श्यूं-बाघ? द ऽ, श्यूं-बाघों के तो किस्से ही किस्से ठैरे मेरे गांव में. मुझे जैंतुवा ने कई बार रात में जंगल से आती ‘छां’ फाड़ने की गज्यांठि की जैसी घुर्र, घुर्र, घुर्र की आवाज सुना कर बताया, “ददा, बाघ बासनारो.” पहाड़ के गांव में थे तो बकरियां और कुत्ते चुराने वाले वे छोटे-मोटे बाघ सचमुच मट्ठा मथने की फिरकी की तरह ही घुर्राते थे. लेकिन, सर्दियों में जब हम श्यूं-बाघों के असली इलाके मतलब अपने सर्दियों के गांव ककोड़ जाते थे और भुंयारे यानी एक ही तल्ले के कोप के पत्थरों से बने अपने मकान या घास-फूस के मजबूती से बने बड़े से गोठ में रहते थे तो रात को पास ही से निकलती कच्ची सड़क पर, साज के पेड़ के सामने, उध्योंन के बड़े पत्थर के पास रूक कर दहाड़ते श्यूं की दिल दहलाने वाली आवाज सुनते रहते थे… आ..ऊ ऽऽऽ. टांड़ यानी दुछत्ती में सोए हुए हम तो सहम ही जाते थे, नीचे सो रही हमारी गाय-भैंसें भी सिहर उठती थीं. न हम मुंह से कोई आवाज निकालते थे, न हमारी गाय-भैंसें. वे तो बस परेशान होकर दांए-बाएं सिर हिलातीं या डर कर थोड़ी देर खड़ी हो जाती थीं. श्यूं शायद गोठों की ओर से आती जानवरों और आदमियों की मिली-जुली गंध सूंघ कर जता जाता था कि मुझे पता है तुम लोग यहां हो. फिर आगे कनौट की संकरी गीली गली से होकर उस पार के जंगलों में चला जाता था. अगली सुबह गीली मिट्टी में बड़े-बड़े खोज देख कर पता लग जाता कि रात में सड़क से कौन गुजरा. श्यूं अकेला था या उसका पूरा परिवार भी साथ था, या केवल मादीन अपने बच्चे लेकर जा रही थी-सब कुछ पता लग जाता.
आगे शाल, शौंर्यां और भेष आदि के पेडों का जंगल था. मैंने शाल के वे ऊंचे पेड़ देखे थे, जिन पर शिकारियों के लिए मचान बांधा जाता था ताकि रात में अगर श्यूं कनौट से निकले तो उनकी बंदूक की ज़द में आ जाए. पता नहीं, उन शिकारियों को कोई श्यूं मिला या नहीं.
उन दिनों, कालाआगर से ककोड़ तक यानी मेरे दोनों गांवों के बीच आदमी और श्यूं-बाघों के जीने की जंग जारी थी. दोनों अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे थे. कभी पलड़ा एक ओर झुकता तो कभी दूसरी ओर. कभी शेर जीतता, कभी आदमी. आप विश्वास करेंगे, एक बार गांव के ही मेरे एक रिश्तेदार पहाड़ में हमारे घर में आए. खाना बना. उन्हें खाने के लिए बुलाया. चीड़ के छ्योंल (छिलके) के हलके उजाले में मैं देख रहा था, वे रोटी का ग्रास चबाते और गले पर हाथ रख कर निगल लेते. ठुलि भौजी ने पूछा, ”क्या हुआ? ऐसे क्यों खा रहे हैं?“
वे बोले, ”कुछ नहीं, श्यूं ने दाड़ दिया था. असत्ती दुश्मन ने गला फाड़ दिया!“ शेर के नाखूनों से उनके गले में छेद हो गया था! पता लगा, वे जैराम दा थे.
बकण्या गांव के सोबन सिंह अपनी सैंनी (पत्नी) को श्यूं के पंजों से छुड़ा लाए ठैरे. श्यूं उनकी सैंनी को नीचे की ओर घसीटता और वे ऊपर को खींचते. आखिर श्यूं हार गया. उनकी न जाने कितनी गाय-भैंसें श्यूं ने मार दी ठैरीं. वे दिन थे, जब माल-ककोड़ निपट जंगल हुआ. तब गिने-चुने परिवार ही वहां रहते थे.
और, टकार के रमदा? रमदा तो अपनी घिंगारू की लाठी से श्यूं को पीट-पीट कर घायल श्याम सिंह को छुड़ा लाए ठैरे! गाजा से अद्वाड़ को जाने वाली सड़क आगे चल कर दो-फाट हो जाती थी. एक रास्ता अद्वाड़ को जाता था और दूसरा हल्द्वानी को वाया हैड़ाखान. घने जंगल से गुजरते अद्वाड़ के रास्ते में तो श्यूं ने न जाने कितने लोग मारे ठैरे, लेकिन उस दिन वह दो-फाट से थोड़ा आगे झाड़ी में घात लगा कर बैठा होगा. आगे-आगे राम सिंह, बीच में घोड़ा और पीछे श्याम सिंह. हल्द्वानी जा रहे ठैरे. उसने उन तीनों को आते हुए देखा होगा. पास आते ही उन पर छलांग लगाई और श्याम सिंह को दबोच लिया. श्याम सिंह की चीख से घोड़ा बिदका और राम सिंह ने पीछे पलट कर देखा. देखा कि श्यूं श्याम सिंह को घसीट रहा है. कोई और जैसा होता तो शायद डर कर भाग जाता. लेकिन, वे डर कर नहीं भागे. बस, लाठी उठाई और टूट पड़े श्यूं पर. ले दनादन, ले दनादन. राम सिंह मजबूत काठी के आदमी थे. श्यूं सह नहीं पाया उनकी लाठी की मार. दहाड़ मार कर झाड़ियों में घुस गया. राम सिंह ने बुरी तारह घायल श्याम सिंह को उठा कर घोड़े की गून पर बैठाया और 6-7 मील दूर गांव की ओर वापस लौट पड़े. गांव में ही देशी दवा-दारू की. श्याम सिंह के घाव भर गए और कुछ समय बाद वे ठीक हो गए. श्यूं से भिड़ने वाले रमदा और उसके पंजों से बच कर आए श्याम सिंह पूरी उम्र जिए.
माल-ककोड़ के श्यूं-बाघों के तो इतने किस्से हुए कि आप पूरी रात सुनते रह जाएंगे. आदमी और जंगली जानवरों की जिंदगी की लड़ाई ठैरी. जो जीत गया, जी गया. उन दिनों वहां घनघोर वन थे और वनों में हर तरह के जंगली जानवर थे सूअरों से लेकर हिरन और श्यूं-बाघ तक. गांव के लोग जानवर चराने जंगल जाते और श्यूं कई बार वहीं किसी गाय-भैंस का शिकार कर देता. बस, यहीं से दुश्मनी ठन जाती. गांव में दो-एक भरवां बंदूकें होती थीं. उन्हीं से कई बार रात-बिरात घात लगा कर लोग श्यूं-बाघ पर फायर कर देते. अक्सर वह घायल हो जाता और पालतू जानवरों या आदमी का शिकार करने लगता. बूढ़े बाघ भी पालतू जानवरों को मारते या आदमखोर हो जाते. लोग कहते थे, कुछ लोगों को तो जंगल में तरूड़ खोदते-खोदते खाड़ (गड्ढ़ा) में ही श्यूं ने दबोच लिया था.
लेकिन, रहना तो उन्हीं के बीच था. क्या करते? याद करके दुखी होते रहते. एक ही बात ध्यान में रहती कि इस दुश्मन ने मेरे इतने जानवर मारे या इलाके के इतने लोग मारे. श्यूं-बाघ मारना जुर्म था. जुर्माना और सजा हो सकती थी. इसलिए गांव के लोगों ने श्यूं-बाघ से छुटकारा पाने का अपना अलग रास्ता निकाल लिया. वे ‘जिबाला’ सिलाने लगे. गजब की चीज थी, जिबाला. हम बच्चों ने उसका छोटा नमूना बनाना सीख लिया था. बड़ों ने ही सिखाया. आलू, पिनालू के खेतों में भी सौल मारने के लिए जिबाला सिलाते थे. वही बड़े आकार में श्यूं मारने के लिए बनाया जाता. जिबाले में तिकोन की तरह तीन मजबूत लट्ठे बांधे जाते. बीच में डंडियां और पटरे बांधते. एक मजबूत लट्ठा त्रिकोण के सिरे में फंसाया जाता. उसके पीछे मजबूत डोरी के साथ एक गिल्ली बांधी जाती. उस गिल्ली को फंसाने की ‘किदल’ यानी युक्ति में ही जिबाले का असली हुनर छिपा होता था. जिबाले के पूरे तिकोन को आगे से उठा कर, उसे पीछे तक जा रहे मजबूत लट्ठे के नीचे टेक पर टिकाते, तिकोन की पीठ पर भारी-भरकम पत्थर रखे जाते और पीठ पर बंधी गिल्लियों के बीच ऊपरी डंडे की गिल्ली फंसा दी जाती. इस तरह कि नीचे की गिल्ली पर मारे हुए जानवर से बंधी रस्सी अगर जिबाले के भीतर से जरा भी खींच दी जाती तो जिबाला अपने पूरे वजन के साथ धम्म से जमीन पर आ गिरता. जिबाला सिलाने वाले उसके चारों ओर हलका गड्ढा-सा बना देते और श्यूं के मारे हुए जानवर का बचा-खुचा हिस्सा निचली गिल्ली के सहारे लटका देते. रात को श्यूं दबे पांव अपने मारे हुए शिकार के पास आता. अगर आदमी की कुड़बुद समझ गया तो वापस लौट जाता. लेकिन, अगर भूखा हुआ और शिकार का मोह नहीं छोड़ पाया तो धीरे से जिबाले के नीचे जाकर शिकार को खींचता और दब कर खुद शिकार हो जाता.
गांव के लोग कहते थे, एकाध बार तो ऐसा हुआ कि श्यूं आया भी और समझ भी गया. फिर भी चालाकी दिखा कर बगल से पंजा डाल कर शिकार खींचने की कोशिश की होगी. तभी, जिबाला गिरा होगा और तिकोन के मजबूत लट्ठे के नीचे श्यूं के पंजे दब गए. छूटना तो संभव था ही नहीं, चीखता, चड़फड़ाता वहीं फंस गया. कहते हैं, एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि श्यूं जिबाले के भीतर आया, देखा-भाला और धीरे से हाथ लगाया. गिरते जिबाले से एकदम बाहर छलांग लगाई, लेकिन पूंछ पकड़ में आ गई. जड़ से ही जिबाले के नीचे दब गई. पूरा श्यूं बाहर, पूंछ अंदर. अगले दिन लोगों ने देखा तो सिर पर पैर रख कर भागे. वापस लौटे तो देखा अधमरा श्यूं फिर वहीं. तब मामला समझ में आया.
लोगों का कहना था, बाद-बाद में जिबालों की जरूरत खतम हो गई क्योंकि जंगलात विभाग श्यूं-बाघ पकड़ने के लिए लोहे के मजबूत पिंजरे लगाने लगा. दो तरह के पिंजरे होते थे- एक कमरे और दो कमरे वाले. एक कमरे वाले में शिकार या चारा बांध दिया जाता. श्यूं आता और शिकार के लालच में ज्यों ही भीतर जाता तो उसका गेट गिर कर बंद हो जाता. वह लाख सिर पैर मारे लेकिन लोहे की उन मोटी-मजबूत छड़ों से बने पिंजरे से बाहर नहीं निकल सकता था.
दूसरी तरह के पिंजरे के बीचों-बीच में लोहे की मोटी छड़ों का पार्टिशन होता था. पिंजरे के पीछे के कमरे में कोई आदमी बैठता जिसे इस काम के लिए पैसे मिलते थे. वह आगे के कमरे में श्यूं आ जाने पर बैठे-बैठे ही उसका आगे का लोहे का फाटक गिरा देता. गिरते ही आगे का कमरा बंद हो जाता. पिंजरा जंगल में या श्यूं-बाघ के सुनसान रास्ते में रखा जाता था. उसके भीतर बैठने के लिए बहुत हिम्मती आदमी चुना जाता था जिसका हो-हल्ला या चीख-पुकार सुन कर श्यूं-बाघ आए और उसके लालच में पिंजरे में फंस जाए. मगर, ऐसे मजबूत कलेजे वाला आदमी कहां से आए जो रात के सन्नाटे में श्यूं-बाघ का चारा बनने का स्वांग कर सके?
