“अरी ऐ री आली!”
“हाँ, सखी बोल!”
“आली…”
“सखी तू किंचित सी चिंतित प्रतीत होती है.”
“किंचित नहीं आली, अत्यंत. अत्यंत चिंतित हूँ. अत्यंत विचलित हूँ. क्षिप्त हूँ, मूढ़ हूँ, विक्षिप्त हूँ.”
“हाय, चित्त की ऐसी वृत्ति? क्यों कर भला?”
“आली पुष्पी से आज मेरी जंग हो गई. एक सखी बनाई, पुनः निःसंग हो गई.”
“होए शावा, होए शा… अरे, ऐसा क्या?”
“क्या बताऊँ मुझे कितना अवसाद हो गया, आज पुष्पी से मेरा मुँहवाद हो गया.”
“होए शावा… अरी, क्यों पहेलियाँ बुझा रही है, मुझे पुनः-पुनः होए शावा करने पर क्यों विवश कर रही है? सीधे बोल न! कल तक तो तू पुष्पी से मित्रता के सुदृणीकरण की बात कहती थी, फिर यकायक शत्रुता के नवीनीकरण की कथा?”
“मत पूछ सखी. कल मैंने पुष्पी से कहा कि एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ व्यंग्यकार की आवश्यकता है. क्या तू बनेगी? यह सुनकर पुष्पी सहर्ष तैयार हो गई.”
“तो ये तो हर्ष का विषय है. फिर यह वाद-विवाद-मुँहवाद की बात क्यों?”
“अरी सुन न पहले! तो पुष्पी अत्यंत प्रसन्न हो गई, बोली- कौन सी संस्था है, किस ग्राम में कार्यक्रम है, आवागमन किस प्रकार होगा, पारिश्रमिक क्या प्राप्त होगा, भोग-विलास का क्या प्रबंध है?”
“हाय, इतने सारे प्रश्न? तूने बताया?”
“हाँ, मैंने उसे पूरे कार्यक्रम की कहानी विस्तार से कह सुनाई. बताया- संस्था प्रतिष्ठित है, ग्राम विकसित है, वाहन उपलब्ध है, मुद्रा उच्च है और मदिरा उत्कृष्ट है. यह सुन वह प्रसन्नता से फूली न समाई.”
“वह तो क्रोध में भी फूली न समाती, इतनी फूली जो है. हा हा हा. हाँ तो आगे कह!”
“तो हम दोनों विचार करने लगीं कि उत्तरीय किस वर्ण का हो, कंचुकी किस वर्ण की. उनका सुंदर साम्य कैसे बैठाया जाए. सुंगध कौन सी हो, केतकी या मलय. वह कहने लगी मैं तो मंच पर रहूँगी, तू श्रोताओं बैठ कर मेरी बड़ाई करती रहना. करतल ध्वनि करना. श्रेष्ठ, अद्भुत, अपूर्व शब्दों का पुनः-पुनः प्रयोग करना. मैं अपना परिचय लिख देती हूँ, उसे संचालक को दे देना. कहना यह अवश्य कहे कि अत्यंत व्यस्त होते हुए भी मैंने कार्यक्रम के लिये समय निकाला, प्रतिभागियों को कहता रहे- संक्षेप में अपनी बात रखें, मुख्य अतिथि को कहीं जाना है. दुशाला धनिकलाल के प्रतिष्ठान से ही लेना. वो जो मेदू हलवाई के पार्श्व से वीथिका है न, वहीं पर उसका प्रतिष्ठान है. उसकी दुशाला सर्वश्रेष्ठ हैं. यदि पीत वर्ण की मिल जाए तो उत्तम. श्रीफल मलाई वाला…”
“हाय दईया, यूँ निर्बाध निर्वचन?”
“हाँ री, मैंने कहा पुष्पी ठहर तनिक, फुफ्फुस तो फुला ले पुनः, पिचक गए होंगे. फिर कहने लगी- अच्छा बता और कौन-कौन पधार रहा है? मैंने कहा- व्यंग्यकार में बस हम दोनों है, और हमारे सिवा है ही कौन दूर-दूर तक. वह बोली- तू सच कहती है प्रिया. व्यंग्य में हम दोनों सर्वश्रेष्ठ हैं.”
