छपी. नैनीताल में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी लोकप्रियता पा गयी. तत्कालीन छात्र संघ भी उसके आगे असहाय हो गया.
हालाँकि उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के संयोजक शमशेर सिंह बिष्ट की इस आन्दोलन पर पूरी सहमति थी, मगर इसे चलाया पूरी तरह नैनीताल के एकदम युवा कार्यकर्ताओं ने. गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’, शेखर पाठक और राजीव लोचन साह तो इस घटना के बाद ही संघर्ष वाहिनी से जुड़े.
इस घटना ने उत्तराखंड के वन आन्दोलन को एक नई ऊर्जा और त्वरा दी, जिसका चरमोत्कर्ष हुआ उसी साल 28 नवम्बर को, जब उत्तर प्रदेश के वन मंत्री और नैनीताल के ही रहने वाले श्री चंद के हठ के कारण नैनीताल एक बार फिर पुलिस-प्रशासन के आतंक का शिकार हुआ और नैनीताल क्लब का ऐतिहासिक भवन जल कर खाक हो गया. सर्वोदयियों ने अपने आप को उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में चलने वाले वन आन्दोलन से अलग कर लिया. वह विवरण विस्तार से फिर कभी.
यह आश्चर्य का विषय है कि ‘चिपको’ या उत्तराखंड के वनान्दोलन का जिक्र करते समय 1977 के 6 अक्टूबर और 28 नवम्बर को नैनीताल में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को अनदेखा कर दिया जाता है.
विनोद पांडे का यह लेख नैनीताल समाचार से साभार लिया गया है.
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