लोग कहते थे – झाझ्, खुड़ानी के इलाके में डर-भर हुई ठैरी. श्यूं वारदात कर चुका था. उसे पकड़ने के लिए दो कमरों वाला लोहे का पिंजरा आ गया. उसमें बैठने के लिए मजबूत कलेजे वाले आदमी की ढूंढ-खोज शुरू हुई. वहीं आसपास कुछ डोटियाल यानी नेपाली मजदूर भी काम कर रहे थे. एक डोटियाल ने सुना तो बोला, बल, “हुजूर, मैं भैटन्या छ.”
जंगलात के आदमियों ने पूछा, “तुम? तुम बैठोगे? डरोगे तो नहीं?”
“नैं हुजुर, मैं त नैं डरन्या छ. हां, श्यूं से भी जरूर पुछ लेना हुजूर!” हंसते हुए जंगबहादुर ने कहा. फिर पूछा, “रुपिया तो टैम पर मिल जाएगा न हुजर?”
“बिलकुल मिल जाएगा. तुम्हें लोगों की दुआ भी मिलेगी. श्यूं फंस जाने पर बहुत लोगों और मवेशियों की जान बच जाएगी.”
“मैं राजी छ हुजुर.”
“तो ठीक है जंग बहादुर. आज की रात तुम पिंजरे के इस पीछे के कमरे में बैठोगे. तुम्हें कुछ नहीं होगा. श्यूं तुम्हारे पास तक पहुंच ही नहीं सकता. रात में तुम्हें कुछ न कुछ बोलते रहना पड़ेगा. चाहो तो गीत भी गा सकते हो.”
“हुजुर श्यूं का सामने त ठुला-ठुला लोगों का गीत बंद ह्वै जान्या भयो. लेकिन, फिकर नहीं, जंग बहादुर जरूर गाएगा.”
“अगर आज की रात श्यूं नहीं आया तो दो-तीन रात बैठना पड़ सकता है. समझ लो तुम्हारी आवाज सुन कर उसे आना है.”
“ठीक छ. मैं एता बैठन्या भयो.”
बैठा, जंग बहादुर रोज-रोज की ध्याड़ी के बदले एकमुश्त रकम कमाने के लिए पिंजरे में बैठ गया. रात घिरने के बाद वह पिंजरे में जोर-जोर से बोलने लगा. बीच-बीच में कभी ‘नेवल्या ऽऽ’ की टेक पर नेपाली गीत गाने लगता.
लेकिन, रात बीत गई. श्यूं नहीं आया. अगली दो रातें भी खाली गईं. जंग बहादुर की हिम्मत बढ़ गई. मगर चौथी रात जब वह अपने ही सुर में डूब कर गा रहा था तो अचानक ‘आ…ऊ ऽऽऽ’ की दिल को चीर देने वाली आवाज और लोहे की छड़ों के पार्टीशन पर जबर्दस्त झन्नाटे से झनमना कर उठ खड़ा हुआ. अंधेरे में मुंह के सामने मौत खड़ी थी. मौत ने उसे पकड़ने के लिए पार्टीशन पर झपट कर फिर पंजे मारे. अंधेरे में उसकी आंखें चूल्हे के तपते अंगारों की तरह चमक रही थी. तभी, जंगबहादुर को होश आया कि फाटक गिराना है. उसने फाटक गिरा दिया. श्यूं पिंजरे में बंद हो गया. अब मौत और उसके बीच बस लोहे की छड़ों की रुकावट थी. श्यूं फिर दहाड़ा और जंग बहादुर का मजबूत कलेजा कांप उठा. वह धीरे-धीरे बेहोश हो गया. होश में आता और सामने मुंह फाड़े मौत को देखता.
वह गला फाड़ कर चीखता, “बचाओ! बचाओ! श्यूं खै (खा) दिन्या छ! हुजुर, बचाओ!” और, चीखते-चीखते फिर बेहोश हो जाता.
सुबह भी होश में आया जब चारों ओर लोगों की आवाजें सुनीं. धीरे से उठा और एकटक हवा में ताकने लगा. फिर उसे अचानक जैसे कुछ याद आ गया और वह जोर-जोर से चीखने लगा, “खै दिन्या छ! खै दिन्या छ! बचावा! बचावा!” चीखने के बाद फिर एकटक हवा में ताकने लगा. चारों ओर आदमी थे, लेकिन वह किसी की ओर नहीं देख रहा था. मूर्ति की तरह बैठा था. लगता था, जैसे उसे पता ही नहीं था कि वहां और आदमी भी हैं. वह बहुत डर गया था और गहरे सदमे में था.
उसे पिंजरे से निकाल लिया गया. श्यूं को भी पकड़ कर कहीं और भेजने की तैयारी की जाने लगी. जंग बहादुर किसी से कुछ नहीं बोला. बस, वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद चीख उठता, “खै दिन्या छ! बचावा! बचावा!” फिर हवा में ताकने लग जाता. कुछ लोग उसे साथ लेकर अस्पताल में दिखाने के लिए चल पड़े. अस्पताल उन जंगलों से बहुत दूर था. लोग कहते थे, जंग बहादुर वहां पहुंचने तक बीच-बीच में उसी तरह चिल्लाता रहा, ”बचावा! बचावा! खै दिन्या छ!“
रनजीत सिंह जी के कई जानवर मार डाले थे श्यूं ने. उनकी और श्यूं की लाग लग गई. गांव के लोग कहते थे, श्यूं उनकी गाय-भैंसों की घंटियों की आवाज तक पहचानता था. वे जंगल में जानवरों को बुलाने के लिए ‘टेल’ (टेर) भी नहीं दे सकते थे क्योंकि श्यूं उनकी भी आवाज पहचानता था और बदला लेने पहुंच जाता था. कहते हैं, एक बार तो वे आमने-सामने मुकाबले में श्यूं की पूंछ काट कर ले आए थे!
और, नैथन गांव के शेर सिंह जी पूंछ काट कर तो नहीं लाए लेकिन बकरी दबोचने की फिराक में गोठ के दरवाजे पर टकटकी लगाए बाघ को उन्होंने पूंछ से पकड़ कर, बाहर जरुर छटका दिया था! घर में दो दरवाजे थे- इधर और उधर. उनके ठीक नीचे गोठ के दरवाजे थे. गोठ में बकरियां थी. उनकी बास चिता कर, मतलब गंध महसूस करके बाघ चुपचाप आकर ऊपर दरवाजे के सामने किसी बकरी की ताक में बैठ गया. दूसरे दरवाजे से शेर सिंह जी की नजर पड़ी.
