बटरोही

पन्त-मटियानी के बेमेल युग्म का मिथक

इस किस्से की प्रामाणिकता का मैं दावा नहीं करता. बाकी लोगों की तरह मैंने भी इसे दूसरों के मुंह से सुना था. बात अविश्वसनीय और अटपटी तब भी लगी थी मगर सभी लोग एक ही बात कह रहे थे, इसलिए यकीन होना ही था. संशय इसलिए बना रहा कि यह बात मैंने वर्षों तक शैलेशजी के साथ रहने के बावजूद उनके मुंह से कभी नहीं सुनी. जब भी प्रसंग आता, वो बात टाल देते थे.
(Batrohi Article October 2021)

मूल घटना उन दिनों की है जब शैलेश मटियानी पहली बार इलाहाबाद पहुँचे थे. उम्र कोई अठारह-बीस साल, जीन की नेकर और गुड़मुड़ी कमीज पहने गठीले बदन के औसत कद का वह पहाड़ी लड़का पहली बार अपने उस आराध्य से मिलने पहुंचा था, जिसके जैसा बनने के सपने उसने बचपन से देखे थे. सुबह का वक़्त, मिंटो रोड के अपने स्वप्निल ‘छायावादी’ बंगले में महाकवि सुमित्रानंदन पन्त अपनी नयी रचना के छंद में खोये रहे होंगे, तभी दरवाजे पर घंटी बजी और पंतजी ने देखा, एक पहाड़ी लड़का सामने खड़ा है. युवक ने झुककर अपने आराध्य के चरण छुए. एक पल के लिए महाकवि ने पहाड़ी युवक की ओर देखा और छंद की धुन में खोये महाकवि ने यह कहते हुए दरवाज़ा बंद कर दिया कि, ‘अब हमें आदमी की जरूरत नहीं है. कुछ दिन पहले एक लड़का आया था, बिना बताये छोड़कर चला गया. अब यहाँ आने की जरूरत नहीं’

युवक को लौटना ही था और जिंदगी की इस अप्रिय गांठ को ढोए हुए उसे अपनी भावी रचनात्मक ज़िंदगी को रचना ही था. पहाड़ी परिवेश को अपने-अपने तरीके से नयी जिंदगी सौंपने वाले ये दो अतुलनीय रचनाकार इस घटना के बाद अपने-अपने रास्ते चल दिए और अपने तरीके से हिंदी लेखन को समृद्ध करने लगे.

पंतजी की जयंती पर उनके जन्मस्थान कौसानी में जब मैंने 14 से 16 नवम्बर, 2008 तक तीन-दिवसीय ‘पन्त-शैलेश स्मृति’ का आयोजन किया था, इसके पीछे उस घटना का कोई प्रत्यक्ष दबाव तो नहीं रहा होगा, अलबत्ता 1967 में मटियानीजी के कर्नलगंज वाले घर में उनके साथ बधी इस शर्त की जरूर याद थी, जिसमें हम लोगों ने आपस में एक मजेदार शर्त बांधी थी.
(Batrohi Article October 2021)

हम लोग ‘विकल्प’ के लिए सदस्यता अभियान में जुटे हुए थे. हिंदी के लगभग सभी शीर्षस्थ रचनाकारों को सदस्य बनाया जा रहा था. शिवमंगल सिंह सुमन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हरिवंश राय बच्चन आदि कुछ बड़े नामों की मुझे आज भी याद है जो तत्काल सदस्य बन गए थे. मटियानीजी सभी लेखकों को लम्बे-लम्बे पत्र लिखते थे और पत्र के साथ अपनी ओर से अपना पता लिखा एक मनीआर्डर फार्म भी भेजते थे. उन दिनों आजीवन सदस्यता की राशि 101 रुपये थी, मुझे याद नहीं पड़ता कि जिसे भी उन्होंने चिट्ठी भेजी हो, वह सदस्य न बना हो.

