पिछली कड़ी यहां पढ़ें- वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई: पिथौरागढ़ महाविद्यालय में मेरा पहला दिन वर्ष 1979
सितम्बर का महीना भीगी भीगी सी सुबह. दीप तो साढ़े चार बजे ही आ मेरा दरवाजा खटखटा चुका था. साथ में कुण्डल, करमदा, दीवानी और इनके पीछे शरमाया सा एक चेहरा. कुण्डल ने बताया ये सोबन है. एम ए इतिहास से कर रहा. कल ही घर लौट बाजार खरीदारी करने निकले मैं और करम दा,तो मिल गया. इसे बताया तो बस पीछे ही पड़ गया. खूब घूमा फिरा है. मैंने कहा चल फिर,साब लोग मना थोड़ी करेंगे. ठीक है. चलें फिर.
(Namik Travelogue Mrigesh Pande)
पांच बजे हम सिलथाम में मौजूद थे. अपने पिट्ठू और झोले झुंन्तुरों के साथ. मेरा और दीप का भारी झोला सोबन ने लाद लिया था. सिलथाम में घड़ी देखते, नगरकोटी टी स्टॉल में दो तीन बार चाय सुड़काते छह बजे साढ़े छह बजे और अब तो सात बजने को हो आए पर पिकअप न आई. अब?
आ जायेंगे साब लोग. अब फ़ौज के बड़े खाने की दावत हुई देर रात तक.आँख लगी होगी जो अब -तब खुल ही जाएगी. करम दा बोले .दीप नए आये चेले सोबन के साथ बात चीत का रहा था. मैं भी सिल्थाम की सड़क पर निर्मल की सवारी कब आएगी सोचना छोड़,उनके पास बैठ गया.
नामिक के बारे में बता रहा है सोबन ये अपने बाबू के साथ जा चुका है वहां.
हाँ सर. कल कुण्डल दा मिल गए बाजार में खरीदारी करते. मैंने पूछा आज बड़ी खरीदारी हो रही तब उन्होंने ही बताया कि नामिक ग्लेशियर जा रहे. बस मैंने भी जिद पाड़ दी. नामिक गांव तक तो गया हूँ बस ग्लेशियर तक नहीं जा पाया अपने बबा के साथ . अभी ये सितम्बर के बाद का मौसम भी सही रहता है..
पता नहीं साहजी का मौसम कब ठीक होगा. ठीक पांच बजे सिल्थाम से चल देंगे पक्का,कह रहे थे कल. मैंने अपनी खीज मिटाने को कहा.
आ जायेंगे. वैसे भी आज हम नाचनी तक ही पहुँच पाएंगे. उससे आगे की पैदल चढाई तो कल से ही शुरू होगी.सोबन बोला .
निर्मल हुआ वो. अभी आ कर ऐसी हबड़-तबड़ करेगा कि कोई पूछ न पाए कि वो लेट है.अब सुन,सोबन वहां पहुँचने का रूट बता रहा था. कुण्डल की दी कैप्सटन सुलगाते दीप बोला.
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‘हाँ, तो सर मैं बता रहा था कि जहाँ हम जा रहे हैं नामिक ग्लेशियर. वहीँ से निकलती है रामगंगा नदी…
यही रामगंगा नदी है जो हमारे डिस्ट्रिक्ट पिथौरागढ़ को बागेश्वर जिले से अलग करती है, मल्लब ये दोनों जिलों के बीच की सीमा रेखा है.
रामगंगा नदी के एक किनारे पर पिथौरागढ़ का हमारे मुंशियारी का नामिक गांव पड़ने वाला ठहरा तो दूसरे किनारे में बागेश्वर के कपकोट ब्लॉक का कीमू गोगिना गांव जो पिथौरागढ़ से करीब एकसौ पच्चीस किलोमीटर दूर होता है. थल-मुंशियारी वाले रास्ते में विरथी बला के सामने द्वाली गाड़ से करीब पचीस किलोमीटर दूर पैदल चल भी नामिक पहुंचा जा सकता है. फिर बागेश्वर से करीब पिछत्तर किलो मीटर की दूरी पर हुआ गोगिना. अब गोगिना से सात-आठ मील पैदल चल आता है नामिक गांव. हम लोग तो थल वाले रस्ते से ही आगे बढ़ेंगे. सोबन की बात पर करम दा ने मुंडी हिलाई. करम दा ने अभी से सर में कान कस के मफलर लपेटा था. पूछने पर बताया कि सफर की सर्र-फर्र हवा कान को नहीं बुजाती.
नामिक गांव जो हुआ सर जी,वो दो ग्लेशियरों के खड्ड में यानि तले में बसा है इनमें एक तो अपना नामिक ही हो गया जहाँ हम जा रहे हैं तो दूसरा हुआ हीरामणि ग्लेशियर.
नामिक गांव में सात आठ जातियों के लोग रहते हैं जिनमें कन्यारी ,टाकुली ,रौतेला भंडारी और दानु के साथ अनुसूचित जनजाति के जैम्याल और अनुसूचित जात के लोहार खास हुए. नामिक के आस पास के इलाके में खूब जड़ी बूटी होने वाली ठहरी. ऊपर के इन इलाकों में मोनाल भी दीखता है. आपको फोटो खींचने को खूब मिलेगा वहां. सोबन मुझसे बोला आप बस कैमरा थामना,आपका झोला पिट्ठू मैं बोक लूंगा.
अब साब. यहाँ तक वहां की खास चीज तो नामिक का आलू और सीमी हुई .सीमी यानि राजमा. चार उबाल में पक जाती है ये मैदान जैसी ठस्स नहीं,कि दे सिटी पे सिटी से भी नहीं पक रही. अभी गंधरेंण भी होती है उस इलाके में फिर जड़ी बूटी का तो भंडार हुआ. मैया ने रोग -शोक हरने को सब दे रखा है वहां. करमदा ने बताया.
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हाँ, सर. हर तीसरे साल नंदा राज जात ले जाते हैं नामिक वाले. खूब बड़ा उत्सव हुआ ये जिसमें नामिक की पूरी ग्राम पंचायत तो हुई ही आसपास से होकर, गौला, डोर विरथी रातिरकेटी, सैण राठी, गिन्नी भण्डारीगांव के लोगबाग जमा होते हैं. फिर सब लोग चढाई चढ़ते हैं नंदा कुंड तक की. दस बारा पन्द्रा लोगों का दल बन कर नंदा कुंड तक जा पहुँचता है. वहां से पवित्र फूल ब्रह्म कमल लाते हैं .गांव में लौट कर ब्रह्म कमल के फूलों से ही नंदा देवी माता की पूजा की जाती है. बात करते करते सोबन के हाथ जुड़ गए थे.
मेरे आगे भी कहीं नैनीताल नयना देवी का मंदिर आ गया. ये नयना देवी ही नंदा देवी हुई जो पूरे अपने पहाड़ की ईष्ट देवी हुई. इसी के नाम का शिखर हुआ नंदा देवी शिखर.हमारी पदी बुआ के बाबूजी हुए पंडित कुलोमणि. उन्होंने बताया था कि पुराणों में लिखा है कि अत्रि, पुलस्त्य और पुलह ऋषि जो थे उन्होंने इस घाटी में तपस्या की थी. फिर वह शिव जी की कथा सुनाते कहते थे कि जब दक्ष प्रजापति की पुत्री सती की बायीं आँख इस रमणीक स्थान पर पड़ी तो यहाँ यह सरोवर बन गया. सती के अंश विष्णु भगवान के सुदर्शन चक्र से जिन स्थानों में गिरे वहां शक्ति पीठ स्थापित हो गये.
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चल, कॉपी कलम ला अपनी. ऐसे थोड़ी याद होता है. तेरी लेखनी तो खूब सुन्दर है. चल लिख अब. शिव चरित्र, कालिका पुराण, तंत्र चूड़ा मणि, योगिनी ह्रदयतंत्र, दाक्षायणी तंत्र में शक्ति पीठ एकावन बताये गये. अब दूसरी तरफ देवी भागवत, पुराण, मतस्य पुराण जैसे और कई ग्रन्थ हैं जिनमें शक्ति पीठ एक सौ आठ बताये गये. उनमें ही नयना देवी भी हुईं. लिखा.
हूं, मैंने कॉपी आगे कर दी.
सुन्दर, बस अब बार बार पढ़ना इसको. याद हो जायेगा.
मुझे याद आ रहा था अपना हाईस्कूल जिसके ठीक नीचे रईस होटल था. उसमें ही मेरी पदी बुआ रहती थी और मैं जब भी मन करे वहां चले जाता था. भिंजू का नाम गोविन्द बल्लभ पंत था वो भी कभी कभी होते थे.अक्सर दिल्ली लखनऊ रहते थे.वो नाटक कार थे और चित्रकार भी. ये तब की बात है जब वहां कुलोमणि जी आए थे.
अरे हरीश. तेरा बेटा तो बातें बड़े ध्यान से सुनता है. मेहनती भी लगता है.उन्होंने मेरे बप्पाजी से मेरी तारीफ कर डाली.
डोलता रहता है. अभी आपके सामने बड़ा सीधा हो रहा.बप्पा बोले.
खूब लिख पढ़ और पूछा कर जो समझ में नहीं आता. सब कुछ दुनिया में गुरु की कृपा से मिलता है भाऊ. कुलोमणि बुढ़जू बोले थे. क्या कुछ कहना है? कुछ पूछना है तो पूछ.
मन तो हुई थी कि पूछूँ कि देबी की आँख गिरने से ताल कैसे बन गया? पर पूछ बैठा कि देबी की आँख गिरने से मंदिर कैसे बन गया.