“अरी पर इस वाद के विवाद- मुँहवाद बनने का प्रसंग कैसे उपस्थित हो गया.”
“वही तो बता रही हूँ. तो मैंने कहा- सच कितना आनन्द आएगा. वरिष्ठ में तू रहेगी, और युवा व्यंग्यकार में मैं हो जाऊँगी.”
“हाँ, यह तो बहुत अच्छा होता.”
“……”
“अरी तू फिर रोने लगी. कह न, अब तक तो सब अच्छा ही प्रतीत हो रहा है.”
“नहीं आली, यह सुनते ही पुष्पी भड़क गई. बोली- आहाहा, अत्यंत निपुण. मैं बनूँ वरिष्ठ और तू बने युवा व्यंग्यकार. तू वहाँ चपला-चंचला बनी युवाओं के बीच उत्तरीय लहरा कर, मादक सुगंध फैलाती घूमे और मैं षष्ठीपूर्ति मूर्तियों के बीच प्रौढ़ा बन कर बैठूं? अरी हट! जा जा!”
“पर युवा लेखक कैसे मुख्य अतिथि बन सकता है, उसके लिये तो वरिष्ठ होना आवश्यक है?”
“हाँ मैंने भी समान बात कही. तो मुझसे कहने लगी- तो तू बन जा मुख्य अतिथि, साथ ही वरिष्ठ व्यंग्यकार भी बन लेना. बड़ी आई. तू बने मल्लिका और मैं बनूँ अम्बिका? चल री!”
“इतने कठोर वचन?”
“हाँ आली, क्या बताऊँ तुझे. ऐसे हाथ और हनु हिला-हिला कर बात कर रही थी वो हिडिम्बा. कभी हाथ हनु पर रख लेती, तो कभी हनु हाथ पर. पूरी रंगकर्मी जान पड़ती थी. मैंने उसे बहुत प्रेम से समझाया, पूछा कि पुष्पी, बता तो ज़रा शैशवावस्था से तू क्या बनना चाहती थी? तो बोली- मुख्य अतिथि.”
“लो, तो फिर बनी क्यों नहीं?”
“कहती- नहीं, इस का कार्यक्रम में तो कदापि नहीं. जहाँ तू युवा व्यंग्यकार बन कर जाए और मैं वरिष्ठ. मैं वहाँ दुशाला ओढ़ कर धर्मराज बनी मंच से तेरा रास देखूँ? आगे बोली- मैं सब जानती हूँ. वहाँ पंचदश ऐसी लेखिकाएँ आने वाली हैं जिन्हें मैं अग्रजा प्रणाम, दीदी नमस्कार कहती हूँ. तू उन्हीं के सम्मुख मुझे वरिष्ठ बना कर प्रस्तुत करना चाहती है? अरी दुष्ट, तेरी सारी कूटनीति मैं समझती हूँ.”
“हे प्रभु, ऐसे शब्दों के शर! मैंने तुझे पूर्व में सचेत भी किया था. तू इतनी कोमल हृदय और कहाँ वो.”
“हाँ आली. फिर भी मैं विनम्र ही बनी रही. तू तो जानती है मुझमें संस्कार अत्यंत कूट-कूट कर भरे हैं मेरे माता-पिता ने.”
“सत्य है प्रिया. तू तो मेरी बाल सखी है. मैंने देखा है संस्कार भरने के लिये कैसे कूटा गया तुझे. सच में तुझ में संस्कार कूट-कूट कर भरे हैं. फिर क्या हुआ?”
