घर में सब ठीक ही है, कोई सगा मरा भी नहीं है और ऐसा कहीं कोई धन-सम्पदा सम्बन्धी भारी नुकसान भी नहीं हुआ है. पर फिर भी इस बार ये दिवाली मेरी नहीं है. दिवाली परायी हो चुकी है, ये हो चुकी है, NRP’यों की! (Non Residential Pithoragarian in Pithoragarh)
जी हाँ, NRP यानी नॉन रेजिडेंशियल पिथौरगढ़ियन (Non Residential Pithoragarian), ये हमारे शहर पिथौरागढ़ के वो संभ्रांत लोग हैं, जो बड़े-बड़े शहरों, उपनगरों जैसे देहरादून, दिल्ली, बैंगलोर आदि-आदि जगहों में काम या पढाई करते हैं. ये लोग किसी खास मौके पर या किसी तीज त्योहार पर ही दिखाई देते हैं. इन बड़े-बड़े शहरों में रहते हुए, ये बेचारे बस फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के जरिए ही, इस छोटे से शहर को मिस और लाइक कर पाते हैं. (Non Residential Pithoragarian in pithoragarh)
बहरहाल दिवाली आ चुकी है और शहर में NRP’यों की बाढ़ आ चुकी है. रोडवेज़ की बसों को कोसते हुए, फेसबुक और वाट्सएप्प पर ‘कमिंग पिथौरागढ़’, रीच्ड दन्या, पनार, घाट, गुरना जैसे अपडेट करते हुए, ये लोग अपने इस शहर में पधारते हैं. और ईमानदारी से कहूँ तो इन NRP’s का इंतजार तो हम लोकल्स को भी होता ही है. क्योंकि इनमें से कई अपने दगडिया होते हैं. कई नौकरीपेशा ऐसे लोग होते है जो हमसे ज्यादा हमारे परिवारों वालों के लिए जिन्दा आदर्श का काम करते हैं और कई ऐसी बालिकायें होती हैं जिनका हमें बेसब्री से इंतजार रहता है. इन बालिकाओं और हमारे बीच बस ये रिश्ता होता है कि भूतकाल में इनके साथ पढ़ते हुए भी हमने इनसे कभी भी बात नहीं की हुयी होती है.
चलिए दिवाली आ ही गयी फिर. और शाम होते होते ठण्ड भी लगने ही लगती है. मैंने भी दीवान के एक कोने से अपनी सारी पुरानी जैकेटों में से सबसे नयी वाली निकाल डाली. ये जैकेट ब्रांडेड तो नहीं है, धारचूला नेपाल से ली थी, पर हाँ ठण्ड के खिलाफ ये ठीक-ठाक साथ दे देती है.
बाज़ार को जाने लगा तो ईजा ने नई एल.ई.डी. लाइट्स साथ लेते हुए आने को कहा, बात सुन एक बार तो लगा की अनसुना कर दूँ, पर दिवाली है, घर पर बैठा हूँ, तो चाह कर भी अनसुना न कर सका और ‘ले आऊंगा’ कह कर मैं सिमलगैर बाज़ार की ओर चल दिया.
आज बाज़ार में बहुत चहल-पहल है. बाज़ार जगमगा रहा है. सब ही खरीद और बेच रहें हैं, सब नया है शायद. इन सब के बीच कोई भी रिपेयर करने को तैयार नहीं है, मेरा ख़राब मोबाइल, उधड़ी जीन्स अब सब दिवाली के बाद ही ठीक हो पाएंगे.
लोगों की उस भीड़ में, चेहरों को पहचानने की कोशिश में, आंखिरकार, ठीक मेघना रेस्टोरेंट के साथ लगे नए एटीएम से कड़कड़ाते नोट निकालता एक पुराना कालेज का दोस्त मिल ही गया. अपने ब्रांडेड कपड़ों धमक और डीयो की महक में अपना भाई क्या फाड़फड़ा रहा था. वो बार-बार अपने नए फ़ोन में कोई मैसेज या अपडेट देख रहा था.