मटियानी जी हमेशा सिर्फ लेखन पर आश्रित रहे हैं, इसलिए पैसे का दबाव हर पल बना रहता था. इसके बावजूद उनकी मेहमान-नवाजी पूरे इलाहाबाद में मशहूर थी, खासकर उनके खुद के हाथों बनाया गया भुना हुआ शाही गोश्त. घर में खाने वाले हम सात लोग तो स्थायी सदस्य थे ही: वो, भाभीजी, मैं और चार बच्चे… ऐसा शायद ही कोई दिन होता होगा, जब दो-तीन उनके मित्र और खाने वाले नहीं होते थे. रसोई के कोने में ही दरी बिछाकर खाना होता.

उनकी आदत में एक खास बात और शामिल थी कि वह कोई रकम भविष्य के लिए बचाकर नहीं रखते थे. चाहे सौ मिलें या हज़ार, तीसरे दिन से फिर वही उधार का सिलसिला शुरू हो जाता था, हालाँकि पैसे मिलते ही सारा पुराना उधार चुकता हो जाता था. बच्चों की फरमाईशों को किसी भी हालत में वो अनदेखा नहीं करते थे. जिन दिनों पैसे नहीं हुए, मामूली साग-रोटी, बच्चों के लिए दूध, मगर पैसा हाथ में आते ही शाही शौक शुरू हो जाते थे.
(Batrohi Article October 2021)

एक दिन जब कुछ कड़की से गुजर रहे थे, तो मैंने उनसे कहा, “आप तमाम लोगों को तो पत्र लिखते रहते हैं, आपके इलाके का इतना बड़ा साहित्यकार बिलकुल पड़ोस में रहता है, उन्हें क्यों नहीं लिखते?”

वो अजीब-सी नज़रों में मेरी ओर देखने लगे, मानो जवाब देने के लिए कुछ कुछ सूझ न रहा हो. कुछ देर के मौन के बाद आत्मालाप की मुद्रा में बड़बड़ाए, “मैं तो उनके पास जाऊँगा नहीं, तुम चाहो तो उनको विकल्प का सदस्य बना लाओ.” उनकी यह बात मेरे लिए चुनौती थी, सदाशयता या गुस्सा था, मैं उनके भाव पकड़ नहीं पाया; अलबत्ता जब दूसरे दिन मैंने पंतजी के हस्ताक्षरों वाला एक सौ एक रुपये का चेक उन्हें थमाया, उन्होंने उसे फ़ौरन माथे से लगाया और घर के मंदिर में उसे छुआकर अपने पर्स में सम्हाल लिया.

‘पन्त-शैलेश स्मृति’ का आयोजन भी इसी तरह के संयोगों की उपज था. मन  के किसी कोने में तो यह बात दबी हुई थी ही कि अपने इलाके के इन दो बड़े लेखकों को मैं कभी एक मंच पर बैठाकर पहाड़ के ही नहीं, भारतीय साहित्य के बड़े लेखकों का आपसी विचार-विमर्श सुनूँ. मगर जब अचानक एक संयोग बन पड़ा तो जाने कैसे एक सपने की तरह सब कुछ संभव हो गया.

भावना पवित्र और सहज हो तो रास्ते खुद-ब-खुद निर्मित हो जाते हैं और हर चीज संभव हो जाती है. उत्तराखंड में हमारी सरकार बन चुकी थी और अपने-अपने ढंग से लोग अपने रास्ते तलाशने लगे थे. एक दिन मेरे एक प्रशंसक युवा राजनेता प्रकाश पन्त जब उत्तराखंड के पर्यटन और भाषा महकमों के मंत्री बने, उनका फोन आया कि वो कुछ बात करना चाहते हैं. अपनी कुमाऊँ-यात्रा से लौटते हुए उन्होंने मुझे काठगोदाम के कुमाऊँ मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस में बुलाया और मुझसे कहा कि मैं साहित्य और संस्कृति विभाग का रूप तराशने में उनकी मदद करूं. मुझे एक प्रस्ताव तैयार करने की पेशकश की; और जब मैंने उन्हें अपनी योजना बताई, सीधे-सीधे क्लीन चिट दी कि पैसे की कोई चिंता किया बिना मैं कौसानी में अपना समारोह आयोजित करूँ. कोई शर्त या अपेक्षा नहीं थी, उन्होंने तत्काल एक अनुमानित बजट बनाने के लिए कहा. मैंने अनुमान से चार लाख का बजट उनके सामने रख दिया. जिसे उन्होंने बिना बारीकी से देखे ‘स्वीकृत’ लिखकर अपने सचिव को सौंप दिया. नियत समय पर संपन्न आयोजन की समाप्ति के बाद मैंने रु. 4, 77, 000 का बिल उत्तराखंड के वित्त विभाग को सौंपा जिसमें रु. 4,55,250 रु सरकार ने दिए और शेष रु. 1,750 महादेवी सृजन पीठ ने अपनी ओर से खर्च किया.)