अरे! मंदिर तो बाद में बना रे. अब उन्नीसवीँ सदी में जब यहां के बारे में बहुत लोगों को पता चला तब जा के यहाँ लोग बसे. कार बार चला. यहां के एक सेठ जी हुए जिनका नाम था लाला मोती राम साह. क्या नाम था?
लाला मोती राम साह. मैं खट्ट बोल गया और तुरंत अपनी कॉपी मैं भी लिख दिया. कहीं फिर पूछेंगे और मैं भूल गया तो?
हां! तो भउवा. मोती राम जी ने ही सरोवर के किनारे यह मंदिर बनवाया था. और तो और नैनीताल का पहला भवन जिसको पिलग्रिम कॉटेज कहते हैं, उन्होंने ही बनवाया था.
मैं फटाफट नोट कर रहा था.
पर भउवा, सन 1880 में नैनीताल में भूस्खलन हुआ जिसमें पुराना मंदिर भी काल कलवित हो गया. अब लोग बाग कहते हैं कि लाला मोतीराम साह जी के बेटे अमर नाथ साह जी को माँ नयना देवी ने स्वप्न में दर्शन दिए और वह स्थान बताया जहां देवी की मूर्ति दबी हुई सुरक्षित थी. तब अमर नाथ साह जी ने उस मूर्ति को निकाल कर फिर से वह मंदिर बनवाया जिसके दर्शन हम आज करते हैं. तुझे मालूम है भउवा,ये मंदिर कब बना फिर.
दो चार बरस तो लगे ही होंगे. मैंने अपना दिमाग लगाया.
हाँ पूरे तीन साल लगे.1883 में बन कर तैयार हो गया मंदिर. जेठ शुक्ल नवमी को हर साल देवी माँ का स्थापना दिवस होता है. आगे फिर भादों शुक्ल अष्टमी को नन्दा देवी का मेला होता है. नन्दा -सुनंदा की प्रतिमा बनती है. वही कुमाऊं की कु ल देवी हुई.कुलोमणि पंडितजी ने बताया और जो वो बोले,मैं उसे बस्ते से निकाली अपनी कॉपी में नोट भी करते गया. बाद में जो मिला उसे मैंने बताया कि नयना देवी मंदिर कैसे बना.
अभी मुझे याद हो आया नैनीताल घर से कहीं बाहर जाते ईजा कहती थी, नैना देवी को हाथ जोड़ लेना हाँ. वोई रक्षा करती है.
लो इसने तो मुझे बुला ही लिया. बहुत जिद में रहता था कि रांची के अपने घर से दिखने वाले सामने के पहाड़ पर चढ़ जाऊं. अब नन्दा देवी के पर्वत की ओर जाने का यह कार्यक्रम अचानक ही बन गया. कॉलेज में भी पूरे हफ्ते की की छुट्टी पड़ गई . पहाड़ में चढ़ना, दूर दूर तक निकल जाना और अब उसे अपने कैमरे से खींचना,भीतर तक खुशी भर देने वाली बात तो हो ही गई है मेरे लिए.
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आ गई वो. वो साह जी वाली सवारी. अभी तक चुपचाप बैठा दीवानी तेजी से नगरकोटी चायवाले की बेंच से उठ बीच सड़क पर लाल कत्थई रंग की पिकअप को रुकने का इशारा कर चुका था. पिकअप की छत पर सामान भी लदा था.
टेंट ले आए हैँ वो देखो छत पर लदे हैं. अब वहां सुभीता रहेगा. करमदा बोला.
पिकअप का दरवाजा खोल निर्मल उतरा. अरे टेंट मिलने में देर हो पड़ी. फिर अपने पूसी डिअर के टखने में भी सूजन दिख रही. ड्राइविंग में…
अरे साब उसकी परवाह मत करिये. गाड़ी मैं चलाऊंगा. करम दा बोला और उसने अपने गले का मफलर और कस के बांध लिया.
इश्को टोकते रहना शाब ये तो गाड़ी ऐसे भगाता है जैसे फ्रंट में गोला बारूद पहुँचाना हो. कुण्डल बोला.
करम दा की पनीली भूरी आँखें बड़ी खुश दिख रही थीं.
कुण्डल फौरन दो चाय के गिलास ले साह जी और मेजर साब पूसी के हाथ में थमा चुका था. दोनों बेंच पर बैठ गये.
खूब खुली वैली है पिथौरागढ़. अल्मोड़ा तो बस घुच्च कटोरे जैसा है. पूसी तो खूब आगे तकलाकोट तक हो आया है. मैंने भी यहाँ की हर वादी को अपनी बांहों में समेटना है. निर्मल अब शायराना अंदाज में खुलने लगा था.
हमारा रूट क्या रहेगा भई करम सिंह. अब इस ट्रेकिंग के कमांडर तो आप ही हुए.
हम थल – नाचनी होते बढ़ेंगे साब. करमदा बोला.
क्यों?हम तो वाया बागेश्वर के रूट की प्लानिंग में थे. निर्मल ने कहा.
पिथौरागढ़ से तो नाचनी वाला रूट ठीक रहेगा, वही थल से ऊपर की ओर.
अरे वो थल में कहीं एक हथिया देवाल है वह देखनी है.बातों बातों में अपनी बेटी को बताया कि ये एक चट्टान पर बना शिव जी का मंदिर है तो बोली वहां जा उसकी फोटो लाना. प्रॉमिस करो. मेजर पूसी बोले.
थल के पास से तीन किलो मीटर दूर के गांव बलतीर में पड़ता है यह मंदिर ‘. सोबन बोला. वहां पहुँचने के लिए कच्चा रास्ता और पगडंडी से हो जाना पड़ता है.
वहां आज ही जा कर देख लेंगे. पूसी गुरु बोले.
हां सर. जा सकते हैं. कहा जाता है कि पहले से यह परम्परागत शिल्पी लोगोँ का गांव रहा. बलतीर गांव के बीचोँ -बीच ही एक झरना है. उसी झरने के पास एक हथिया देवाल है.
और कोई जरुरी सामान हो तो ले लें.
जरुरी चीज बस्त तो हमने रख ली है. स्टोव भी रखा है. एक जेरीकेन में मट्टी का तेल थल से ले लेंगे. वहां राशन की दुकान में मिल जायेगा. कुण्डल बोला.
अब चल देना ठीक रहेगा. अभी ऊपर की पहाड़ियों में बादल दिख रहे हैं. नहीं तो बड़ी साफ पंचचूली दिखाई देती है.
करमदा ,निर्मल और अपने फौजी पूसी भाई पिकअप में आगे बैठे. बाकि हम सब पीछे. पिकअप में दाएं -बाएं लम्बी सीट लगीं थीं. उनके बीच में टेंट रख दिए गए. मैं और दीप तो इन टेंटों के ऊपर ही लधर गए.
स्टेयरिंग में जमते ही करमदा ने मफलर ढीला कर अपने कान छुए,नमस्कार किया और फिर अपना मफलर कानो को ढकते हुए और कस के बांध लिया. एक जोरदार हॉर्न बजा और पिकअप चल पड़ी. सोबन ने जय हो नंदा मइया की टेक दी जिसमें हम सब ने भाग लगायी.
पिथौरागढ़ से बुंगाछीना के रस्ते करमदा ने पिकअप भगा दी. वाकई बड़ा सधा हाथ था. तीन घंटे के भीतर हम थल थे. पिकअप सीधे उस ढाबे में रुकी जो अपने शिकार भात और मछली भात के लिए फेमस था. सोबन ने बताया कि भोजन की व्यवस्था यहीं सबसे ठीक रहेगी. अभी थल में बारिश भी पड़ रही थी और छाता किसी के पास था भी नहीं. इसलिए थल की शांत पड़ी बाजार में भीगते हुए घूमने से अच्छा सभी को ये लगा कि ढाबे की बेंचों में आसन जमाया जाय.
अब आगे अपने फौजी भाई की पहल पर हमें एक हथिया देवाल तक जाना था. सो थल से आगे लेजम वाली सड़क पर पिकअप चली. थल में एक गांव है बल्तिर,जहाँ एक हथिया देवाल का अद्भुत शिल्प दिखाई देता है.थल से आगे तीन किलोमीटर की पैदल दूरी पार करने के बाद यहाँ पहुंचा जाता है.जैसे ही हमारी सवारी थल से निकली मौसम भी सुधर गया. अभी हो रही लगातार बारिश के बावजूद अब ऊपर पैदल चलने में बदन गरमाने लगा. बल्तिर में एक काफी बड़ी चट्टान है जिस पर यह मंदिर बनाया गया है.जिस चट्टान पर यह मंदिर बनाया गया है उसी चट्टान को काट मूल देवता के रूप में शिवलिंग स्थापित है. इस मंदिर की ऊंचाई लगभद आठ फ़ीट है तथा चौड़ाई पंद्रह फ़ीट तो है ही.