मिलने को मैं उत्सुक था, सो मैंने जोर से उसको आवाज लगायी पर शायद उसने उस कम शोर में सुना नहीं. इससे पहले की वो कहीं निकल पड़ता मैं दौड़ कर उसके पास जा पहुंचा – ‘और बेटा कैसा है’ बोल गले मिलने लगा. और शायद यही मैंने कुछ गलत कर दिया, वो मुझ को कुछ-कुछ पहचाना और फिर मेरे याद दिलाने पर पहचान ही गया और बोला – ओह सॉरी. काफी टाइम हो गया और ठीक है. कुछ असहजता महसूस की मैंने, और थोड़ी सी कसमसाहट के साथ मैं पूछ बैठा – और कब आया ? कब तक है ? कहाँ है ? क्या कर रहा है और आखिरी सवाल और क्या चल रहा है, (जिसका शायद ही कोई जवाब होता है)
उसके उत्तर देते समय उसकी शक्ल देख कर लगा जैसे उसने पिथौरागढ़ आने के बाद कम से कम सौ बार इन प्रश्नों का उत्तर दे दिया हो. मुझ को भी संक्षेप में उत्तर मिले, जिनको मैं अब भूल भी चुका हूँ. पर अब उसकी बारी थी और उसने पुछा – ‘और तू सुना तेरा क्या चल रहा है? तू यहीं हैं न शायद?’
अब मैं क्या कहता – अपनी सारी डिग्रियों, बी.एड, एम्.एड की उपाधियों के साथ हाँ मैं इस ही शहर में हूँ. ट्युशन करता हूँ, कभी-कभी जुगाड़ लगता है तो संविदा में सरकारी विभागों में ख़ाक छानता हूँ और हाँ कुछ हज़ार के लिये ही सही पर शहर के कई नामीगिरामी स्कूलों में पढ़ा भी चुका हूँ. इतना कुछ करते हुए भी मैं यही कह पाया – “अरे हमारा क्या है यार यहीं लगे हैं, कहाँ जायें, लाइफ तो तुम लोगों की है, यार”
इसी बीच एक दुसरे NRP ने एंट्री मारी वो बंगलौर से पधारा था, फिर क्या था सिर्फ दिल्ली और बंगलौर की बातें थी, उनके बीच मैं और मेरा शहर पीछे छूट से रहे थे, सो मैं हैप्पी दिवाली कह कर कट लिया.
आगे भट्ट जी की दुकान तक कुछ और चेहरे दिखे, कुछ ने पहचाना कुछ ने पहचान के भी अनजान जैसा कर दिया. कुछ चिढ़ता, कुडबुडाता सा मैं चाय और सिगरेट की तलब के चलते भट्ट जी की दुकान के अन्दर पहुंचा – माहौल यहाँ भी कई रंगीन था. चाय की टेबल पर लेटेस्ट मोबाइल हैंडसेट और गैजेट्स की असली दुकान तो यहाँ लगी हुयी थी, और मुझ जैसों के लिए तो सच ये था कि मैं इनमें से किसी भी मॉडल को नहीं पहचानता था. सिगरेट की कशों और चाय की चुस्कियों के बीच देहरादून, दिल्ली, बंगलौर आदि शहरों की हवायें चल रहीं थी, वैसे इनमें से कुछ एक शहरों में तो मैं भी गया था, पर कभी लगा नहीं की वहां इतना कुछ ख़ास है बात करते रहने को पर हाँ, मैं सिर्फ़ वहां गया था और ये सब लोग अब वहीं रहते हैं, सो कुछ तो होगा इन बड़े-बड़े शहरों की जिंदगियों में जो मैं न देख-समझ पाया.
इन सब के बीच हद तो तब हो गयी जब, भट्ट जी और उनके चेले ने भी हमको ‘मू’ नहीं लगाया, साला चार बार चाय आर्डर की, पर मजाल जो कोई सुन दे, आज पूरा माहौल NRPमय था. लोकल की सुनने वाला कोई नहीं था.
