नानाजी किसी बीमा कम्पनी में लम्बी नौकरी कर बड़ी पोस्ट से रिटायर हुए थे. सगे नाना नहीं थे. किसी रिश्ते से माँ के चचा लगते थे. हमारे बचपन में जाड़ों के दिनों वे हमारे घर आते तो दो-दो, तीन-तीन महीनों तक मेहमानों वाले कमरे में उनका ठिकाना रहता. इस दौरान वह कमरा बीड़ी-सिगरेट के बेहिसाब धुएं से अटा रहता. वे दिन में अस्सी-नब्बे पनामा की सिगरेटें और पांचेक बण्डल इकतालीस नंबर बीड़ी के फूंक लेते थे. उनका यह हिसाब देखकर हमारे असंख्य परिचित-संबंधी तकरीबन पचास साल से उनके जल्दी मर जाने की भविष्यवाणियाँ करते रहे थे. यह और बात थी कि उनमें से ज़्यादातर खुद समय-समय पर अपने अपने बखत पर एक के बाद अल्लाह मियाँ की ठौर निकल चुके थे. ऐसी किसी मृत्यु के घटने पर किसी सिद्धहस्त कलाकार की साधना से पाई अद्वितीय अदा के साथ बीड़ी का आखिरी कश चूसते हुए नानाजी कहते – “शाहजहाँपुर में भी हमारा एक एजेन्ट ठीक ऐसे ही सांस की नाली बंद होने से चल दिया था.”
किसी सफ़र में निकलना होता तो पनामा सिगरेट के डिब्बों की एक बड़ी पेटी जिसे टुकड़ा कहा जाता था, उनके बैग में सबसे पहले सैट होती थी और ऐसा ही एक टुकड़ा इकतालीस नंबर बीड़ी का भी. कपड़े-मंजन-साबुन का नंबर उसके बाद आता. बीड़ी और सिगरेट पीने को लेकर उनके जैसा उत्साह मैंने आज तक किसी नश्वर मानव में नहीं देखा. दिसंबर की एक सर्द दोपहर अपनी मौत से पहले तक उन्होंने उस दिन भी एक दर्ज़न पनामा के अलावा इकतालीस नंबर बीड़ी का एक पूरा पैकेट निबटाया था. उसी साल अगस्त में उन्होंने अपना तिरानावेवां जन्मदिन मनाया था. मुझ समेत मेरे अपने खानदान के तकरीबन दस चचेरे-ममेरे भाइयों ने सिगरेट की लत उन्हीं के धूम्र-भण्डार में डाका डाल कर हासिल की थी.
नानाजी शानदार थे – लंबा कद, सीधी रीढ़ और दया से भरपूर मुलायम, उष्माभरी हथेलियाँ. उनके पास गिने-चुने किस्से थे और वे उन्हीं को घुमा-फिरा कर हमें दस-दस हज़ार बार हमें सुना चुके थे – पीलीभीत में उनकी ब्रांच में 31 मार्च की एनुअल क्लोजिंग की रात को पड़ी डकैती, आगरा में पुलिस कप्तान के साथ ताजमहल की पैमाइश, 1930 के नैनीताल में रात-रात चलने वाले फिल्म शोज़, बड़ौदा में मुसलमान हलवाई के गोदाम में बिताई एक सर्द रात, बरेली में दिलीप कुमार और मधुबाला के साथ फोटो खिंचाना, और उनका इकलौता अँगरेज़ दोस्त एरिक विल्सन लम्बू. वे इन किस्सों को बार-बार सुनाते और हम उन्हें सुना करते क्योंकि वे शानदार थे – उनके पास लेमनचूस और विलायती मिठाई का अजस्र भण्डार रहा करता और एक-एक दो-दो रुपये की अनगिनत गड्डियां भी जिनमें से निकाल-निकाल कर वे हमें हमारे माँ-बाप की निगाह चुरा कर एक्स्ट्रा पॉकेट मनी दिया करते थे. उनके बेपरवाह व्यवहार में कुछ ऐसा अपनापन और अनौपचारिकता हुआ करती कि हम आठ-नौ बरस के बच्चों को भी वे अपनी उम्र के लगा करते थे और हम पच्चीस-तीस के हुए तो भी वैसे ही. संक्षेप में वे एक लौंडे टाइप के दुर्लभ बुड्ढे थे.
उनकी एक ख़ूबी और थी. अखबार या मैगजीन में किसी भी फ़िल्मी हीरोइन का फोटो छपा दीखता या टीवी पर आ रही फिल्म में कोई भी हीरोइन डांस कर रही होती तो वे झट से कहते – “ये मधुबाला है ना!” और बरेली में दिलीप कुमार और मधुबाला के आने का किस्सा सुनाते.
मैं तीस-बत्तीस का रहा होऊँगा जब मैंने पहली बार उनके साथ शराब पी. बावजूद इस के कि दस-बारह बरस पहले वे खुद हमारे पड़ोस में स्थाई रूप से शिफ्ट हो गए थे, उन्हें हमारे घर रहना अच्छा लगता था. माँ-पिताजी से उनका विशेष स्नेह था. तब वे अस्सी के रहे होंगे. कुछ ऐसा संयोग बना कि घर पर बस हम दोनों ही थे. उन्होंने शाम को मुझसे उसी अनौपचारिकता से पूछकर तस्दीक भर की कि मैं पीता हूँ या नहीं. बस. और कोई अभिभावकनुमा ड्रामा नहीं किया. उनकी कैपेसिटी अच्छी खासी थी. रात का खाना उन्होंने बरसों पहले छोड़ दिया था. धुंआं ही उनकी खुराक था. धुंआं ही उनकी जीवनदायिनी ऑक्सीजन थी. हमने पूरी बोतल निबटाई और उत्साहपूर्वक दुनिया भर की गप्पें मारते रहे. उनका एनर्जी लेवल देखने लायक था जबकि मैं अद्धे के बराबर रम ठूंस चुके होने के कारण भुसकैट हो चुका था.
इसी दौरान टीवी पर ‘तेज़ाब’ आना शुरू हुई. माधुरी दीक्षित को देखते ही वे बोले – “ये मधुबाला है ना!” मैं कुछ कहता उसके पहले ही वे बोल पड़े – “एक बार बरेली आई थी ये दिलीप कुमार के साथ!” फिर दस हज़ार एकवीं दफा बरेली का किस्सा जिसमें उनके असिस्टेंट ब्रांच मैनेजर ने उस होटल के मैनेजर को फ्री का बीमा कराने का लालच देकर पटा लिया था जहाँ दिलीप कुमार और मधुबाला ठहरे हुए थे.
ग्यारह बजे के आसपास मैं सोने को जाने लगा तो वे बोले – “नाती, हमारे ज़माने में अंग्रेज़ी पिक्चरों की एक हीरोइन हुआ करती थी … अहा … क्या गज़ब की हीरोइन थी … बस उसी की पिक्चरें देखते थे हम … क्या गज़ब की एक्टिंग करती थी और वैसा ही डांस भी. और अंग्रेज़ी पिक्चर की आदत जो है वो हमको डलवाई उसी एरिक विल्सन लम्बू ने.”
मधुबाला के बाद मुझे यह दिलचस्प विषयांतर लगा. नींद आ रही थी लेकिन मैं कुछ देर उन्हीं के पास ठहरा रहा. नानाजी ने एरिक विल्सन लम्बू के हवाले से आधे-पौन घंटे तक उस हीरोइन की खूबसूरती और लोकप्रियता के किस्से बताना शुरू किया. मैंने उनसे हीरोइन का नाम पूछा तो वे कुछ देर सोचने के बाद बोले – “याद नहीं आ रहा है नाती! कल बताऊंगा.”
अगली सुबह मैंने उन्हें कम्प्यूटर पर जोन फॉन्टेन से लेकर रीटा हेवर्थ और लाना टर्नर से लेकर एवा गार्डनर तक के तमाम फ़ोटोग्राफ़ दिखाए लेकिन उन्हें उस अँगरेज़ हीरोइन का नाम याद नहीं आया.
इत्तफाक से टीवी पर उसी दिन डस्टिन हॉफमैन और मैरिल स्ट्रीप की ‘क्रैमर वर्सेज़ क्रैमर’ आ रही थी. मैरिल स्ट्रीप को देखते ही वे बोले – “ये वही हीरोइन है!”
“नानाजी मैरिल स्ट्रीप है ये!”
“अरे नहीं नाती, उसका नाम ये नहीं था! ये वो नहीं है.” नानाजी फिर से हीरोइन का नाम याद करने लगे.