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जनश्रुति है कि जिस शिल्पकार के द्वारा इस मंदिर को बनाया गया उसके हाथ राजा द्वारा काट दिए गए ताकि इसके जैसा दूसरा मंदिर न बने. इसकी बनावट,निर्माण की शैली व कालक्रम के हिसाब से इसे दसवीं सदी का बताया जाता है. एक हथिया देवल के मंदिर में गर्भ गृह ,अंतराल और मंडप हैं. इसका शिखर नागर शैली का त्रिरथ बताया जाता है. इस मंदिर में शिवलिंग का मुख दक्षिण दिशा की तरफ है जिस कारण इसे पूजनीय नहीं माना जाता जबकि मंदिर का द्वार पूर्वाभिमुख है. मंदिर के समीप एक झरने के भी दर्शन होते हैं. मंदिर से कुछ दूरी पर बायीं तरफ धर्मशाला है तो थोड़ी ही दूरी पर एक सादी शुकनास पर प्रदर्शित गज व सिंह का मुख खंडित है
थल से आगे नाचनी जाती सड़क में बल्तिर के समीप सड़क पर खड़ी अपनी सवारी पिकअप में हम फिर सवार हो गए. अब तो मौसम भी बिकुल साफ़ हो गया है. सोबन बता रहा है कि हम इस सड़क से चलते लेजम ,भनारकोट ,खिर हतिगर ,चायल बागर और चिलकिया होते नाचनी पहुंचेंगे.
नाचनी पहुंच कुण्डल दा के परिचित के यहां पिकअप का सारा सामान उतारा गया. कुण्डल दा ने आगे रास्ते में टेंट बोकने वालों की खोज -खबर के लिए अपने परिचित से कहा तो उन्होंने बताया कि गांव के दो लड़के मिल जायेंगे जो आप को रास्ता दिखाएंगे . बस मैं खबर भिजवाता हूं. दोनों भाइयों की छोटी सी दुकान है नाचनी में. वह आ जायेंगे. साथ में एक डोटियाल भी ले आएंगे. सबसे वजनी आइटम तो टेंट हुए.
कुण्डल दा के परिचित का नाम कलम सिंह था. कुण्डल दा के साथ ही अब हम सब उन्हें कलम दा कह रहे थे.हम सब उनके घर में बाहर आँगन में बैठ गये. निर्मल भीतर गोठ में तखत पर लेट गया.
कलम दा ने बताया कि हम लोग आज ही थला ग्वार पहुँच सकते हैं. टेंट लगाने की जगह और पानी वगैरह की वहां सुविधा हुई. बाकी सब व्यवस्था अपने दुकानदार लड़के शीतल और लक्षमण कर देंगे. ये तो कई बार अपने बबा- चचा के साथ भेड़ के रेवड़ ले ग्लेशियर के निचले सिरों तक जाते रहते हैं.
कलम दा के आँगन के एक कोने में चूल्हा भी सुलग रहा था जिसमें घर की औरतें कुछ भून-भान कर रहीं थीँ. उसी चूल्हे के एक सिरे पर आग में चाय की कितली चढ़ी थी.
थोड़ी ही देर में बड़ी बड़ी पीतल की कटोरियों में गरमा गरम कुछ हलवे जैसी डिश हमारे अगल बगल रख दी गई. कलमदा ने बताया कि ये चुवे का बना हलुआ है.इसमें गुड़ पड़ा रहता है. खूब गरम तासीर का होता है.अब आए बड़े बड़े पीतल वाले गिलास जिनमें गरम दूध था.
पीतल के गिलास को रुमाल की सहायता से पकड़ मैंने एक घूंट मारा. इसमें अलग से चीनी नहीं पड़ी थी वह स्वाभाविक रूप से मीठा था. हलुवे के साथ दूध का मेल अलग ही स्वाद दे रहा था.हलुआ खाने के लिए कोई चम्मच नहीं थी सो सब हाथ से ही स्वाद ले खाये जा रहे थे, खूब चाट के.
हमारे जीमने तक शीतल और लक्ष्मण भी आ गये .साथ में एक पोर्टर भी था. आते ही उन्होंने टेंट के साथ अन्य सामान बांधना शुरू किया. उन्हें भी हलुआ -दूध मिला. कलम दा बता रहे थे कि उनके गांव में दूध खूब होता है. इसलिए हर घर में अपनी जरुरत से ज्यादा घी बना लिया जाता है. थल के साथ बागेश्वर और इधर पिथोरागढ़ के बाजार में सब बिक भी जाता है. ऊपर के गाँवो से भी आता है.भेड़ बकरी व्यापार भी यहाँ खूब फलता है.
दीवानी मेरे साथ ही लगा था. यहाँ के पेड़ पहाड़ के कई दृश्य उसने मेरे से खिंचवाये. उसका पूरा इरादा था कि वह यहां पहाड़ों को निहारते उनके रेखाचित्र बनाएगा. कैनवास सहित पेंसिल ब्रश वह छाती में चिपकाये घूम रहा था.
आगे चलते हम बला पहुँच गये हैं.
बला से आगे चढ़ाई काफी है. सबसे आगे करम दा और मैं हूं. जल्दी आगे बढ़ने की कोशिश इसलिए भी है कि मुझे फोटो भी खींचने हैं और कई जगह स्टैंड लगाना भी जरुरी है विशेषकर ऐसी दृश्यावलियों में जिन्हें वाइड लेंस से खींचना है. मेरे से ठीक पीछे दीवानी है. प्रकृति को निहारने का उसका अलग ही अंदाज है. वह चुपचाप एक जगह बैठ जायेगा और बड़ी देर तक सामने की छवि को निहारेगा. उसे देखते -देखते फिर वह अपनी आँखें मूंद लेता है. देर तक काफी देर तक. हम जब उसके समीप हों तो आंखे खोलने के बाद वह मुस्कुरायेगा.
“जो सामने है उसे पूरी तरह पीना पड़ता है, जज्ब करना होता है. अब देखिये सामने के उस हरे दिखने वाले पहाड़ में सिर्फ हरा रंग ही नहीं है, हरे के ही अनगिनत शेड हैं. ये उतर जाएं कागज में,तब कुछ बात बने. आप भी जब कोई फोटो खींचे तो उसे निहारें, यह तय करें कि आखिर आप खींचना क्या चाहते हैं.” दीवानी वही कह रहा था जो मुझे बड़े नामचीन फोटोग्राफर एस पॉल ने समझाया था. पंजाबी बाग के अपने घर में जहां हर कोने में फोटोग्राफी की खुश्बू बसा करती थी. उनके साथ एक बार जैसलमेर भी गया था. मैं तो तब हैरत मैं पड़ जाता था जब हमारे गुरु गरम तपती रेत पर लेट जाते फिर फोटो खींचते, कहते इतनी ही हीट चाहिए मुझे अपनी फोटो में. उस बार हमारे साथ पॉल साहिब की श्रीमती जी भी थीं जिन्हें वह बन्नो जी कहते. कई जगह उन्हें एक मुद्रा में बैठा देते. अब जब माथे पर पसीना छूटेगा तब खींचूंगा.
मुझे घुमाने लाये हो या इस धधकती गर्मी में कबाब बनाने. वह अक्सर झगड़ पड़तीं और पॉल साब का कैमरा चालू हो जाता.
हमारा कारवां बला की ऊंचाई तक आ पहुंचा है. देखते ही देखते इधर -उधर उमड़े बादल जमा हो गये हैं. हमारा गाइड लक्ष्मण बताता है बारिश तो आज कल अचानक ही रोज हो जाती है. फिर चार पांच बजे के बाद तो ठंडा भी पड़ेगा. बस बला से जितना आगे बढ़ जाएं तो रुगेरू पहुँच जायेंगे.
सबसे पीछे निर्मल है जबकि हमारे मेजर साब उर्फ़ पूसी के कदम सबसे आगे हैं. निर्मल का सारा सामान भी और लोगों ने ले लिया है. निर्मल के साथ सोबन है जो अपनी बातों के साथ चाल भी बढ़ाता जा रहा है.
बला से आगे की चढ़ाई में खूब घास उगी है. बस कुछ ही जगह पर वो दबी सिमटी दिख रही है जिससे अंदाज लग रहा है कि वहां से कुछ लोग गुजरे होंगे. पहाड़ी की एक धार पर चलते अपने एक हाथ से वहां उगी लता बेल या टहनी का सहारा भी लेना जरुरी हो रहा है. ऐसा कर शरीर का संतुलन बनाए रख ही बढ़ा जा सकता है. जूतों के नीचे कई जगह चिपड़ मिट्टी है जो जूते के सोल में चिपक उसे भारी भी कर दे रही.
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आगे चलता दीप अचानक ही रुक कर वहीं एक शिला खंड में बैठ गया. हम लोग जब उसके समीप पहुंचे तो देखा कि उसके धुटनों तक कई जोंकें लिपटी पड़ी हैं. और दीप छुड़ाने के बजाय उन्हें तक रहा है.
अरे! आप ऐसे ही रहो. कह करम दा ने अपना पिट्ठू रख उसकी जेब से एक पोटली निकाली जिसमें नमक था. थोड़ा नमक निकाल उसने बड़े इत्मीनान से घुटनों तक पहुँच गई और खून चूस कर बेडौल हो गई जौंको पर डाल दिया. नमक पड़ते ही वह टपा टप गिरने लगीं.
खून चूस ये अपने आप टपक जातीं हैं फिर जोर की खुजली लगती है इनमें. आपको तो खूब लग गईं ये. करमदा नमक बुहार उसकी पैंट नीचे करते बोले.
सब गन्दा खून चूस गई होंगी ये. दीप बड़े इत्मीनान से बोला.
हां, कहते हैं ऐसा भी. सोबन बोला.
अब तो बादलों ने पूरा आसमान ढक लिया. बीच-बीच में दूर बिजली भी कड़कने लगी थी.
आगे जरा तेज जाना पड़ेगा. उधर गांव पड़ता है. वहां तक पहुँच जाएं तो तेज बारिश में भीगने से बच जायेंगे.