वे भीतर ही भीतर दबे पांव बाघ के पीछे पहुंच गए. जब तक बाघ कुछ समझे, उन्होंने कस कर उसकी पूंछ पकड़ ली और एक ही झटके में चौतरे से बाहर छटका दिया, बल.
एक ओर श्यूं-बाघ का इतना डर-भर और दूसरी ओर इसी डर में मेरे गांव के लोगों के जीने का जीवट. डर-भर को हलका करने के लिए वे कैसे-कैसे किस्से गढ़ लेते थे! आखिर जीना तो वहीं था-उन्हीं श्यूं-बाघों के बीच. तो, हंस-बोल कर ही क्यों न जी लिया जाए? इसलिए ऐसे किस्से भी खूब चल पड़े.
एक किस्सा कुछ यों था…
उस साल डर-भर हुई ठैरी. फिर भी उस आदमी को चोरगलिया से ऊपर गांव लौटने में हो गई देर. नंदौर नदी का रौखड़ पार कर रहा था तो दूसरी ओर से छिप-छिपा कर आते, पीछा करते श्यूं पर नजर पड़ गई. अब क्या करता? कछ कदम आगे चल कर फटाफट पेड़ में चढ़ गया. वहां दुफंगिया (दो शाखा) में आराम से बैठ गया. सामने रास्ते की ओर देखा. वहां श्यूं का कोई अता-पता नहीं. अचानक नीचे पेड़ की जड़ पर नजर पड़ी. वहां बैठ कर श्यूं जीभ से पंजे चाट रहा ठैरा! अरे, अब क्या हो? बहुत देर हो गई. लेकिन, श्यूं वहां से हिला नहीं. सोचता होगा, कभी तो उतरेगा! समय काटने के लिए जेब से सुलपाई (चिलम) निकाली, सुरकौन्या थैली में से तमाखू निकाला और सुलपाई में भरा. डांसी पत्थर के टुकड़े पर ठिनका घिस कर ‘झूला’ जलाया, तमाखू में आग टेकी. दो-चार कस मारे और तमाखू पीने लगा. श्यूं टस से मस नहीं हुआ… अब क्या हो? आसपास कोई आदमी नहीं. दिन ढल रहा ठैरा. कुछ देर बाद फिर सुलपाई भरी, तमाखू पिया. श्यूं फिर भी वहीं… तीसरी बार फिर तमाखू भरा, पिया और श्यूं को देखते हुए तने पर खट-खट सुलपाई टटक्याई… अचानक देखा, श्यूं सिर पर पैर रख कर भाग रहा था. थोड़ी देर बाद मामला समझ में आया. इस बार तमाखू की जलती हुई गट्टी का अंगारा नीचे आराम से लेटे श्यूं के पेट पर पड़ गया होगा. और, आग से जो चिसकाटी लगी होगी, उसके होश ही ठिकाने आ गए होंगे. श्यूं कूच कर गया वहां से! और वह आदमी? वह पेड़ से उतरा और पूरा जंगल पार करके, उकाव चढ़ कर तल्ली ककोड़ होता हुआ घर पहुंच गया. इतना ही नहीं, जब पूछा गया कि श्यूं फिर पीछे पड़ जाता तो? तो जानते हैं क्या जवाब दिया बल उसने? ”द क्याप बात. कहां से आ जाता? जाने कहां कूच कर गया ठैरा. फिर गट्टी की चिसकाटी थोड़े ही भूल जाता? जनम भर नहीं भूलेगा वह. बंदूक की गोली क्या ठैरी चिसकाटी के सामने… और, फिर रात भर मैं भी क्या करता पेड़ पर!“
लोग यह किस्सा भी सुन कर खूब हंसते थे… एक आदमी ने बहुत बकरियां पाली हुईं थीं. शाम हुई और बकरियों का झुंड में-में करता हुआ लौट आया. आदमी ने उन्हें गोठ में गोठिया (बंद) कर टूटा हुआ दरवाजा फेर दिया. बकरियां गोठ की गरमाहट में बैठ कर आराम करने लगीं… एक बाघ बकरियों की बास चिता (महसूस) कर दबे पांव गोठ के दरवाजे पर आया और टूटे दरवाजे से धीरे से भीतर घुस गया. बकरियों की बकरैन बास से भरे गोठ में बाघ की बास का पता नहीं लगा. बाघ अपने खाने के लिए अंधेरे में आंख घुमा कर मोटा-तगड़ा बकरा खोज रहा होगा कि अंधेरी रात में किसी पहर दो बकरी चोर भी दबे पांव गोठ में घुस आए. उन्होंने भी अंधेरे में मोटा-तगड़ा हेलवान (बकरा) टटोलना शुरू कर दिया. अंधेरे में ही सहलाते हुए एक चिकना-चुपड़ा हेलवान हाथ लगा तो उसके गले में रस्सी बांध कर दरवाजे से चुपचाप बाहर निकल गए. घुप्प अंधेरे में गिरते-पड़ते चलते गए. एक रस्सी खींचता और दूसरा छड़ी मार कर पीछे से हांकता, ‘मुना (बकरा) चल! चल! चलते-चलते रात ब्या (खुल) गई. हलका उजाला हुआ तो ‘बकरे’ पर नजर पड़ते ही दोनों बकरी चोर चीख मार कर भाग खड़े हुए! जिसे वे हेलवान समझ कर पकड़ लाए थे, वह मोटा-तगड़ा बकरिया-बाघ निकला!
ये तो हुआ खैर मन हलका करने के लिए हलका-फुलका किस्सा लेकिन कैसी कलकली लगती होगी दिल में, जब बाघ किसी की भरपूर दूध देने वाली गाय-भैंस को मार डालता होगा? लोग उस पार के पहाड़ों पर बसे कड़ैजर गांव के टिकराम रुवाली ज्यू का किस्सा सुनाते थे. कड़ैजर गांव देवगुरु पहाड़ के घने जंगलों की गोद में हुआ… अब महराज एक दिन ऐसा हुआ बल कि टिकराम रुवाली ज्यू के गोरु-बाछ जंगल में चरने गए हुए थे. वहां उन पर श्यूं की नजर पड़ गई ठैरी. उस दुश्मन ने मारने के लिए सबसे अच्छी दुधारु गाय छांट ली. बस, उस पर झपटा और उसे चित्त मार दिया.
