उत्तराखंड की सभ्यता के विकास को नौलों से काट कर नहीं देखा जा सकता है. वैसे भी हम जब इतिहास के बारे मे अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ था सभी पुरानी सभ्यताऐं नदियों के किनारे पर ही बसी, कारण था पानी की जरूरत.
उत्तराखंड मे यूं तो नदियों का जाल है जिसकी वजह से पानी की इफरात है, परंतु नौले का पानी पुराने शहरों की बसावत का आधार बना. उदाहरण के लिए सबसे समृद्ध शहरों में एक अल्मोड़ा, जो कि प्राचीन उत्तराखंड का शिक्षा केंद्र था, अपने 52 नौलों के लिए जाना जाता था. धारानौला नाम नौले के कारण ही पड़ा.
नौले वैसे ही बनते हैं जैसे मैदानी क्षेत्रों में बावड़ी बनती है पहले एक ऐसी जगह को तलाश लिया जाता है जहां पर धरती से पानी का लगातार रिसाव हो रहा हो. इसके आस-पास पेड़ों की काफी संख्या होती है जो जलसंचय का काम करते हैं और फिर धीरे-धीरे पानी छोड़ते हैं जिसे एक जगह पर इकठ्ठा कर लिया जाता है जिसके चारों तरफ दीवार डालकर ढालदार छत डाल दी जाती है. अब पानी गंदगी से सुरक्षित हो जाता है और एक तरफ नल लगाकर पीने का पानी ले लिया जाता है.
नौलों का पानी स्वास्थ्यवर्धक व स्वाद में निर्मल और मीठा होता है पहाड़ों के पेड़ों और जड़ी-बूटियों का भी शायद इस पर प्रभाव पड़ता होगा इसीलिये इस स्वाद का पानी देश में शायद ही कहीं अन्य मिलता हो. गांवों के लोग अपने-अपने नौलों को दैवीय भाव से पूजते हैं और वर्ष के कुछ दिनों को, जैसे महीने दो महीने में एक दिन, उसकी सफाई के लिए मुकर्रर कर देते हैं. सुबह और शाम के समय महिलाएं फौलों (तांबें की गगरी) के साथ यहां आपस में बातचीत करती दिख जाती हैं, यह एक जनमिलन का केन्द्र भी बन जाता है.
नौले जल के स्रोत के साथ साथ सुख-दुःख की बांट करने वाली जगह भी बन जाते हैं. इनके बिना उत्तराखंड के पुराने नगरों अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चंपावत, लोहाघाट का निर्माण शायद ही संभव हो पाता.
हल्द्वानी के रहने वाले नरेन्द्र कार्की हाल-फिलहाल दिल्ली में रहते हैं.
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