हाँ-हाँ चलो. सब तेजी दिखा बढ़ने लगे पर रास्ता खुद बना के बढ़ना था उसी घास और कंटीली झाड़ियों के बीच होते. सोबन ने अब एक लम्बी लकड़ी भी पकड़ ली थी जिससे वह आगे को झुक आती छोटी -मोटी टहनियों को इधर उधर करते जा रहा था जिससे वह दूसरे के मुँह से न टकराएं.
अचानक ही हवा का एक तेज झोंका आया और उसके साथ ही पानी की फुहार जो कुछ ही मिनट में तेज बारिश में बदल गई. सामने की पहाड़ी भी पूरा बादलों से ढक गई थी जो ऊपर की ओर ज्यादा काले होते जा रहे थे. बादल कड़क भी रहे थे. बादलों के अचानक इतना घना होने से अंधेरा भी बढ़ गया था जैसे कि रात होने वाली हो.
सारे रास्ते में घास के साथ बांज के पेड़ों से गिरे पत्ते थे.
“बस ये धार पार कर लें तो फिर गांव लग जाता है. अब तो वहां रुकना ही पड़ेगा.”सोबन बोला.
अभी कितना और चलना है भई तेरे उस गांव पहुँचने में.निर्मल ने सोबन से पूछा.
बस हो! आ ही गया समझो.
अरे डिअर सोबू. घंटे भर से बता रहा कि पहुँच गये, आ गया पर तेरा गांव तो द्रौपदी की साड़ी हो गया यार, बस खींचे जाओ.
ये पहाड़ का रिवाज हुआ प्रोफेसर साब . बस चलने वाले का धैर्य न चुके इसलिए उसे दिलासा देते हैं, बस मुणी छ! उ अगिले भै हो गुरुss.करम दा ने सचाई बताई.
उस धार में चढ़ते बढ़ते घड़ी पर नजर टिकाई. पौने छ बज गये थे यानि हम नॉन स्टॉप करीब दो घंटे तो चलते ही रहे थे.
अब धीरे धीरे चढ़ाई खतम हो गई थी और सामने दूर तक फैला घास का मैदान था.
वो बस सामने है रुगेरू. वहीं तक जाना है हमको. सोबन खुशी से चहका और उसने निर्मल साह जी की ओर देखा.
ये सब ग्वार का इलाका हुआ साब. ग्वार का मतलब हुआ घास का मैदान. दूर तक नज़र पड़े तो घास ही घास. यहाँ खूब जानवर पलते हैं. पर अभी ये द्यो और बढ़ेगा शायद वो देखिये वो काले बादल कैसे ढक गये हैं सामने के पहाड़ को. सोबन बोला फिर मुझसे बोला, अब जूते के नीचे वो लस्लसी मिट्टी भी नहीं लगेगी.
अब रास्ता तो ठीक ठाक था पर तेज चढ़ाई की वजह से सांसे भी भारी हो गईं थीं. अभी भी सबसे पीछे निर्मल था. हम सब में सबसे ज्यादा स्मार्ट गोरा चिट्टा. अभी उसके हाथ में सोबन ने अपना डंडा थमा दिया था जिसे टेकते वह धीरे धीरे आ रहा था. साथ में उसके दूसरी बांह को कुण्डल ने पकड़ रखा था.
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मैं, हमारे मेजर साब और दीवानी बीच में थे तो सबसे आगे करम दा, सोबन और दीप पंत.
ये देखिये आगे. चरवाहों और यहाँ टिकने वालों की टांटिया दिख रही हैं. करमदा ने बताया. टांटी का मतलब हुआ झोपडी. ये निंगाल से बनाई जातीं हैं जिनकी छत और अगल बगल यहाँ की मजबूत घास से छोप देते हैं इन्हीं टांटियों में जानवर भी रखे जाते हैं रात को.बगल में जो झोपड़ियाँ आप देख रहे हो उनमें मवासे रहते हैं.एक तरफ जानवर और दूसरी तरफ उनके पालनहार. बस संध्या होते ही इनके बीच की जगह में लकड़ी के गिंडे डाल आग पाड़ देते हैं. इनकी ये धूनी रात भर सुलगती रहती है. इससे कूड़कुड़ा देने वाला जाड़ा भी नहीं लगता और यहाँ -वहां से जंगली जानवर भी नहीं आते.बाघ सुवर तो छोड़ो यहाँ के विराने में तो प्रेत-मसान, परि आंचरी का भी प्रकोप हुआ. कहीं चिपट गये तो बड़ी पूजा मांगते हैं.
जानवरों के साथ यहाँ कुत्ते जरूर पलते हैं.असली मित्र और रक्षक हुए ये. दिन में उनको देखो तो लगेगा कितने सीधे हैं बस पुछडी हिलाना जानते हैं पर ब्याल पड़ी नहीं कि फाड़ देने को तैयार हो जाते हैं, साले सीधे गर्दन च्याँपते हैं. वो सुनिए, कुत्तों का भोंकना भी शुरू हो गया है.
सामने की टांटियों के आगे से जैसे एक छाया उभरी और हमारी तरफ आने लगी.हमारे पथ प्रदर्शक शीतल और लछम उन तक पहुँच चुके थे.हाथ मिलाने के बाद अब उनका अंग्वाल डाल मिलन हो रहा था. एक टांटी से दो महिलाएं बाहर निकलीं. उनके हाथ में लालटेन थी. हम लोग भी टांटी के पास पहुँच चुके थे.
आओ हो शाब लोगो. नन्दा मैया की असीस लगे आपूँ पे.
एक कतार में छह टांटिया थीं तो उनके ठीक सामने थोड़ी कम ऊंचाई की चार. इस चौरस से मैदान में पत्थर बिछाये हुए थे. टांटियों के ठीक सामने आग जली थी .
कोई सामान चीज बस्त खोलो मत बस इनको वो बीच वाली झोपडी में रख दो साब. आओ साब भैटो.
बाहर लकड़ी की पटखाट थीं पर उनकी चौड़ाई कम थी, बस करीब डेढ़ फुट. जो औरतें लालटेन लाईं थी अब वह उनके ऊपर दन बिछा रहीं थीं.
आपूँ लोग तो भौत भीगे भागे लग रे हो. आग के पास भेटो. फिर जरा देर बाद लुकुड़े बदल लेना.
वो चार पांच कुत्ते जिनमें चार काले भोटिया थे और एक सुनहरा गोल्डन दनपुरिया हमें सूंघ सांघ आग के पास बैठ गये थे. भीतर से बड़े बड़े गिलासों में चाय आ गई थी.साथ में मिश्री की डली.
शीतल, लछम और कुण्डल ने सब सामान टंज्या दिया था.
हमें अपने यहाँ आसरा देने वाले जसोद सिंह थे जो अपनी दो सैणियों व सात बेटियों व दो छोटे बेटों के साथ इस रैन बसेरे की मिलकियत संभाले थे. उनके पास पचास बीसी यानि हजार से ऊपर भेड़ बकरियों का रेवड़ था और पूरी दस गाय जिनमें से चार अभी दूध दे रहीं थीं और दो बस अगले ही महिने ब्याने वाली थीं.
बस साब लोगो. हम तो बस घी बनाते हैं और उसके कंटर थल ले जा बेच देते हैं. बड़े दाज्यू भी यहीं रहते हैं अभी भेड़ बकरी ले ऊपर नन्दा देवी की तरफ चले गये हैं. हमारी भाभी इधर जानवर चराने में लोटी गई थी. तब से हड़जोड़ का लेप लगा लेटी हैं. वही दवा हुई हमारी. अंग्रेजी दवा तो यहाँ कोई खाता भी नहीं.
अब क्या बताऊँ सैबो! जल्दी उमर में घर बैठा लेने वाले हुवे सैणी को.अब चार -पांच बरस गुजर गये और औलाद का मुख नहीं दिखा तो पहली वाली की बैनी के साथ फेरे लेने की मजबूरी आन पड़ी. फिर तो धकाधक पांच बेटियां हो गईं. वंश चलाने के चक्कर में फिर जतन किये,कोशिस की, माता नन्दा देवी के आगे नाख रगड़ी तो देखो पहली वाली और दूसरी वाली दोनों ने एक आध महिने के अंतर में लौंडे जन दिए. अब इससे बढ़ कर क्या कृपा होती है. ठुल सैणी तो दो साल बाद फिर जत्काली हो गई. एक लड़की फिर हुई. भरा पूरा परिवार हो गया.
खूब मजा ले जसोद की आपबीती सुन निर्मल ने पूछा तो बच्चे तो यहां ये तीन ही दिख रे बाकी छ कहाँ हैं.
पढ़ने लिखने सब धारचूला भेज दीं अपनी बेणी हुई वहां. बड़ी बेटी ने तो हाईस्कूल कर लिया अब आगे इंटर कर रही फिर आगे की पढ़ाई के लिए पिथौरागढ़ भेज दूंगा.
वाह. बहुत ग्रेट. निर्मल खूब खुश हो गया.ये दाढ़ी वाले दोनों प्रोफेसर और बाकी सब वहीं हैं पिथौरागढ़. सब मदद करेंगे तुम्हारी. क्यों भाई दीप. कहाँ खोये हो.
दीप के इर्द गिर्द सारे कुत्ते दुम हिलाते बैठे थे. वह उन्हें अपने झोले से निकाल निकाल खजूरे जो चखा रहा था.
मैं तो बहुत भीग गया हूं जसोद भाई. अपनी दवा ले लूँ. हाँ कुण्डल दा जरा गिलास मंगा दो.
कुण्डल दा ने तुरत फुरत उसके जाने पहचाने बैग से निकाल कर हरक्यूलिस की बाटली सामने रख दी.