टिकराम पंडिज्जी ने सुना तो बौखला उठे. पकड़ा एक बांज का मोटा-मजबूत और भारी कांगा (तीखा डंडा) और पहुंच गए सीधे जंगल. गाय मरी ठैरी. श्यूं का पता नहीं. उनका गुस्सा भड़क गया. पत्थर पर खड़े होकर जोर से धाद दी- “हं रै, कहां है तू? चोरी से मेरी गाय मार दी. आ, हिम्मत है तो सामने आ”
श्यूं सिर झुका कर सामने आ गया बल. उसे देखते ही वे चिल्लाए, “अब क्या मूंड़ झुका कर आ रहा है? मुंह ऊपर उठा.”
श्यूं का सामने देखना और उनका दोनों हाथों को उठा कर पूरी ताकत से बांज का कांगा मारना. खोपड़ी फट कर दो हो गई बल! श्यूं वहीं ढेर हो गया.
रात-बिरात दीदी से एक और गांव की उस सैंनी (औरत) का किस्सा सुन कर तो रोंगटे ही खड़े हो जाते थे…
गांव की चार-छह सैंनियां (औरतें) घास काटने जंगल में गई हुई थीं, बल. सब आसपास ही घास काटने लगीं. श्यूं दुश्मन छिप कर उनके पीछे लग गया. मौका पा कर एक सैंनी पर झपट पड़ा और उसे घसीट कर ले गया. बाकी सैंनियां चीखती-चिल्लातीं भाग कर वापस गांव पहुंच गईं. वहां रो-धो कर लोगों को बताया. कुछ लोग इकट्ठा होकर, लाठी-कुल्हाड़ियों से लैस होकर उस सैंनी को खोजने जंगल पहुंचे. शाम ढल चुकी थी. चारों ओर अंधेरा घिरने लगा. लोगों ने मशाल जला कर सैंनियों की बताई हुई जगह के आसपास उस सैंनी के कपड़े और शरीर के बचे-खुचे टुकड़े ढूंढना शुरु किया. सभी जानते थे कि अब तक तो उस बेचारी को श्यूं चबा-चुबू कर चट कर चुका होगा. लेकिन, न खून के निशान दिखे, न फटे कपड़े और न शरीर के टुकड़े. यहीं से तो घसीट कर ले गया था श्यूं? तो, फिर उस सैंनी का हुआ क्या?
तभी जंगल के सन्नाटे में कुछ दूर से दर्द भरी आवाज आई, ”अरे, कोई छा, बचावा मैंकें, मैं ज्यूनी छों!“ (कोई है, बचाओ मुझे, मैं जीवित हूं)
आवाज सुन कर सभी धक्क से रह गए. यह कौन है? किसकी आवाज है सुनसान जंगल के इस अंधेरे में?
लोग सोच ही रहे थे कि फिर आवाज आई, “अरे, मैं छौं, पारभति (पार्वती), ज्योंनी छौं मैं. आओ, ले जाओ मुझे…” कोई कातर आवाज में पुकार रहा था.
दो-एक आदमियों से रहा नहीं गया. बोले, “उसकी आत्मा आवाज दे रही है शायद. उसे तो श्यूं कब के जो खा चुका होगा…”
किसी ने उनकी हां में हां मिलाई. कहा, “भूत-परेत की आवाज लगती है. बेचारी की अकाल मौत हुई है, तभी तो… ”
डर कर वे लोग गांव लौट गए. वहां बाकी लोगों से कहा. कुछ लोगों का मन नहीं माना. उन्होंने साथ की सैंनियों से फिर पूछा. सैंनियों ने कहा कि खुद उन्होंने देखा. उनकी आंखों के सामने उसे श्यूं ने पंजों से दबोचा और घसीट कर ले गया.
“तब कहां बचती,” उन लोगों ने कहा, “सुबह ज्यादा लोग चलेंगे. हल्ला-गुल्ला मचा कर खोजेंगे. कुछ तो मिलेगा? कपड़े जो क्या खा जाएगा श्यूं? वे तो मिलेंगे ही.”
गए, सुबह वे लोग हथियार लेकर, ढोल-कनिस्तर बजाते हुए वहां गए. चारों ओर फिर ढूंढा. और, तभी फिर वही कातर आवाज आई, “अरे यहां हूं मैं. मुझे ले जाओ…बचाओ…बचाओ मुझे!”
“हैं, दिन में भी? दिन में तो आत्मा की आवाज नहीं आनी चाहिए. चलो, वहां जाकर देखते तो हैं, ” किसी आदमी ने कहा.
“हां-हां चलो” कह कर सब लोग उस तरफ गए कि आखिर आवाज आ कहां से रही है?
और, वहां जाकर दूर से देखते क्या हैं कि पारभती तो जिंदा है! उसने एक ऊंचे पेड़ के दो-फांगे में बैठ कर तने को कस कर पकड़ा हुआ था.
पास जाने पर वह जोर से चिल्लाई, “पेड़ की जड़ में श्यूं बैठा हुआ है. जरा देख कर आना… ”
लोगों ने देखा पेड़ की जड़ पर सचमुच श्यूं बैठा हुआ था. वह कभी उनकी ओर देख रहा था और कभी ऊपर पेड़ में बैठी पारभती की ओर. अब क्या किया जाए? लोगों ने ढोल और कनिस्तर जोर-जोर से पीटना शुरू किया और ‘हुई-हुई’ की आवाजें लगा कर श्यूं को भगाने की कोशिश की. लेकिन, रात भर पेड़ पर से शिकार के उतरने का इंतजार करने वाला वह भूखा श्यूं वहां से नहीं हिला. तब लोगों ने आग जलाई. जलती हुई लकड़ियां उसकी ओर फैंकीं. आखिर हो-हल्ला सुन कर और आग से डर कर श्यूं वहां से हट कर दूर जाकर बैठ गया. तब एक-दो आदमी हिम्मत करके पेड़ के पास पहुंचे. श्यूं ने गुस्से में पेड़ को नाखूनों से बुरी तरह नोचा हुआ था. कई जगह शायद दांतों से भी पपोड़ दिया था.
एक आदमी रस्सी लेकर पेड़ में चढ़ा और दो-फांगे पर पहुंच कर रात भर डर से कांपती, भूखी-प्यासी पारभती के पास पहुंचा. उसने धोती से अपने-आप को पेड़ के तने पर कस कर बांधा हुआ था ताकि डर से बेहोश होकर नीचे न गिर पड़े. वह आदमी पारभती को पीठ पर बांध कर नीचे उतार लाया और लोग हो-हल्ला मचा कर उसे गांव में वापस ले आए.
लेकिन, हुआ क्या? श्यूं तो उसे घसीट कर ले गया था? तो, खाया क्यों नहीं? उसका खून तक नहीं पिया?
जो हुआ, वह पारभती ने गांव वालों को बताया.
उसने बताया, “श्यूं मुझे घसीट कर उस पेड़ के पास तक ले गया होगा. वहां पर थोड़ा मैदान जैसा है. मैं बेहोश थी. होश आया तो देखा, मुझे उस पेड़ के तने पर टिका कर, वह अपने पंजों से कुतक्याली (गुदगुदी) जैसी करके वापस पीछे को दौड़ रहा था. दूर जाकर वह पलटा और जमीन पर पंजे फैलाए. उन पर मुंह रख कर इधर-उधर सिर हिलाते हुए मेरी ओर देखा. पूंछ हिला कर फिर तेजी से दौड़ता हुआ मेरे पास आया और मुझे पंजों से पकड़ कर इधर-उधर हिलाने लगा. उसे देख कर मैं फिर बेहोश हो गई. होश आया तो देखा वह फिर वापस दौड़ रहा था. मेरे साथ वह बिल्ली और चूहे का जैसा खेल, खेल रहा था….थोड़ी देर खेल खेलता, फिर बैठ कर मेरा हाड़-मांस चबाता.”
“जब तीसरी बार होश में आई और उस दुश्मन को दूसरी ओर दौड़ते हुए देखा तो मुझमें हिम्मत आ गई. मन ने कहा, पारभती तू बच सकती है. सारा आंग (शरीर) डर के मारे थर-थर, थर-थर कर रहा था. लेकिन, मैंने हिम्मत जुटाई और पेड़ में चढ़ गई. लगता था उस दुश्मन ने अब नीचे घसीटा, अब नीचे घसीटा. ऊपर दो फांगे पर पहुंच कर मैंने कमर से धोती खोली और उससे अपने आप को तने के साथ बांध लिया कि डर से बेहोश होकर गिर न पड़ूं.”
“उधर वह असत्ती दूसरे किनारे पर पहुंचा. पंजों पर सिर रख कर खेल-खेलने लगा तो देखा-पेड़ के नीचे तो कुछ है ही नहीं. बस, वह बौखला कर दहाड़ता हुआ वापस पेड़ की जड़ की तरफ दौड़ा. इधर-उधर सूंघा कि कहां भाग गई. कुछ पता नहीं लगा. गुस्से में ‘आऊ ऽऽ आऊ ऽऽ’ करके बुरी तरह दहाड़ता रहा. फिर पेड़ को सूंघ कर ऊपर की तरफ देखा तो मुझ पर नजर पड़ गई. अरे, कैसा जो बौला (बौरा) गया ठैरा वह! आसमान की ओर उछाल मारने लगा. गुस्से से पागल होकर दांतों से पेड़ की छाल पपोड़ दी, नाखूनों से उसे चीरने लगा. ऐसी ‘आऊ ऽऽ’ करता था कि मेरा कलेजा बैठ जाता था.”
“कुछ देर बाद मैंने आदमियों का बोलना जैसा सुना. मशाल की आग दिखाई दी. तब मैंने जोर से आवाज लगाई, ‘अरे कोई छा? बचावा मैं कैं!” लेकिन, शायद किसी ने नहीं सुना. आदमियों की आवाज सुन कर नीचे बैठा वह दुश्मन उस समय चुप हो गया. सुबह फिर आप लोग आ ही गए.’
दीदी कहती थी, कई महीनों तक वह श्यूं रात को उस सैंनी के मकान तक आता रहा, बल. उसके मुंह का शिकार जो छूटा ठैरा.
मगर एक असली और मजेदार किस्सा तो ठुल ददा भी सुनाते थे. जाड़ों में गोरु-भैंसों के साथ ककोड़ गए थे. तब तक वहां पहाड़ से कम ही लोग पहुंचे थे. वनों में खूब चारा उगा हुआ था. ददा जानवर चराने कभी टीले की तरफ जाते, कभी उससे आगे म्यलगैर के वन में, कभी गैन के घने जंगल की ओर और कभी औंसानि धार. उस दिन म्यलगैर गए हुए थे. डर-भर के दिन थे. श्यूं रौंती रहा था. बुरी तरह बौराया हुआ था. हर समय डर लगा रहता था, न जाने कब कहां किस पर टूट पड़े. मगर जब म्यलगैर पहुंचे तो देखा पानी के स्रोत के पास देबुवा सोया ठैरा! श्यूं-बाघ से बिलकुल बेखबर. ददा ने सोचा, पगली गया है क्या? परसुद्द (बेफिक्र) होकर सो रहा है.
उन्होंने पास जाकर मजाक में उसके सीने पर दोनों हाथों की अंगुलियां गड़ाते हुए श्यूं की आवाज निकाली- आ ऽऽ ऊ ऽऽ! देबुवा हड़बड़ा कर उठा और गला फाड़ कर चीखने लगा, ‘बचावा! बचावा! खै हालि छों! श्यूं लि खै हालि छों…’ मतलब, ‘बचाओ, बचाओ, शेर ने खा लिया’. ददा हैरान-परेशान. वे दोनों हाथ हिलाते हुए चिल्लाए, “देबुवा! देबुवा! मैं हूं. उठ.” लेकिन, उन्हें अविश्वास से देखते-देखते देबुवा डर के मारे बेहोश हो गया. ददा भी परेशान. उसे वहीं अकेला छोड़ कर जा नहीं सकते थे. समझ में नहीं आ रहा था, क्या करें?
मैंने पूछा, “तो फिर क्या किया?”
बोले, “सामने ही कुछ दूर, एक पेड़ गिरा हुआ था. मैं जाकर उसके मोटे तने पर बैठ गया. सोचा, देबुवा होश में आएगा तो खुद ही देख लेगा. मैं तने पर उकडूं बैठ कर देबुवा के होश में आने का इंतजार करने लगा. थोड़ी देर बाद वह होश में आया. उसने चौंक कर अविश्वास से इधर-उधर देखा. तभी मुझ पर नजर पड़ गई. मैंने हंस कर कहा- क्यों उठ गया? लेकिन, मुझे हिलते हुए देख कर मेरी ओर इशारा करके देबुवा फिर जोर से चीखने लगा-‘य छ! य छ! ये मुझे खा देता है! अरे, बचाओ, बचाओ…हुई ऽऽ हुई ऽऽ.’ इसके साथ ही वह फिर बेहोश हो गया.”
“मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था, उसका क्या करूं? लगता था, वह रात भर सोया नहीं था. निनभंग (अनिद्रा) का मांच लगा था. लेकिन, अब क्या हो? उसकी कहां गोरु-भैंसें, कहां क्या? फिर ख्याल आया, उसके मुंह पर पानी के छींटे मारूं तो शायद होश आ जाए. वही किया. अंजुलि में थोड़ा-सा पानी लिया और उसके मुंह पर छींटे मारे. डर मैं भी रहा था कि बचने के लिए कहीं मुझ पर न टूट पड़े. लेकिन, पानी के छींटे पड़ते ही वह जागा. धीरे से आंखें खोलीं. मुझे घूर कर देखा. फिर बदहवाश होकर चारों ओर देखा और रोता हुआ मुझसे चिपट गया. बोला, ‘काकज्यू आज तुम नहीं होते तो श्यूं ने मुझे खा ही लिया होता. तुमने बचा लिया!”
श्यूं-बाघ सामने ही टपक पड़े तो उसे भगाने का एकमात्र तरीका था-पूरी ताकत से चीखना ‘हुई ऽऽ हुई ऽऽ.’ ददा बताते थे, एक बार वे गैन के घने वन में गए हुए थे. पेड़ों की टहनियां काट कर गाय-भैंसों को चरा रहे थे. वे आगे बढ़ते और गाय-भैंसें भी उनके साथ-साथ आगे बढ़तीं. एक पेड़ का तना पकड़ कर खड़े हुए. पास में झाड़ी थी और जमीन पर थोड़ा गहरी गल्ली बनी हुई थी. अचानक गल्ली में से श्यूं ने दो पंजे ऊपर रख दिए और पूरा मुंह फाड़ कर दहाड़ा. ददा कहते थे, “लाल खाप (मुख) दिखती थी उसकी और भाप सीधे मुंह पर आ रही थी. निंगुरी (बुरी) बास आ रही थी. हाथ में तेज दात था टहनियां काटने के लिए. उसे उठा कर मैं पूरी ताकत से चिल्लाया-????? लेकिन, गले से आवाज ही नहीं निकली. मुंह चल रहा था लेकिन हुई ऽऽ हुई ऽऽ नहीं हुई. श्यूं आगे बढ़ा, जानवर बिदके और उसने अलग-थलग पड़ी भैंस की थोरी (बच्चा) को थप्पड़ मार कर फैंक दिया. उसकी गर्दन तोड़ दी. तभी भैंसों ने घेरा बना लिया. वे सींगों से श्यूं पर टूट पड़ीं. श्यूं तो खिसक लिया मगर वे श्यूं की गंध के कारण मरी हुई थोरी पर सिर मारने लगीं. उन्हें मुश्किल से हटाया. मेरे मुंह से तो बहुत देर बाद आवाज निकली. और, निकली तो वह बिल्कुल बदली हुई थी. गले की नसें बुरी तरह खिंच गई थीं. मैं डरी-बिदकी गाय-भैंसों को किसी तरह हांक कर घर वापस लाया.”
लेकिन, श्यूं-बाघ भी वहीं, वे भी वहीं. रहना तो सभी को वहीं था. इसलिए उनसे भेंट होती ही रहती थी. बताते थे कि एक बार म्यलगेर के वन से लौट रहे थे. सबसे आगे चौड़े सींगों वाली बड़ी कद-काठी की ‘फूल’ भैंस. उसके पीछे दूसरी भैंसें और थोरियां. उनके साथ ठुल ददा. अचानक फूल बेचैन हो उठी. नथुनों से ‘फ्वां-फ्वां’ करके कभी इधर देखती, कभी उधर. फिर मुड़ी और पीछे आ गई. ददा उसे आगे जाने के लिए हकाते, लेकिन वह अड़ गई. ददा को सिर से धकेल कर बीच में भेज दिया और खुद सबसे पीछे लग गई. हर कदम के साथ पीछे मुड़ कर देखती. फुंकारती. ददा समझ गए कि गड़बड़ है. जानवर डुडाने (रंभाने) लगे. थोड़ा आगे ऊंची जमीन में पहुंचे तो देखा, दूरी बना कर पीछे-पीछे एक श्यूं भी आराम से चला आ रहा है. फूल फ्वां-फ्वां करती हवा में सींग मारती, पीछे मुड़-मुड़ कर खड़ी हो जाती, फिर आगे बढ़ती. इसी तरह वे धार के खेत में खरक (छप्पर) तक पहुंच गए.
मैंने पूछा, “और श्यूं?”
बोले, “वह भी पहुंच गया. जितनी दूर चल रहा था, उतनी ही दूरी बना कर खेत के किनारे जरा ओट में को बैठ गया. गाय-भैंसों की हालत खराब. किसी तरह उन्हें शांत किया. घा-पात डाला. लेकिन, बीच-बीच में वे फिर बैचेन होने लगतीं. डुडाने लगतीं. मैंने आग जलाई. धुवां-हुवां निकला. मगर, न जाने कैसा श्यूं था, वहां पर बैठा ही रहा, जैसे पालतू हो. आग जला कर रात भर जागना पड़ा. सुबह का उजाला होते-होते मैंने भैंसों का दूध दुहा. भद्याली (बड़ी कढ़ाई) में गरम करने के लिए आग पर चढ़ाया और उसके उबलने का इंतजार करने लगा… ”
“बैठे-बैठे आंख लग गई होगी. रात भर की निनभंग हुई. आंख खुली तो देखा, सूरज आसमान पर चढ़ आया था. आग बुझ चुकी थी. भद्याली में दूध उबल-उबल कर सूख गया था. तले में बस घी जैसा रह गया था.”
“और, श्यूं? गाय-भैंसें?”
“उजाला होने पर श्यूं उठ कर चला गया होगा और गाय-भैंसें खूंटों पर ही बंधी ठैरीं. अड़ाती होंगी लेकिन सुने कौन? मैं तो नींद के भरमस्के में पड़ा ठैरा. फिर सोचा होगा, ये तो उठता नहीं, क्या फायदा अड़ाने का….बड़े समझदार होते हैं जानवर. अब देखो, मुझे धकेल-धकेल कर अपने बच्चों के साथ झुंड के बीच में पहुंचा दिया और वैसे ही चलते-चलते घर तक ले आईं! कौन कहता है, जानवर कुछ नहीं समझते? अपने ग्वाले के लिए इतना प्रेम?”