मन ही मन भट्ट जी को गाली दे, बेटा दिवाली के बाद कहाँ जायेगा, तब देखूंगा वाली बदले की भावना के साथ में रामलीला ग्राउंड की और बढ़ चला. उस नगरपालिका चौराहे और रामलीला मैदान के बीच की छोटी से दूरी में भी कई NRP मुझ को मिले पर कोई न पहचाना इस लोकल को, और यकीन मानियेगा ये सभी मेरे फेसबुक फ्रेंड हैं और पिथौरागढ़ की मेरी हर खिंची फोटो पर प्रथम लाइक व मिसिंग पिथौरागढ़, हेवन ऑन अर्थ, माय पिथौरागढ़ आदि-आदि किस्म के कमेंट इन्हीं के होते हैं.
NRP सिंड्रोम या कहिये NRP फोबिया से डरा, कुंठित मैं पंहुचा रामलीला की उन सीड़ियों पर, जहाँ इंतजार कर रहे थे, मेरे ही उम्र के कुछ और लोकल. जहाँ कल तक अँगुलियों में झूलती हुयी सिगरटों और गाली-ग़लोच के बीच एक मस्ती का माहौल होता था, आज वहां एक दबी हुयी सी ख़ामोशी थी. आज सभी का परिस्थितियों से लड़ने जोश गायब था, बस एक दूसरी की उँगलियों के पोरों को छुआ कर हैलो-हाय हुआ और फिर एक-एक कर जब सब बोलना शुरू हुए तो सबने खूब बोला, खूब-खूब बोला कई गालियाँ बकी और तोड़ डाला उस ख़ामोशी को.
फिर जब कुछ शांति छाई तो एक बोला – “ ओये, कल से ले के भैयादूज तक कोई मार्केट नहीं आएगा बे”
आज तक शायद ही कोई ऐसा विषय रहा होगा जिस पर हमने बहस न की हो, लेकिन आज ये हम सभी को निर्विवाद रूप से स्वीकार्य था. कुछ देर बाद दिवाली की जगमगाहटो की चकाचौध से बचते ये साए गायब हो गए.
– मनु डफाली
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पिथौरागढ़ के रहने वाले मनु डफाली पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हरेला सोसायटी के संस्थापक सदस्य हैं.
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2 Comments
वीरेंद्र विष्ट
बहुत गहराई से उकेरा है आपने लोकल और NRP की मनःस्थिति और उनके बीच के सामाजिक सरोकार को।
पर सभी तथाकथित NRP (या अन्य जगह के प्रवासी) एक जैसे नहीं होते।
मैं भी एक उत्तराखंडी प्रवासी हूँ और दिल्ली में रहता हूँ। जनम अल्मोड़ा म् हुआ पर पढ़ाई के लिए पिताजी दिल्ली ले आये, माँ भई बहन गांव में थे पहले, बाद में सभी को दिल्ली ले आये पिताजी। कक्षा4 या 5 तक मैं अकेला रहा दिल्ली में, पर हर साल गर्मियों की छुट्टियाँ गांव में बीते, और ईन 2-2 महीनों में गाँव से जितना जुड़ सका, जुड़ा। कुमाऊनीबोली, रीति रिवाज, गीत, आदि। गाय बैल के ग्वाला जाना, मछली पकड़न, गधेरों में बने खाल में तैरण, पेड़ो पँर चढ़ कर कच्चे आम चोरी से खाना और गाली मांगना। सब कुछ तो किया। गांव में जो दोस्त थे वे मेरी छुट्टियों में गांव आने का ििइंतजर करते। पढ़ाई अलग हुई पर कोई भेद नहीं था। बाद में वे सब भी अपने अपने कामों गृहस्थी में रम गए। ज्यादातर वे भी प्रवासी हो गए। अब भी बचपन के उस गांव को ढूढ़ता हुन पर अब वो मिलता नहीं। जो 1 2 दोस्त में हैं उनसे मिलना होता है। पँर अब वे भी बदल गए है या यों कहें अपनी जिंदगि अपनी गृहस्थी, मज़बूरियों में उलझे है और हम अपनी में उलझे हैं। गांव जब भी जाता हूँ तो वो सब तो है नहीं, एक खालीपन और भर जाता है मन में। बस दिल में एक ही इच्छा है कि जिंदगी का आखिरी पड़ाव, चाहे कुछ भी हो, गांव में ही गुजरना है।
Kamlesh
Excellent . Amaze to see the depth . Kudos . All the best .