सूखा मीट चलेगा सैबो इसके साथ. जसोद ने पूछा.
अरे हां जो भी प्यार से खिला दोगे चलेगा. यहां तो बड़ा ठंडा है.
हाँ, तू तो कहीं भी रहे ठंडे को गरमाना जानता है. अपने फ़ौजी भाई पूसी अब जा कर बोले जो तुरत फुरत अपने भीगे कपडे बदल आ जमे थे बिल्कुल फ्रेश.
हम लोग भी अपनी चखती लगाते हैं बिना उसके यहाँ कुड़कुड़ाट हुआ
अरे अभी तो ये लो आप. बाकी और सबों को पिला दो अपनी वाली. सभी भीगे कौवे हो रहे हैं.
बड़ी सी थाली में भाप निकलता सूखा मीट आ गया था. निर्मल, फ़ौजी भाई और जसोद रममय हो रहे थे.बाकी हम सब में दीवानी और दीप के आगे चखती के गिलास भरे थे. सब सर्विसिंग अब अपने चेले सोबन ने संभाल ली थी.
करम दा कुण्डल और हमारे गाइड व कुली अलग बैठ सुट्टा लगा रहे थे वह सब शिव मय थे.
सूखा मीट का एक छोटा टुकड़ा बड़े झिझकते मुँह में रख ही लिया मैंने तो पहले पहल लगा कि दांतों के बीच में रबड़ है.
बस सर जी चबाते रहो, दांतों की एक्सरसाइज भी होगी और तब जा कर आएगा स्वाद. बीच बीच में गिलास वाला माल भी सुड़का लो. सोबन की सलाह पर मैंने पूरा अमल किया.
दो टांटियों में हमारे बिस्तर बिछ चुके थे. दरी की जगह भेड़ की खालें थी जिसके ऊपर पुराने घिसे हुए दन. उनके ऊपर मोटी चादर और ओढ़ने के लिए थुलमा. ऐसे चार जोड़ी बिस्तर लगे थे. भीगे कपडे बदल मैं और दीप एक बिस्तर में घुस गये. मेरे कैमरे की रील खतम हो गई थी. सबसे पहले मैंने उसे बदला. कैमरे के सामान को बड़ी एहतियात के साथ पॉलिथीन में बांधा था पर पता नहीं कैसे उसमें नमी हो रही थी. दीप ने अपने बैग से बड़ा सूती रुमाल निकाल सारे रील के कैसेट पोंछने शुरू किये और मुझसे कहा भी कि एहतियात से कैमरा रखना. आगे के रास्ते में नमी बहुत ज्यादा होगी. फ़्लैश भी ऑफ रखना. अब जितनी चार्जिंग है उसी में काम चलाना है.
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ये चखती का सफेद पानी बदन में झन्न तो कर गया पर अजीब खट्टा खट्टा लग रहा. दीप बोला. पैरों में जो चड़क जैसी हो रही थी वो जरूर गायब हो गई है.
धीरे से कुण्डल ने कमरे में प्रवेश किया और बोला आओ हो साब, खाना खा लो.
हम दोनों तुरंत ही उठ बाहर ओसारे पर आ गये. आग के इर्द गिर्द सब गरमा रहे थे.
निर्मल, सोबन और फ़ौजी भाई पूसी जसोद की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे. सामने जलती लकड़ियों की लाल -पीली रोशनी उनके चेहरों पर पड़ रही थी. निर्मल बार-बार जसोद की बांह पकड़ वाह, अरे क्या बात, तुम तो ग्रेट हो डिअर जसोद कह रहा था और जसोद सिंह का स्वर और तेज हो जा रहा था. मैं भी ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा. अपनी डायरी और पेन साथ में बाहर ले आया था कि आज की बातें लिख डालूँ, खाना खाने के बाद तो बस लुढ़क जाने की आदत है.
तो साब लोगो! जसोद कह रहा था, हमारे बड़े बूढ़े, हमारे सयाने कह गये कि “वो मुरालई रक च्यामो विला मुरालई गुं चिमो “. इसका मतलब हुआ साब कि बाढ़ आने से पहले ही बांध बना लेना अच्छा रहता है और बिराऊ के अंदर घुसने से पहले ही खिड़की को बंद करना “बिराऊ समझते होंगे आप बिल्ली हुई बिल्ली.
वाह, ग्रेट जसोद. यू आर रियली ग्रेट. निर्मल खुश हुआ. उसने गिलास से एक घूंट और गटक लिया.
अभी एक और बात गांठ पाड़ने वाली है सैबो. जसोद और चहका.
बोलो बोलो.
“अरज्ञाली मुस्यूड़ मो पुरखाली मुहोमो “. इसका मतलब हुआ साब कि बेकार के कड़कड़ाट या विवादों में न पड़ो. जो हमारे पुरखे हैं उनकी शान बान उनके असूल बनाए रखो.
वाह भाई जसोद. ग्रेट. कह निर्मल ने जसोद की पीठ पर एक धौल जमा दिया.
मेरे बगल में सोबन बैठा था. जब में जसोद की बात नोट कर चुका तब वो बोला,’सर जी, बहुत सुन्दर इलाका है ये अपना नंदादेवी, पंचचूली और आगे नेपाल हिमाला. काली गोरी धौली के सुसाट -भूभाट की आवाज से गूँजता इलाका. चलने के कठिन रास्ते, खतरनाक दर्रे.परंपरा से चले आ रहे काम धंधे और सबसे बढ़ कर तिब्बत के साथ व्यापार जिसको चीन के साथ हुए युद्ध की ऐसी नजर लगी कि इसकी ऐतिहासिक परंपरा ही बिलकुल ठप पड़ गई कई सालों तक.
दारमा, व्यास और चौदास के इस पूरे इलाके में आप पाएंगे कि हर जगह प्रकृति की विविधता है, काम-धंधे अलग-अलग किस्म के हैं जो भले ही एक दूसरे से अलग दिखें पर इनका तालमेल इनका साहचर्य निराला है. वह तभी समझ में आएगा जब यहाँ की धरती पर घूमा जाये. इन पहाड़ों पर चढ़ा जाए.
सरजी, बहुत कम उम्र से ही मुझे मेरे बबा जब भी मौका मिला अपने साथ ले जाते रहे वह आई टी बी पी में हैं. अब हेड क्वाटर में हैं तो बहुत बिजी रहते हैं.
मेरे बबा अक्सर मुझसे कहा करते हैं कि देख सोबन, यहाँ पूरे सीमांत इलाके में रहते हमारे लोग बाग, बंधु -बांधव अपने कुनबे और राठ के साथ अलग -अलग समूहों में भले ही रहते हों, उस संकल्प और ब्रत को धारण करते जीवन यापन के हर कष्ट को अपने लिए अवसर बना लेते हैं जिसके अनुरूप जब तक काली और धौली नदी का जब तक निरन्तर प्रवाह रहेगा, न्योला पंचचूली और नमज्युड के हिमाच्छादित शिखरों की चमक बनी रहेगी. तब तक हमारी संस्कृति, हमारा परिधान, रंगा च्यूँ बाला, दारमा का बै पलती और बम्बा का मडुआ और लफै बना रहेगा.
ये जो रं समाज की संस्कृति है उसमें मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म “लन सब “है जो सहकारिता की सोच व ऐसी भावना में डूबा है जहां सेवा और सहयोग से सब आपस में जुड़ जाते हैं, जुड़े रहते हैं.अब जितना आप इस इलाके में घूमेंगे, यहां रहेंगे इन पुरखों की बात उनके वचन की सचाई को महसूस करेंगे.
सुबह तड़के ही आँख खुल गई. टांटी से फौरन बाहर निकल दिशा मैदान से निबट के आने तक खूब बड़े गिलासों में चाय मिली. तय हुआ कि तुरंत चला जाये. कुण्डल दा एक गाइड लछम को ले पहले ही चल दिया ताकि आगे के पड़ाव में हमारे पहुँचने तक खाने पीने का प्रबंध तैयार रखे.
उनके जाने के आधेक घंटे के बाद हम सब चल पड़े हैं. जसोद भी हमारे साथ चल रहा है. उसकी भेड़-बकरियों का एक रेवड़ आज ऊपरी इलाकों से नीचे उतर ऊपर की टांटी में पहुँच जाने वाला है.
अब फिर बांज के घने जंगल हैं और रास्ते में बिछी घास. कुछ रास्तों पर चलते तो घास से नींबू की खुश्बू आ रही है पर दीवानी बता रहा ये लाइम ग्रास नहीं है. कई जगह तो कुश जैसी घास लहलहा रही. उसे फांद के जाना भी बड़े कौशल का काम है वह पांव में उलझती बहुत है.
करीब तीन किलोमीटर चलने चढ़ने के बाद आगे फिर समतल मैदान पसरा दिखाई दे रहा है. कुण्डल और लछम यहीं हमारे लिए रुक गये हैं. बड़ी कितली में चाय तैयार है. साथ में मोटी मोटी पूरी जिसे पहाड़ में लगड़ कहा जाता है.
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और सब साथ ही आ पहुंचे हैं बस निर्मल पीछे रह गया है. उसके साथ करम दा हैं. दीवानी ने तो आते ही अपना कैनवास स्टैंड लगा सामने की नयनाभिराम दृश्यावली की रेखाएं खींचनी शुरू कर दी हैं. इस स्टैंड को तो वह बिल्कुल अपने सीने से चिपटा के ला रहा है. लछम ने कहा भी कि वह ले चलेगा पर मुस्का के दीवानी ने मना कर दिया.
