जो भागी जियाला ईजू नौ रितु सुण ल वे गयो रे मनखा ईजु काँ रितु सुणौ ल वे
जब ये रचना रची गई होगी तब रचनाकार ने बहुत आगे की दुनिया देख ली होगी. संभव है आज की दुनिया भी. चैती के बोल जब कानों में घुलते हैं तो ये हिया में मिठी सी एक कसक घोल देते हैं. आज कुमांऊ आंचल की बेटी, बहन, बहू, मां उदेखी गई हैं, भाई और ईजा-बाबू भी व्याकुल हैं. चैत का महिना बहन-भाई के बिना मिले ही निकल सा गया. इस बरस का चैत बिना भिटौली के ही बीता जा रहा है. कोरोना ने तो किसी को नहीं बख्शा. कुमाऊँ अंचल में भाई-बहिन सबसे बड़ा त्यौहार यों ही निकल गया. No Bhitauli this Year in Kumaon
वरिष्ठ पत्रकार, रंगकर्मी श्री नवीन बिष्ट ने बताया कि भिटौली की परंपरा स्हेन की परंपरा है. भाई-बहन के प्रेम के नाम शायद ही एक पूरा महिना दुनिया में कहीं और होता हो. वे आगे बताते हैं, “चली आ रही कहानी के अनुसार चिर काल में एक बहन बहुत दूर ब्याही थी. ईजा के कहने पर उसका भाई लम्बे समय के बाद अपनी बहन से मिलने गया. लम्बी दूरी पैदल चलने के बाद देर शाम बहन के घर पहुंचा. तो देखा बहन थकी-हारी सो रही थी. भाई सिरहाने बैठ बहन के जागने की प्रतीक्षा करने लगा. सुबह-सबेरे मां की चिंता में बेटा ईजा की भेजी भेंट पूरी, धोती और मिठाई बहन के सिरहाने रख घर को वापस चल दिया. No Bhitauli this Year in Kumaon
बहन जब जागी तो उसने सिरहाने रखी तमाम भेंट देखी, तो व्याकुल होकर अपने भाई को खोजने लगी. जब भाई नहीं मिला तो बेसुध हो कहने लगी वो अपने भाई से मिल नहीं पाई और उसे एक बूंद पानी का भी नहीं पिला पाई. उसका भाई भूखा प्यासा ही चला गया. मैं अभागी उसे नजर भर देख भी नहीं पाई. भाई के वियोग में बहन के प्राण चले गए. अभागी बहन का भाई लम्बी पैदल यात्रा और भूखा प्यास के कारण घर भी नहीं पहुंच पाया, रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई. भाई-बहन इस अनोखे प्रेम से पैदा हुई है भिटौली की पंरपरा. No Bhitauli this Year in Kumaon
आज वक्त की पगडंडियों में भिटौली (कुछ स्थान में आव भी बोलते हैं) ने भी अपने स्वरूप को थोड़ा बदला है. मीठी पूरियों को स्थान अब लड्डू और पेड़ों ने ले लिया है. डाला या छापरी की जगह अब बैग है. पैदल रास्ते नापना अब कम ही हो गया. वक्त के साथ सड़कों का जाल भी फैल गया है. भिटौली की अपनी एक पूरी अर्थ व्यवस्था है जो इस बरस कोरोना ने चैपट कर दी है. पहाड़ों के छोटे-छोटे मिठाई के दुकानदार को दिपावली से ज्यादा चैत का इंतजार रहता था. पूरे महीने उनको मिठाईयों के आर्डर मिलते हैं. वहीं बहिनों को कपड़े देने की परंपरा के चलते कपड़े वालों के चेहरे भी खिले रहते हैं. इस साल सब निराश हैं, अपने-अपने घरों में कैद हैं.
जो लोग पूरियां ही देते हैं उनके घरों में पूरी बनाने के लिए जुटने वाली महिलाऐं भी आज खामोश हैं. ग्रामीण आंचलों में आज-कल काम की मारा-मार कम होने से वो एक जुट हो दुखौल-सुखौल (सुख-दुख की बातें) कहती थी. मिल कर पूरियां बनाती थीं. इस विपत्ति ने सब कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया है. महिलाएं एक-दूसरे के घर जाने से कतरा रही हैं. No Bhitauli this Year in Kumaon
श्रीमती पनुली देवी की शादी को 43 हो गए हैं. जब वो 15 बरस की थी ब्याह के ससुराल आ गई थी. तब से बिना नागा चैत में उनकी भिटौली आती रही है. पहली बार है की उनकी भिटौली नहीं आई. वो बताती हैं कि पहले वो बड़ी शान से खुद भिटौली बांटने घर-घर जाती थी. अब बहुयें जोड़ ली हैं तो पूरे गांव में भिटौली बांटने उनको ही भेजती हूँ. इस बरस तो कलयुग आ गया. न जाने कैसी आग लगी बीमारी आई कि घर से निकलना ही बंद हो गया है. खैर अगले बरस की भिटौली में दो नहीं चार लड्डू बांटूंगी.
–दिग्विजय बिष्ट
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दिग्विजय बिष्ट ने पत्रकारिता की शुरूआत टीवी 100 रानीखेत से की. न्यूज 24, डीडी न्यूज होते हुए कई इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में उन्होंने काम किया. बाद में अमर उजाला के बरेली संस्करण के न्यूज डेस्क पर काम. दिल्ली मीडिया में साल भर काम किया. वर्तमान में आल इण्डिया रेडियो, आकाशवाणी अल्मोड़ा से जुड़े हैं.
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