अगले दस सालों में नानाजी के साथ करीब सौ बार ऐसा घटा कि टीवी पर हिन्दी फिल्म चल रही होती थी और हीरोइन के आते ही वे कह पड़ते – “ये मधुबाला है ना नाती!” जूही चावला से लेकर शबाना आजमी और करिश्मा कपूर से लेकर जयाप्रदा को उन्होंने मधुबाला ही बताया. ऐसे मौकों पर हम ने प्रतिवाद करना बंद कर दिया था. अलबत्ता इसी तरह अंग्रेज़ी फिल्म देखते हुए जब उन्होंने एंजेलिना जोली को अपनी वही वाली प्रिय हीरोइन बताया और सांड्रा बुलक को भी तो मैं उनके नाम उन्हें बता दिया करता. वे जैसे अपने आप से कहते – “उसका नाम कुछ और था नाती!” इसके बाद उन्हें अपनी प्रिय अँगरेज़ हीरोइन की याद आती और वे असहाय होकर मुझसे कहते – “नाम याद नहीं आ रहा यार नाती! … क्या हीरोइन थी … क्या डांस करती थी … क्या एक्टिंग करती थी …” और नाम याद करने की कोशिशों में जुट जाते.
मेरे लिए दस सालों से यह नाम एक गुत्थी बन चुका था और मुझे यह यकीन करने का मन होता था कि नानाजी की याददाश्त काफी बिगड़ चुकी है और यह भी कि अपने जीवनकाल में वे अपनी प्रिय अँगरेज़ हीरोइन का नाम शायद न बता सकें.
वे नब्बे के आसपास के हो रहे थे. हमारे पड़ोस में एक ग़मी हो गई थी. तेरहवीं के दिन मैं उन्हें अपने साथ उस घर में ले गया. संपन्न घर था. नए ज़माने के ठाठ के हिसाब से तेरहवीं के दिन भी लंच का माहौल बनाया गया था – पंडाल, हलवाई वगैरह और पीने को मिनरल वाटर की छोटी-छोटी बोतलें. नानाजी को एक कुर्सी पर स्थापित कर मैं उनके लिए थाली लगाने चला गया. मैं दूर से देख रहा था. कोई उन्हें पानी की बोतल थमा चुका था. वे आदतन अपने मोटे चश्मे से बोतल को गौर से देख रहे थे. फिर मैं कुछ देर एक परिचित से दुआ-सलाम में लग गया. थाली लगा ही रहा था कि पीछे से एक हाथ कंधे पर महसूस हुआ. पलट कर देखा. नानाजी थे.
“नाती वो जो अँगरेज़ हीरोइन थी ना …” मुझे तुरंत शर्मभरी झेंप महसूस हुई कि एक तरफ तो पूड़ियाँ और पनीर भकोसते लोगों से अटा तेरहवीं की ग़मी का भीड़भरा पंडाल और दूसरी तरफ अपने पोते से अँगरेज़ हीरोइन की बात कर रहा नब्बे बरस का बूढ़ा. आसपास खड़ी दर्ज़न भर निगाहों ने हमें हल्की मुस्कान के साथ देखना शुरू कर दिया था.
मैं थाली लगाना छोड़ उनकी बात काटता हुआ बोला – “आप वहीं बैठो न नानाजी! मैं ला रहा हूँ आपका खाना …”
“अरे नाती उसका नाम मिल गया. उस अँगरेज़ हीरोइन का …”
मैं हैरत और झेंप में खड़ा समझने की कोशिश कर रहा था कि नब्बे साल का यह खब्ती गपोड़ बूढ़ा तेरहवीं के समय किये जाने वाले औपचारिक व्यवहार से इस कदर बेपरवाह कैसे हो सकता है.
मेरी मनःस्थिति से बिलकुल बेज़ार अचानक मुदित हो आये नानाजी ने बोतल पर लिखे लेबल पर उंगली धरते हुए कहा – “हद हो गयी यार … मैं उसका नाम भूल कैसे गया होऊँगा. नाती, उस हीरोइन का जो है नाम था … मिनरल मारले …”
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2 Comments
Suresh
बढ़िया ??
डॉ0 प्रदीप कुमार
कथावस्तु और शैली दोनों रोचक हैं। शीर्षक में माधुरी दीक्षित की जगह मधुबाला होना चाहिए था, क्योंकि नानाजी बार बार यही पूछते थे, “ये मधुबाला है क्या?”