14 से 16 नवम्बर, 2008 को महाकवि सुमित्रानंदन पन्त की जन्मस्थली कौसानी में आयोजित इस भव्य समारोह का उद्घाटन उत्तराखंड के राज्यपाल बीएल जोशी ने किया. उत्तराखंड के लगभग सभी नामचीन रचनाकारों के अलावा भारतीय भाषाओं के इन चर्चित रचनाकारों  ने भी समारोह में हिस्सा लिया था:

एम. शेषन (तमिल), पी. मणिक्याम्बा और के.लीलावती (तेलुगु), रंजना अरगड़े और नयना डेलीवाला (गुजराती), सुमंगला मुम्मीगट्टी (कन्नड़) तथा शशिबाला महापात्र  और दासरथी भुइयां (ओडिया). कुल 150 से अधिक साहित्यकारों ने हिस्सा लिया जिनमें उत्तराखंड की सभी क्षेत्रीय भाषाओं, गढ़वाली, कुमाऊनी, जौनसारी, शौका और रं के सभी चर्चित लेखकों ने हिस्सा लिया. सभी के ठहरने और आतिथ्य की व्यवस्था तीन-चार दिनों तक कौसानी में ही की गई थी. किसी स्टार रिजोर्ट की मदद लिए बगैर हर संभव सुविधाजनक आतिथ्य की व्यवस्था कौसानी जैसे छोटे कसबे में की गई थी. तीन दिनों तक हम तमाम लेखक पंतजी और मटियानीजी की स्मृतियों की छांह में भाव-विभोर थे.
(Batrohi Article October 2021)

जैसे पहाड़ियों के हर काम में खुड़चं

शायद वो सितम्बर या अक्तूबर का महीना था, मैं आयोजन की तैयारी में जी-जान से जुटा हुआ था. रात के करीब साढ़े दस बजे फोन की घंटी बजी.

“डेल्ही स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से पीसी जोशी बोल रहा हूँ. आपने नाम सुना होगा.”

अधनींद में ही मैं उठकर चारपाई पर खड़ा हो गया. “अरे सर, कैसी बात कर रहे हैं?” मैंने हकलाते हुए कहा.

“आपने किस आधार पर सेमिनार में सुमित्रानंदन पन्त और शैलेश मटियानी का नाम एक साथ जोड़ा है? भई, दोनों की क्या कोई तुलना है? एक पुराने दौर के कवि हैं और दूसरे कहानी-किस्सों के वर्तमान समय के लेखक. भाषा के लिहाज से भी उन्हें एक जगह पर खड़ा नहीं किया जा सकता.” करीब घंटे भर तक बहुत-सी बातें उन्होंने कहीं, जिनका जिक्र करने का अब कोई मतलब नहीं है. अलबत्ता, बीच में वो यह कहना नहीं भूले कि सरकारी पैसा मिल रहा है, इसका ये मतलब तो नहीं है कि आप मनमानी करने लगें. किसी साहित्यकार से आपने इस मामले में राय ली? दिल्ली के कई लेखकों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, आप चाहें तो उनके नंबर भेज सकता हूँ. बिना साहित्यकारों की राय के आप इतना बड़ा निर्णय कैसे ले सकते हैं?” साफ झलक रहा था कि वह काफी गुस्से में थे.