लेकिन, जंगल के जीवन में हर जानवर इतना भाग्यशाली नहीं होता….उस दिन मैं पिताजी के साथ शाम को अपने मकान के आगे खड़ा था. दिन ढलने को था. सूरज साज और भीमुल के पेड़ों की फुनगियों के पीछे छिप चुका था. पिताजी की आंखें हर रोज की तरह पार शिमल धार पर टिकी हुई थीं, जहां अब भी ढलती पीली धूप दिखाई दे रही थी. आज गाय-भैंसें लेकर ददा उधर ही गए थे. अब उनके लौटने का समय हो गया था. पिताजी धार के पार से वापस आती गाय-भैंसों को एक-एक करके गिन लेते थे….एक…दो…तीन…उस दिन भी धार पर पहली भैंस दिखाई दी, फिर दूसरी, फिर तीसरी गाय भी, बैल भी. लेकिन, अचानक चौंके- गिनती में एक कम क्यों है? फिर गिना, फिर भी एक कम. परेशान होकर बोले, ‘कौन कम है?’ आगे से पीछे तक नजर दौड़ाई. ध्यान से देखने पर घर को लौटती गाय-भैंसों की उस कतार में सफेद ‘सेतुवा’ को न देख कर बोले, ‘सेतुवा नहीं रहा शायद. वह तो दूर से ही साफ-सुकीला चमकता था.’ फिर वहीं से ददा को लंबी धाद लगाई, “बच्या! सेत्व कांछ?”
किसी ने कहा, “आने तो दीजिए, खुद ही बताएंगे.” सेतुवा और गुजार हमारे दो बैल थे. सेतुवा झक सफेद रंग का था.
ददा ने आकर बताया, “सभी गाय-भैंसें चर रही थीं. मैं जिस पेड़ से पत्तियां-टहनियां काट-काट कर गिरा रहा था, उसके पास ही सेतुवा चर रहा था. वह जरा-सा किनारे को बढ़ा झाड़ी की तरफ. वहां पर हलकी ढलान जैसी थी. सेतुवा ने झाड़ी के पास उगी हरी घास के तिनाड़ लपकने के लिए शायद जीभ निकाली कि तभी वह पीड़ा से तिरछा हो गया. पलटी खाने लगा. घों..घों की जैसी आवाज आई, तब मुझे पता चला. मैंने सोचा किसी चीज ने काट खाया है. नीचे उतरा. देखा तो मुंह से खून की धार फूट रही थी. सेतुवा डर कर झाड़ी की ओर देख रहा था. मैंने उधर देखा तो श्यूं दुश्मन की आंखें चमकीं. मामला समझ गया. सेतुवा ने जीभ लपकाई होगी और श्यूं ने पंजा मार कर जीभ खींच ली. बेचारा सेतुवा चीख भी नहीं पाया. बिना जीभ के घों-घों कर पाया, बस. बाकी जानवरों को तो तब तक पता भी नहीं चला था. मैं झटपट पेड़ में चढ़ा और धाद लगा कर बाकी लोगों को सावधान किया कि यहां श्यूं आया है. मेरा बैल दाड़ दिया है. मैं पेड़ में क्या चढ़ा कि वह दुश्मन झाड़ी से निकला और उसने थप्पड़ मार कर सेतुवा की गर्दन तोड़ दी. तब तक बाकी जानवरों को भी पता लग गया. सभी डुडाने लगे. उस अफता-तफरी में असत्ती श्यूं एक ओर को कूद गया.”
“सेतुवा में अभी प्राण थे. वह कातर आंखों से मुझे देख रहा था. आंसू बहा रहा था. लेकिन, मैं कुछ नहीं कर सकता था. उसके मुंह को थपथपाया और कहा-तेरा मेरा इतना ही साथ रहा होगा सेतुवा. जा, बेटा जा.”
ददा का गला भर आया. आगे नहीं बोल पाए. पिताजी ने गुस्से से भड़क कर कहा, “असत्ती, दुश्मन!”
मैं वन में श्यूं के पास छूट गए अपने सेतुवा के बारे में डर कर तरह-तरह की कल्पनाएं करने लगा….उन घने जंगलों में हमरी रक्षा भला कौन करता?
(मेरी यादों का पहाड़, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया से)
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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6 Comments
RS Manral
Hats Off to Kafaltree.com for Posting Amazing Articles of Uttarakhand. ??? Congratulations & Best Wishes to All Team Members, Authors & Supporters.?????
Jai Uttarakhand.??
MAHESH भट्ट
अति प्रेरणादायक।
सच मै जब भी उन पहाड़ों व गांव की याद आती है आंखों से आंसू टपकाने लगते है।लगता है हमने अपना विकास तो तो कर लिया पर इस भौतिक युग मै दिल गांव मै ही रह गया। अब बस सब यादें ही बच गई है गांव पीछे रह गया और हम अपने गांव के लिए स्वार्थी हो गए।
Deep Chand Pandey
कितनी कठिनाइयों के बावजूद हमारे पुरखों ने पहाड़ों को आबाद रखा और हम लोग मामूली बंदरों और सुवरों से जूझ नहीं पा रहे। कठिन पहाड़ी जीवन को जीवन्त करता संस्मरण।
हरिहर लाेहुमी
जंगलाें से लगे गांवाें में स्यू व ईंसान के संधर्ष की दिलदहलादेने वाली घटनाएं काे बहुत ही राेचक व सजीव अंदाज में पेश किया है। आज स्थितियां कुछ बदल गई हैं । इंसान जाे अपने अस्तित्व की लड़ाई में स्यू से उलझ जाता था आज बंदयराें से हार मान बैठा है।
Mohan bhatt
कितनी आसानी से हमने अपने बाप दादाओ की इस देवभूमि को भुला दिया। बस अब नही अब घर वापसी हो के रहेगी। धन्यवाद काफल ट्री।।
रमेश चन्द्र शर्मा भट्ट
बहुत सुंदर एवं रोचक तरीके से पहाड़ गाँव की घटनाओं को कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया| उक्त प्रस्तुति ने पाठक को अंत तक बांधे रखा| लेख कुछ अधिक लम्बा हो गया, लेख छोटे होने चाहिए|
फिर भी बहुत सुन्दर वर्णनात्मक घटनाओं की प्रस्तुति| जय उत्तराखंड देवभूमि