इस समतल ग्वार से नीचे दूर तक फैला ढलान दिख रहा है जिस पर हरियाली की एक समान चादर फैली है कहीं कोई सड़क कोई मकान नहीं. नीचे धार से कुछ और लोग ऊपर चढ़ते दिख रहे हैं. जसोद बता रहा है उनके पल्ले गांव के लोग हैं. मोष्टा बनाने के लिए निंगाल काटने आए हैं. ऊपर के इस इलाके में बढ़िया निंगाल होता है. उनके ही पीछे निर्मल और करम दा भी आते दिख रहे हैं.
अब हमने जाना है थला. सो कुण्डल दा की बनाई नमकीन पूरी का चाय के साथ कलेवा कर आगे को रवाना हो जाते हैं. दीवानी ने नंदादेवी उपत्यका का स्केच बना उसे भली भांति तह कर रख लिया है. मुझसे भी वहां की पहाड़ियों की कई एंगल से फोटो खिंचवाई है. दीवानी की फोटो फ्रेमिंग वाकई शानदार है जो मुझे बहुत कुछ सिखा रही है.
थोड़ा सा समतल चलने के बाद अब फिर से चढ़ाई है. नीचे से हम बहुत ऊँचा चढ़ गये कुण्डल और लछम को देख रहे हैं अबकी सोबन भी एडवांस पार्टी में चल दिया है ताकि दाल भात टपकी बनाने में सहयोगी बने.
चढ़ाई अब काफी है. अगल बगल के पेड़ों की छाँव में ऊपर की ओर चढ़ते अक्सर कई किस्म की चिड़ियाओं के भी दर्शन हो रहे हैं और उनके समवेत स्वर अनूठा निनाद रच रहे हैं. दूर कहीं पहाड़ी से किसी जानवर की आवाज आ रही है. हमारा युवा गाइड शीतल बता रहा है कि इस जंगल में खूब जानवर हैं. घुरड़ कांकड़ तो बहुतेरे हैं.
शीतल दो साल लगातार हाई स्कूल में फेल हो चुका है. गणित और अंग्रेजी उसके बस में नहीं. पर इस साल फिर भरेगा प्राइवेट. फिर फौज की भर्ती में जायेगा. दौड़ कूद में तो वो अव्वल है. वो बता रहा कि उनके गांव की बहुत लड़कियां अब धारचूला, नारायण नगर, डीडीहाट और थल के इंटर कॉलेज में पढ़ने जाने लगीं हैं. मजे की बात तो देखो अभी तक कोई फेल भी नहीं हुई. कुछ लड़कियां तो पिथौरागढ़ के नर्सिंग स्कूल में भी भर्ती हो गईं हैं. उसी के भाग फूटे हैं जो दसवीं क्लास नहीं निकाल पाया है.
मैं शीतल को अबकी बार अपने विषय बदल लेने को राजी कराता हूं और उनकी किताबें भिजवाने का वादा भी. मेरा एक क्लास फेलो नारायण नगर के इंटर कॉलेज में अध्यापक है उसका पता भी देता हूं कि उससे जा के मदद ले.अब लछम बहुत खुश नजर आ रहा.
बातें करते चढ़ाई चढ़ते अब हम एक दोबाटे पर पहुँच गये हैं. शीतल बता रहा कि ये परले वाला बाट तो आगे ग्लेशियर को जायेगा और दूसरा जिस पर हम चलेंगे वह थला होते हुए आगे की मंजिल की ओर ले जायेगा.
करीब एक किलोमीटर आगे बढ़ते अब सामने है दूर तक फैला मखमली ग्वार. हरियाली से भरा जिसमें चरती भेड़ें अब साफ दिखाई देने लगीं हैं. शीतल ने बताया कि यही थला है. थला मैं भी पहले जैसी काफी टांटियाँ बनी दिखीं. जैसे जैसे हम इस हरियाली से भरे मैदान के बीचों बीच पहुंचे अचानक ही उमड़-घुमड़ गये बादलों से रिमझिम बरसने लगी.. तेजी से चल हम एक टांटी की शरण में आ गये. वहां एक टांटी से धुंवा निकलते देखा. शीतल वहां गया और तुरंत पलट कर बोला कि कुण्डल दा भी बस यहीं रुक गये हैं. सब लोगों ने दाल भात बना दिया है अब नामिक के छोटे आलुओं का थेचुवा तैयार हो रहा है. बस आधेक घंटे मैं सब तैयार हो जायेगा.
कुण्डल दा अब हमारे लिए चूल्हे में चाय बनाने लगा. दो बड़ी बोतलों में वह नीचे से ही दूध ले आया था. उसने बताया कि अब देर हो चुकी है. सबके यहां पहुँच खानापीना कर ऊपर चपुआ पहुंचने में तो रात पड़ जाएगी. वैसे भी शाह जी की चलने की रफ़्तार बड़ी कम है.अब बूंदाबांदी भी होने लगी है.
मैं दीप और दीवानी उस टांटी में जा बसे जो सबसे कोने में थी. जूते मोज़े खोल वहां बिछी घास में पसर गये. उस घास से भीनी सी महक आ रही थी. बाहर देखते ही देखते तेज बारिश होने लगी. नीचे से ऊपर की ओर उठते बादल साथ में और घने हो रहे थे. बगल की दो तीन झोपड़ियों में घरेलू सामान रखा था पर लोगबाग शायद जंगल गये होंगे.
कुण्डल दा ने दाल भात टपकी तैयार कर ली थी. तीन बज गये थे. उसने हमें खाना परोस दिया. खाना खा कर कब ऊँघता लगा और कब नींद आई पता ही न चला.नींद फिर शाम छह बजे ही खुली.
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बाहर अब मौसम साफ था. सामने की टांटियों से गायों के रंभाने की आवाज आ रही थी और बगल वाली टांटियों के परिवार भी लौट आए थे. खूब चहल पहल हो गई थी.ये टांटियों वाले भी जसोद के बिरादर थे और जसोद इन्हें ऊपर कहीं रास्ते में मिल भी चुका था.इसलिए उन्हीं के द्वारा हमारे रात के भोजन का प्रबंध भी हो रहा था. जसोद तो हमारे आने से खूब खुश हो गया था. निर्मल ने भी उसके परिवार को चलते बखत दो सौ रूपये दिये और पूरा एक कंटर घी नामिक में हमारे पथ प्रदर्शकों की दुकान में रखने का अनुबंध भी कर दिया.
आज तो निर्मल और करमदा पांच बजे के बाद ही पहुँच पाए. कारण बनी वही जौंकें जिनका पता उसे तब लगा जब वह खूब खून सोस के तपकने लगीं और जहां जहां से टपकी वहां खुजली के साथ फफोले भी पड़ गये. हमारे देख़ते समय वह पेंट उतारे फफोलों पर टांटियों में रह रही औरतों द्वारा पत्थर पर घिसी डोलू जड़ी का लेप लगा रहा था.
अब सात बज चुके थे और बाहर मौसम बिल्कुल साफ था. चाँद की रोशनी में दूर तक फैली बरफ में नहाई चोटियां धुंधला रहीं थी. ऐसे सिलॉट की चित्रकारी कुछ ज्यादा मेहनत मांगती है. दीवानी ने बताया और मैं स्टैंड लगा कर ज्यादा एक्सपोज़र दे उन्हें खींचने की कोशिश में जुट गया.
रात के खानपान में फाफर की छोली रोटी और आलू सीमी की सब्जी के साथ गरम घी था तो चूक से बनी खूब खट्टी लाल खुस्याणी वाली चटनी.
इस चटनी और घी का पता तो सुबे चलेगा कह निर्मल ने कुछ लोक गीत सुनाने की फरमाइश कर दी टांटी वाली महिलाओं से. पहले तो वह थोड़ा शर्माईं पर जब सोबन ने अपनी लहराती आवाज गुंजाई तो फिर तो वह माहौल बना कि रात के दस बज गये.
घुर जंगला बांज पतेली, फल काफला के झुली रूनी
धन हिसालू धन किलमोड़ी फूल बुरुंसी की फूली रूनी.
फुल फुलो सिलडू फूल, लंका पुजी बास,
जैको सुवा परदेस, वी खुटा अगास.
भागचौ सिलंग रुख चरमगाड़ छाया,
जसि तेरि पानि तीस, उसि मेरी माया.
छोड़ी कमला सिरखुंडी जै धौली सम्माला.
शेरू शराबी नंदादेवी मेलो तेरि टोपी हराली.
निमुआ,का फीसा भागी, निमुआ का फीसा.
को पापीलै करि दे छ माया का द्वि हिस्सा..
मैं किले बिवायूँ इजू चीन बौडरा…
मैं लागू निसासा इजू चीन बौडरा…
घिँगारू छोड़ी इजू चीन बौडरा…
मैं कदिना देखूलौ इजू चीन बौडरा…
सुबह सब पांच बजे चल देंगे बस चाय पी के. करम दा ने कहा और हम अपनी टांटियों में घास के ऊपर बिछा दी गई दरी के ऊपर भारी चुटका ओढ़ सो गये. थोड़ी थोड़ी देर में नींद उचटती, बदन के एक हिस्से में खुजली लगती तो फिर दूसरा हिस्सा खुजाना पड़ता. ये सब उफन हैं.. नहीं समझा पिस्सू. अब रात भर इन्हीं की संगत में बितानी होगी.दीप ने मुझे समझाया.
