किसी भी परिवार में शिशु का जन्म किसी उत्सव से कम नहीं है. कुमाऊं में पहले शिशु के नामकरण किस तरह किया जाता जाता था, इस पर एटकिंसन ने क्या लिखा है पढ़िये :
पूरे कुमाऊं में सामान्य रूप से शिशु के जन्म के ग्यारहवें दिन नाम रखने की परम्परा है. इस दिन तक शिशु को सूरज नहीं दिखाया जाता है साथ ही जन्म देने वाली महिला को अलग से उसके शिशु के साथ रखा जाता है.
नामकरण की शुरुआत गणेश पूजा से ही होती है. इसके बाद प्रसूतागृह की शुद्धि के लिये पंचगव्य बनाया जाता है. यह पंचगव्य पत्थर के रंग की गाय के मूत्र, काली गाय के गोबर, कापर के रंग की गाय का दूध, सफ़ेद गाय का दही और चितकबरे रंग की गाय का घी मिलाकर बनाया जाता था. पंचगव्य के छोटे-छोटे गोले बनाये जाते थे और उन्हें अग्नि में डाला जाता था. बचे हुये पंचगव्य को घर में बिखेरा जाता और शिशु और मां की शुद्धि के लिये उन पर भी छिड़का जाता.
अग्नि में सिक्के चढ़ाये जाते थे जो बाद में नामकरण करने वाले ब्राह्मण के हो जाते. इसके बाद ब्राह्मण जन्म-समय की गणना कर पीले कपड़े में रक्त चंदन से राशि के अनुसार शिशु का नाम लिखता है. उस कपड़े को शंख में लपेट कर शिशु का पिता उसके कान में नाम का उच्चारण कर उसके स्वस्थ्य और संपन्न होने की कामना कहता है. ऐसा ही परिवार के अन्य सदस्य भी करते हैं.
इसके बाद बच्चे को लेकर आंगन में लाया जाता है जहां उसे पहली बार सूर्य दिखाया जाता है. आंगन में पहले से ही सूर्य की एक आकृति बनाई गयी होती है.यहां शिशु काप पैर पहली बार भूमि में रखे धन पर रखा जाता है और यह कामना कि जाती है कि शिशु अपने जीवन में धन अपने पैरों की धूल की तरह अर्जित करेगा.
इसके बाद पुनः घर के भीतर मातृ पूजा होती है जिसमें घर की दीवार पर बनी सात देवियों की पूजा की जाती हैं. इन सात देवियों का चित्रण घर की दीवार पर ही होता था अन्य किसी लकड़ी पर नहीं. इसके बाद सभी ग्रामीणों को भोज कराया जाता है और ब्राह्मण को उपहार दिये जाते हैं.
एटकिंसन की पुस्तक हिमालयन गजेटियर के आधार पर.
-काफल ट्री डेस्क
काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें