मेरे दार्शनिक बाबूजी कहते थे, जिंदगी में सुखी रहोगे अगर ये अंदर बिठा लो ‘ये भी न रहेगा’. इस सूत्र ने मुझे सुख में उछलने न दिया. दुःख मिला तो काढ़ा बना कर इम्यून सिस्टम मजबूत करने के लिए पी लिया. रोज सपने का जागृत संसार जीते हम कभी कन्फ्यूजिया जाते हैं क्या असल … क्या सपने वाला जगत! हर आदमी में अपने मौलिक वाले डीएनए एक ही हैं, बाकी सभी डीएनए संयोग के हैं. Nostalgia and Future by Prabhat Upreti
बचपन में रोज खूब दाल-भात सपोड़ते, शाम को बासी भात-रोटी खाते अघाये रहते. कभी मीट बनता तो नली वाली हड्डी के लिए छह भाई बहन झगड़ते. कॉट्राइ की पैंट, एक बूट जिस पर विलायती कील, घोड़े की नाल ठुकी हो, जिससे चलते समय आवाज दूर से, ठक ठक आती हो, मेरा सपना था. अपने कोडेक से बर्फ में खींची फोटो को नैनीताल शाह जी के वहां से धुलवाने का क्या मजा था! Nostalgia and Future by Prabhat Upreti
जवानी में जहां मन आया, दिल लगाया. कहीं नाचा, कहीं गाया. दोस्ती लफाड़ियों से भी थी. नाटक, लेखन की सीरीज निकालता रहा. ईरान-तूरान की हांकते, कभी मारपीट भी ग्रुप में हल्की-फुल्की कर ली. चेन, निकल डेस्टर, रामपुरी चाकू, अगल बगल खोंसते हुए, क्रांति करने का सा रोमांच जिया.
खूब फिल्में बाबूजी के जेब से पैसे चोर के देखीं. उसमें बादशाह के अंगूर खाने की अदा … एक दिन ऐसा कर लेना, सपना था. अनार भी कठिन फल था. 1985 उत्तरकाशी में जब लेक्चरर था, बच्ची को अंगूर भाता था वह जिद करती तो थोड़ा हिचक होती. आज अनार, अंगूर ठेलियों में बेभाव पड़े हैं. ब्रैंडेड कपड़े, हजार चॉइस में बिछे पड़े हैं. फोटो, गाने, कम्प्यूटर में ढेर पड़े हैं. कभी भूल कर झांकते भी नहीं. ’वो अभाव था’ यह तो बहुत बाद में पता लगा. उस समय तो हम थे, हमारी दौड़ थी, हमारी दुनिया थी. कहां थकान! कहां विश्राम! जमीन आसमान हम से था. उम्र कम थी, पर खूब थी. हमारी कमजोरियां भी खूब थीं, उसमें जबरदस्त कमजोरी थी कि हमने सारे जहां को प्यार कर डाला था. Nostalgia and Future by Prabhat Upreti
आप सब ने भी तो कुछ ऐसे ही, बिंदास, अबोध खास जनम जिये होंगे ही.
एक बार कॉलेज में गहरी मार करने वाले बड़े बाबू उप्रेजी जी से पूछ बैठा, “सर! यहां भी क्या प्यार-व्यार के किस्से होते हैं!” तो सिगरेट को गहरा खेंचते बोले, “हर छत से चांद दिखता है गुरुजी! आप गाते हो … ‘दिल ढूढता है फुर्सत के रात दिन’.भटकते रहते हो, कभी फुर्सत निकालो छत में आने की.”
और आज … ! पूरी फुर्सत है बस तस्वीरे-जानां नहीं, चांद थका हारा अकेला अपने आसमान के साथ है. डर के मारे बीमार भी नहीं हुआ जाता. अहं से तने बड़े स्कूल चित्त हैं. डराते चेहरों से हीरो चेहरे उतरे हैं. क्वारंटीन सा शब्द पल्ले पड़ा है जिसकी स्पेलिंग अभी तक नहीं आयी. उत्सव प्रिय भारतीयों ने इसे उत्सव तो बनाया पर कुछ मानसिक बीमारों ने इसकी वाट लगायी. कारुणिक मौतों से दुःख हुआ पर इस असहाय दुःख का क्या करें! असल दुःखी तो वह हैं जो इसके निवारण के लिए लगे पड़े हैं. प्रेमचंद के हजार होरी के साथ, बाल मजदूरन बच्ची की मौत के दोषी अभी तक फरार हैं.
कभी लॉकडाउन टूटेगा ही, शुरू हो जायेगी हबड़तबड़, भागमभाग, कार-गाड़ी कल-कारखाने, भीड़, चीख पुकार. ऐसी-तैसी हुआ पर्यावरण. राजनीतिज्ञों के दांव पेंच में उलझेंगे हम. बिलों में घुसे पूजीपति आ जायेंगे, मुनाफे शेयर बाजार लिये. कठिन होगा समझना कि ये अच्छा था या वो !
बारूद, वायरल, आतंकी मानसिकता वाले गली गली में हैं. जिनपिंग, ट्रम्प, किम से चंद नेता ही इस सालों से हुनरमंद, संस्कृति से भरी, प्यार से भरी सहेजी, दुनिया को एक सेकंड में खत्म कर सकते हैं, यह उजागर हुआ.
इस बीच सीरियल में देखा राम राज्य में मंथरा सम्मानित हुई. घर का भेदी राजा बना. हालांकि, बाद के यथार्थवाद में मीरजफर, जयचंद की किस्मत ऐसी न रही. वह तो ठीक पर त्रिजटा के महान काम को तुलसी, राम, सीता ने क्यों भुला दिया. Nostalgia and Future by Prabhat Upreti
यह संसार शेक्सपियरन मनस की ट्रैजेडी है. पर है कि ’यह भी न रहेगा.’ अस्थायित्व, वेदना, उत्सव, चेतना का मिजाज है. आज पुरानी मस्ती इतनी बची थी कि बहुत बची रही और उसने मुझे आशीर्वाद देने लायक, ‘हमारे जमाने में’ कहने वाला बूढ़ा न बनने दिया.
पचास साल बाद हमारे बूढ़े हुए बच्चे भी अपने अतीत की मस्ती को याद करके, वर्तमान जीते, सुनहरे भविष्य के ख्वाब देखेंगे! या फिर याद, मस्ती, लिखना सा कुछ होगा नहीं! पर मनस तो वही होगा ना ! या फिर हो जायेगा वह भी चिप्स लगा रोबोट ! फिक्र लगती है.
–प्रभात उप्रेती
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किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.
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