सुबह पांच बजे सब तैयार थे. शीतल और लक्ष्मण ने पहले ही बता दिया था कि आज चफुवा तक पहुँचने के लिए काफी चढ़ाई चढ़नी होगी. रफ़्तार भी बहुत तेज नहीं करनी है नहीं तो सांस फूलने लगेगी. अब खाना पीना चफुवा पहुँच के ही होगा. हमेशा की तरह कुण्डल और शीतल खाने पीने का सामान ले आगे बढ़ लिए.
थाला बुग्याल से काफी विकट चढाई चढ़ कर ठेल ठोक पड़ता है. सोबन बता रहा है कि जैसे ही चफुवा टॉप की चढाई कम होगी उसके सामने ही जल प्रपात है. यहाँ यह माना जाता है कि यहाँ के पूजनीय बालछन देवता की बुआ को एक बार जोरों से प्यास लगी. आसपास कहीं पानी न था तब बालछन देवता ने इस स्थान पर एक तीर चलाया जिससे यहाँ पानी की धार फूट निकली.तब से इस स्थान के जल को बालछन पानी कहा जाने लगा.
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चफुवा को जाने में जैसे-जैसे आगे बढे हर धार से ऊंचाई बढ़ती गई और घास-पात-पेड़ भी कम होते गये. अब जो पेड़ सामने दिख रहे थे वो शंकु आकार के ज्यादा थे और कंटीले भी. पक्षी काफी दिखे उनमें मोनाल तो बहुत बार दिखा. उसका जैसा शर्मीला पंछी और कोई न होगा जो किसी की आहट पाते ही अपना मुँह छुपा लेता है. बाकी पँख देख उसकी सुंदरता का अंदाज लगता है. मेरी बड़ी इच्छा थी कि मोनाल का जोड़ा मिले तो उस युगल को कैमरे में कैद करूँ पर ऐसा संयोग बना ही नहीं.
ऊपर के इलाके से चरवाहों के कई झुण्ड अपनी भेड़ों के साथ नीचे को लौट रहे थे और हर बार ये भेड़ें हमारा रास्ता जाम कर रहीं थीं. इनके पूरे गोल के साथ चुप चाप शांत चलते भोट्या कुत्ते थे.
चढ़ते चढ़ते आखिर बारह बजे तक हम चफुवा पहुँच ही गये. जिस जगह पर कुण्डल दा ने अपनी रसोई बनाई थी वहां काफी लोगबाग जमा थे. हम सब भी वहीं बैठ गये.पानी का सोत भी पास ही था. जी भर पानी पिया जिसका स्वाद काफी मीठा मीठा था. पानी पी के मुझे तो खूब छीँक भी आई. जुकाम के डर से फिर ज्यादा पानी नहीं पिया. लछम ने बताया ये जल तो खूब भूख बढ़ाता है और सब खाया पिया पचा भी देता है.जब से ये पहाड़ चढ़ने शुरू किए वाकई में भूख तो खूब खुल कर लगने लगी है. यही बात दीप भी कह रहा कि घर लौट जब ईजा को ये बताउंगा कि मैं वहां इतना भस्का जाता था तो वह यही कहेगी कि खाल्ली फसक मार रहा है तू दीपुवा.
दीवानी ने फिर अपना बोर्ड तान लिया है और मुँह में पनामा सिगरेट सुलगाये वह प्रकृति के रेखांकन में डूब चुका है.
मैं भी कैमरा लटकाये हूं. दीप नीचे से आते कुछ युवकों की तरफ इशारा करता है उनमें से दो के गले में दुनाली लटकी है. लक्ष्मण को देख वह हाथ हिलाते हैं और पास आने पर उनकी भेटघाट होती है. लक्ष्मण बताता है कि ये दोनों बंदूक वाले नामिक गांव के हैं और जंगल में शिकार मारने जा रहे हैं. अब वो सभी हमारे साथ बैठ बातचीत में लगे हैं. बता रहे हैं कि यहां जंगल में खूब घूरड़ -कांकड़ हैं. शाम के बखत तो जंगली मुर्गीयां भी पानी के पास के पेड़ों में खूब मिल जातीं हैं. बस छर्रे वाले एक कारतूस से टपाटप टपकतीं हैं.
अपने फौजी साब इनसे खूब घुलमिल गये हैं. पता चलता है कि ये दोनों शिकारी भी फौज वालों की ही औलाद हैं. दोनों ही इंटर पास हैं और फौज की भर्ती के इंतज़ार में हैं जो अभी दो बरस से नहीं खुली.
चफुआ में दाल भात खा कर अब हम सब सुदूम की ओर चढ़ने के लिए कमर कस चुके हैं. सभी बता रहे हैं कि आगे खूब चढ़ाई है. बंदूक वाले नौजवान भी हमारे ही साथ चल पड़े हैं. लगता है उन्हें अपने फौजी साब बहुत पसंद आए हैं जो उन्हें फौज की भर्ती और उसमें निकलने के गुर भी समझा रहे हैं.सोबन हमें बता रहा है कि चफुवा टॉप पर होने के बाद तल्ले रन्थन की चढ़ाई भी विकट है. यहाँ की खासियत यह है कि जब एक चट्टान पर चढ़ लेते हैं तो आगे उससे भी ऊँची चट्टान और पहाड़ी सामने दिखती है जिसे चढ़ कर ही सुदमखान पहुंचा जा सकता है.अब पहले तल्ला रणथन पार होगा फिर मल्ला रणथन. जब मल्ला रण थन पार कर लेंगे तभी चढ़ाई वाला रास्ता ख़तम होगा तब जा कर सुदम खान आएगा.
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चफुवा से आधा किलोमीटर आगे चलने के बाद ही तेज चढ़ाई एकदम से शुरू हो जाती है जिसमें करीब साठ-सत्तर डिग्री का ढाल तो है ही. निर्मल हमारी लाइन में सबसे पीछे है जिसके साथ करमदा हैं. करमदा ने निर्मल के हाथ में एक डंडा भी थमा दिया है. पूरी एक धार काटने के बाद करीब आधे किलोमीटर की चढ़ाई तो बहुत ही ज्यादा तिरछी है. उस पर पीठ में लदा पिट्ठू बहुत भारी सा लगने लगा है. पैरों के नीचे रस्ते के पत्थर भी अलग चुभ रहे हैं. बस धीमी सांस लेते हुए हौले हौले आगे बढ़ना है. अब ये जो रस्ता है इसमें घास पात वनस्पति पेड़ धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं. ज्यादातर जगहों पर नुकीली घास है वो भी सिमट रही है. आगे चलते बंदूक वाले जवान बता रहे हैं कि ऐसे पहाड़ों में घूरड़ बहुत दिखते हैं पर अभी उनके दिखने का सही टेम नहीं है.
इस टेड़ी तिरछी चढ़ाई के बाद अब चट्टानों शिलाखंडो से भरा इलाका लग जाता है जिसे घांङल कहते हैं. इनको पार करना मुश्किल भरा होता है क्योंकि इनमें अपने बदन का संतुलन बनाए रखना पड़ता है. एक घांङल पार कर अब फिर ढलान आ गया है जिसमें नीचे उतरते रपट जाने का खतरा बना रहता है. अब ये जो दूसरा घांङल है ये तो पहले से कहीं अधिक फैलाव लिए है. इसे पार करने में भी पूरे बदन की कसरत हो जा रही है. पत्थरों और शिलाओं से भरे रस्ते को पार करने के बाद अब फिर चढ़ाई आ गई है जो है तो आधा पौन किलोमीटर, पर लग रहा है कि कितना चढ़ गये.आखिर कहाँ सिमटेगी ये चढ़ाई.
इस इलाके में घांङल लगते ही हर पड़ाव से पहले पत्थरों की चट्टी लगा कर उनके बीच में एक बहुत बड़ा पत्थर रखा दिखता है. लक्ष्मण बता रहा कि यह लम्बा पत्थर पथ प्रदर्शक का काम करता है तो साथ में इसे पथ रक्षक के रूप में पूजा भी जाता है.
आगे चल रहे शिकारी युवा बता रहे कि इस इलाके में कस्तूरा मृग भी हैं. जिनको मारने बाहर के शिकारी भी यहाँ आने की फिराक में रहते हैं. हम लोग तो ऐसे पोचरों की भनक लगते ही उन्हें इलाके से बाहर भगा देते हैं. खुद भी हम कस्तूरा पर बंदूक नहीं तानते. यहाँ कस्तूरा मृग दिख सकता है की खबर से हम बड़े उत्साहित थे पर अभी तक तो कोई जानवर नहीं दिखा. इतने लोगों की पद चाप सुन वह लुकी गये होंगे.
अचानक ही एक हरे भरे मोड़ पर उसने बताया कि अभी कुछ देर पहले यहाँ से कस्तूरा गया है क्योंकि यहां उसका गू पड़ा है. फिर वह बोला कि कस्तूरे के गू से भी कस्तूरी की खुश्बू आती है. यह सुन दीवानी ने नीचे झुक अपनी नाक के दोनों नथुनों से प्राणायाम की तर्ज पर सांस खींची और असमंजस में सर हिलाया. हम उसके इस परीक्षण से संतुष्ट हो आगे बढ़ लिए.आगे अब फिर हरियाली दिखने लगी थी. दोनों शिकारी अब फौजी साब के साथ नीचे कहीं गधेरे की तरफ जाने का प्लान बना चल दिए और हम ऊपर की ओर जहां फिर से पेड़ दिखाई देने लगे थे और घास -बेल- लता -कुंज सब आने लगा था. साथ में चिड़ियों की चहचहाट भी,जैसा वह अपने घोंसलों में लौटने बखत करती हैं.