ईमानदारी से कहूँ, उनके फोन का मुझे इंतजार ही था.  मैं उन्हें सेमिनार में शामिल होने के लिए लिखने ही वाला था, पता चला वे काफी अस्वस्थ हैं, पत्र भेजा नहीं जा सका. शेखर पाठक से मैंने उनका पता लेकर अपने कार्यालय में रक्खा था. मगर उन्होंने मुझे अपनी बात कहने का मौका ही नहीं दिया, बात वैसी ही आधी-अधूरी ख़त्म हो गई. कल्पना की जा सकती है कि रात दस बजे तक गहरी नींद में सो जाने वाले मुझ गँवाड़ी आदमी की वह रात कैसी कटी होगी!  
(Batrohi Article October 2021)

जैसा कि होना ही था, ‘पंत-शैलेश स्मृति’ आयोजन बिना पीसी जोशी-जूनियर की उपस्थिति के पूरी भव्यता के साथ संपन्न हो गया और सरकार के पैसों से ही हुआ. उत्तराखंड और देश की विभिन्न भाषाओं के लगभग सभी प्रमुख रचनाकार एक मंच पर तीन दिनों तक एक साथ बैठे और उन्होंने एक-दूसरे को नजदीक से जाना; अपनी भाषा और समाज की समस्याओं और उपलब्धियों को आपस में शेयर किया. सभी लोग कौसानी की खूबसूरत वादियों का आनंद उठाकर खुशी-ख़ुशी अपने-अपने घर लौटे.

मुझे भी अच्छा लगा, बावजूद इसके कि मैं बहुत दिनों तक महादेवी पीठ के निर्देशक के रूप में अपनी यात्रा जारी नहीं रख सका. खैर, जो बीत गया, सो बात गई. हमें अब राज्य-निर्माण के इक्कीस सालों के बाद तो इक्कीसवीं सदी के उत्तराखंड के बारे में सोचना ही पड़ेगा. आखिर इसे बनाना या बिगाड़ना भी हमें ही है. जहाँ तक सरकार का सवाल है, जैसी जनता होगी, सरकार उसी का तो प्रतिबिम्ब होगी! वैसी ही लच्छेदार अंग्रेजी बोलने वाले हमारे नौकरशाह होंगे और युवा पीढ़ी का एकमात्र सपना आइएएस, पीसीएस क्वालीफाई करने के बाद कलक्टर, पुलिस कप्तान और राजस्व अधिकारी बनने के सपने पूरे करके बौलीवुडी-हिंदी लिख-सुना कर अपनी जनता और युवा पीढ़ी को आतंकित करना होगा. इसी से तो बनेगा हमारा प्यारा उत्तराखंड, जिसके सपने हमारे पुरखों ने सदियों पहले देखे थे और जिसकी पहली परिकल्पना हमारे प्यारे कामरेड पीसी जोशी ने की थी.
(Batrohi Article October 2021)

कार्यक्रम से जुड़ी कुछ तस्वीरें:

कार्यक्रम का उदघाटन करते हुए उत्तराखंड के राज्यपाल बी. एल. जोशी (बाएँ), बगल में बैठे पर्यटन और भाषा मंत्री प्रकाश पन्त और संयोजक बटरोही (दायें)
कार्यक्रम के प्रतिभागी रचनाकार
कुमाऊनी-हिंदी रचनाकार: बाएँ से- महेंद्र मटियानी, मथुरादत्त मठपाल, जगदीश जोशी, शेरसिंह बिष्ट, शेरदा ‘अनपढ़’, शेरसिंह पंगती और देवकी महरा.
हिमांशु जोशी, शैलेश मटियानी, आरएस टोलिया
प्रो. मणिक्याम्बा, नयना डेलीवाला, रंजना अरगड़े, शैलबाला महापात्र, गणेश खुगशाल, शेरदा अनपढ़, रतनसिंह जौनसारी, के लीलावती, देवकी महरा.
आंध्र विवि विशाखापटनम के हिंदी विभागाध्यक्ष इकबाल मुहम्मद शेख रामगढ़ में महादेवी की याद में दीप जलाते हुए। पीछे खड़े हैं कवि गिर्दा और चंद्रकला रावत

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन. 

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