“मैंने पुनः शिष्टता से कहा कि देख पुष्पी ऐसे अवसर पुनः नहीं आते जहाँ आयोजक स्वयं मुख्य अतिथि बनने का प्रस्ताव दें. अभी मिला है तो बन जा, अन्यथा लोगों को स्वयं अपना मुख्य आतिथ्य प्रायोजित करना पड़ता है. तो कहती- सुन, वरिष्ठता के पर्वत पर शत्रुता की झंझा प्रबल होती है और मित्रता की प्राणवायु विरल. प्रतिष्ठा की भूमि खिसकने का संकट सदैव बना रहता है. प्रशंसा की शीत से हाथ-पैर सुन्न हो जाते हैं, सोचने-समझने की सामर्थ्य जाती रहती है. अन्य पर्वतारोही पग-पग पर पग पकड़ कर वरिष्ठता पर्वत से नीचे घसीटने को आतुर रहते हैं. यदि पग पकड़ में न आए तो जो पकड़ में आए, पकड़ कर खींच देते हैं. ऐसे में साथी आरोही यदि आलोचना की रज्जु भी हटा दें तो मृत्यु निश्चित है. इतना बोल कर वह यूँ मुँह फेर, ऐंठ कर बैठ गई जैसे अर्धमत्स्येंद्र आसन लगाए हो. पर मैं भी जानुशिरासन की तरह उसे पकड़े थी.”
“पर प्रिया मुझे ये तो बता भला, इतने अपमान से तो अच्छा था कि तू ही मुख्यअतिथि बन जाती. उल्टा सम्मानित ही होना था.”
“आली मैं बन तो जाती पर… खुसुरफुसुर.”
“ओह, क्या सच में?”
“हाँ आली. अब बता उसके सामने मैं कैसे वरिष्ठ बन कर जाती? अतः मैंने भी सोच लिया कि भले कुछ भी हो जाए, भले मेरा जानुशिरासन, आकर्ण धनुरासन क्यों न बन जाए, मैं उसे छोड़ने नहीं वाली.”
“तो क्या किया तूने?”
“तू तो जानती है द्यूत में मैं कितनी दक्ष हूँ. द्वादश की आयु से मैं द्यूत खेलने लगी थी. मैंने पुष्पी से कहा कि चल मुद्रा उछाल कर निर्णय कर लेते हैं. यदि मैं जीती तो मैं युवा व्यंग्यकार बन कर जाऊँगी, और यदि तू जीती तो तू युवा व्यंग्यकार बन कर जाना. पुष्पी इस पर सहमत हो गई.”
“फिर?”
“फिर मैंने मुद्रा उछाली और मैं जीत गई.”
“अरे यह तो प्रसन्नता की बात हुई. फिर तेरा ये विलाप किस लिए? अरे तू तो अधिक क्रंदन करने लगी. क्या हुआ प्रिया? तू तो जीती थी… ले चीर ले और नासिका श्लेष्म पोंछ लें. बता क्या हुआ?”
“आली, मैं जीत गई तो पुष्पी कहने लगी- ठीक है तू युवा व्यंग्यकार बन कर चली जाना. मैं नवोदित व्यंग्यकार बन कर जाऊँगी. मैंने कहा- ये छल है. तो कहती- मुद्रा तो युवा व्यंग्यकार बनने के लिए उछाली गई थी न, तो तू बन जा युवा व्यंग्यकार. मैं क्या बन कर जाती हूँ, इससे तुझे क्या?”
“यह तो कुटिलता है!”
“आली, मैंने भी समान बात कही. तो अपशब्द निकालती कहने लगी- कुचाली, कुल्टा, कुलक्षिणी तू मुझसे छोटी लगे, ये मैं होने नहीं दूँगी. तो मैंने भी कह दिया- कलंकिनी, किल्विषी, कुटनी देखती हूँ तू ऐसा कैसे करती है. और वहाँ से चली आई.”
“अरी पर अब तू करेगी क्या?… क्या शून्य में देख रही है, जैसे कोई भीषण प्रतिज्ञा लेने वाली हो? बोल न!”
“आली मैंने भी निश्चय किया है कि अगर पुष्पी नवोदित व्यंग्यकार बन कर जाएगी तो मैं… मैं… मैं नवजात व्यंग्यकार बन कर जाऊँगी.”
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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