शाम ढलने लगी थी. आगे एक छोटा समतल मैदान था. कुण्डल दा ने सारा सामान यहीं रखवा दिया था. सोबन के साथ हमारे दोनों पथ प्रदर्शकों ने टेंट खोलने शुरू कर दिए थे. घंटे भर में दो बड़े और एक छोटा टेंट लग चुका था. स्टोव जला कुण्डल दा चाय बना हमें पिला चुके थे. निर्मल और करम दा भी आ गये थे.
पानी का सोता भी बस पास ही था. मैं और दीप जब दिशा मैदान से वापस हो एक जेरीकेन में पानी भर रहे थे तो हमें फायर की आवाज सुनाई दी.दीप बोला लगता है शिकारियों को कुछ हाथ लगा है. यह खबर हमने लौट कर टेंट में दी तो पता चला कि सबने ही ये आवाज सुनी थी. सब को उम्मीद थी कि कुछ शिकार मार कर ही अपने युवा बंदूकची व फौजी भाई लौटेंगे.
(Namik Travelogue Mrigesh Pande)
जंगल से बटोरी लकड़ियों से आग सुलगाई जा चुकी थी. चूल्हे तो वहां पहले से थे. सोबन ने बड़े पतीले में लाल चावल धो कर चढ़ा दिया था. ये लाल चावल उसके बाबूजी जौनसार के अपने दौरे से लौटते लाये थे. दो तीन किलो वह यहां ले आया था. कुण्डल दा प्याज़ छील रहा था तो करमदा लाषण अदरख थेच रहे थे .
रात के अँधेरे में चन्द्रमा की रोशनी में हमारे ठीक सामने पंचचूली का अद्भुत सौंदर्य जगमगा रहा था. दीवानी तो कब से उसे निहार रहा था. उसके हाथ में पनामा सिगरेट थी जो बस सुलगा दी गई थी. उसके हाथ से वह सिगरेट दीप ने हौले से निकाल ली. दीवानी का ध्यान टूटा और वह मेरे से बोला देखिये पंचचूली की तेरह चोटियां यहां से साफ साफ गिनी जा सकतीं हैं. अब इनकी सफेदी देखिये सफेद के साथ भी कितने सफेद,कोई चूने सा,कोई कमेट सा, कोई दूध सा,कोई बर्फी सा. आप स्टैंड लगा इसे खींचो ये मास्टर शॉट है.
टेंट के बाहर सुलगी हुई आग के इर्द गिर्द अब सब लोग आ कर बैठ गये थे. सोबन एक पहाड़ी गीत गुनगुनाने लगा था जिसके सुरों के साथ हम ताली भी बजा रहे थे और गीत की पंक्तियाँ दोहरा भी रहे थे. तभी कुछ दूरी से टॉर्च की रोशनी धीरे धीरे हमारे करीब आती गई. हमारे फौजी साब के साथ बंदूकची युवा लौट आए थे जिनके हाथ में कई जंगली मुर्गीयां थीं. करमदा ने तुरत उनकी गिनती भी कर डाली कुल आठ कुकुड़ी हैं सैबो.
मैं, दीप और दीवानी आग के पास बैठे ही रहे. बाकी सारी पार्टी उनकी सफाई -कटाई में जुट गई. फौजी सैब के बैग से करमदा ने हरकुलिस निकाल पांच छः गिलास रंगीन कर दिए. सबकी थकान उतरने का जंतर तैयार था.
जंगली मुर्गी के शिकार का रसा बड़ा स्वाद होता है. पकानी भी काफी देर तक पड़ती है और बहुत कम मसाले मैं तैयार भी हो जाती है. वैसे भी कुण्डल के हाथ में खाना बनाने का जादू था तो करम दा खाना पसकने के उस्ताद थे.
अगली सुबह टेंट वगैरह समेट और चाय पी चल पड़ने में सात बज गये. अब तो बस एकसार गति से चलते-चलते बारह बज गये और हम उस जगह पर पहुँच गये जहां नंदा जात लगती है. शीतल और लछम ने बताया कि ऊपर से आने वाली जल की धारा इसी स्थान पर नंदा ताल के रूप में बदल जाती है. इस जगह पर आसपास की सभी बसासत से सारे परिवारों द्वारा इकठ्ठा किये गए मक्खन को नंदादेवी माता को चढ़ाने का रिवाज है. वह जगह जहां से पानी की धार निकलती है उसके ठीक ऊपर नन्दाघुँटी की छवि वाली एक पर्वत श्रृंखला है.
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यहां से अब एक किलोमीटर से कुछ ज्यादा तिरछा चल फिर दो किलोमीटर के आसपास की बड़ी विकट चढ़ाई है जिसका ढाल सत्तर-अस्सी डिग्री तक है. इसे पार कर हम पहुँचते हैं रुनाधार.यह सबसे कठिन और थका देने वाली चढ़ाई है जिसमें न तो हाथ थामने की कोई टेक है और न ही कोई ऐसी घास और वनस्पति जिसको पकड़ संतुलन बनाया जा सके. बस अपने हाथों से संतुलन बनाए रखना है और पाँव सही जगह रखे जाएं इसका ध्यान रखना है. जब ऐसी चढ़ाई हम चढ़ रहे थे तो कई बार ऐसा लगा कि नाख से सांस नहीं ली जा सक रही है बार बार मुँह से हवा खींचनी और छोड़नी पड़ रही है. दम अलग घुट रहा है. इसका मुख्य कारण इस ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी होना है. इससे सिर में दर्द भी बढ़ता जाता है और बार बार रिंगाई आती है. यहां ऐसी दशा को विष लगना कहते हैं. ऐसी विकट चढ़ाई को पार कर जब हम ऊंचाई पर आ पहुंचे तो सामने दूर तक फैला ढलान था जिसमें रंग बिरंगी मखमली घास उगी थी. यहां पहुँच सब विश्राम की मुद्रा में आ गये. बहुत देर तक इस नरम घास पर पसरे रहे. धीरे धीरे थकान कुछ कम हुई.
इस चढ़ाई पर चढ़ते सबसे आगे निर्मल को कर दिया उनके साथ करमदा, शीतल और लक्ष्मण थे. हम सब पीछे रहे. यहाँ ऊपर पहुँच और खूब आराम के बाद ऐसा लगा कि वाकई कोई ऐसी ताकत तो थी ही जिसने हमें इस खतरनाक रास्ते से सकुशल पार करा दिया. ऐसे भी सोच पड़े कि स्थानीय निवासी कितनी कठिन परिस्थितियों में इस सीमांत प्रदेश में अपना जीवनयापन करते हैं. अब इससे आगे हमें हीरामणि गुफा तक जाना है.
अभी इस मलमली घास पर चलते और ढलान से उतरते आगे बढ़ते ऐसा महसूस हो रहा है कि पैरों में जान आ गई है. हम आगे बढ़ते जा रहे हैं और अब ऐसी जगह पहुँच गये हैं जहां ब्रह्मकमल खिले दिखने लगे हैं. कुछ पोंधों की ओर इशारा कर लछम बता रहा है कि ये सालम पंजा है. इसकी जड़ें बहुत ठोस सफेद मूसली की तरह पंजे के आकार की होती हैं. कई रोगों को दूर करने के साथ यह बहुत ताकतवर जड़ी है बहुत महंगी भी बिकती है. ऐसे ही यहां सालम मिश्री भी होती है.
ऊपर से चली आ रही ढलान अब कम होती जा रही है. अब सामने एक तिरछा सा रस्ता है. उस पर हम सब तेजी से बढ़े जा रहे हैं. अब धूप भी ढलती जा रही है और हमें सोबन ने बताया है कि हर हाल में हमें शाम से पहले हीरामणि गुफा तक पहुँच ही जाना है. अब इस रास्ते पर कई जगह जमी हुई बर्फ दिखाई दे रही है यानि ये हिमनद वाला इलाका है. इस सारे रास्ते में ढलान है. इस ढाल वाले रास्ते के तीन किलोमीटर तो हमने पार कर ही लिए होंगे जिनके बीच में कई सारे हिमनद पड़े हैं. यहां बहुत शीत है. जैसे जैसे शाम ढल रही है ठंडा बढ़ते जा रहा है. ऊपर को चढ़ने में जितनी गर्मी और उमस लगी थी यहां उसके ठीक विपरीत जाड़ा लगने लगा है. अब स्थिति यह है कि कोई सोच विचार किये बगैर बस कदम आगे बढ़ाते जाने हैं.
आखिर हम उस उडियार तक पहुँच ही गये हैं जिसे हीरामणि गुफा कहा जाता है. इसके ठीक ऊपर हीरामणि ग्लेशियर है. वाकई में इसका जैसा नाम है वैसा ही यह दिखता भी है. गुफा के भीतर हम आ पहुंचे हैं अब आज की रात हमें यहीं बितानी है.गुफा यानि कि उडियार में रहने का यह पहला अनुभव था.
उडियार के भीतर सर झुका के जाने के बाद देखा कि भीतर भी वह ऊबड़ खाबड़ भले ही थी पर हर किसी के पसर सकने लायक वहां जगह बन सकती थी. करम दा ने भीतर देख भाल कर बीचों -बीच लालटेन जला दी. बाहर की तुलना में गुफा में काफी गर्मी थी. सब ने अपना सामान रख अपने लेटने लायक जगह चुन ली. कुण्डल और सोबन पहले चाय और फिर खाने का बंदोबस्त करने लगे.नामिक गांव होते हीरामणि हिमनद के रस्ते में बालछन कुंड, थाला बुग्याल ,थाला और चाफु टॉप ,रणथ न टॉप ,सुदाम खान और नंदा कुंड पड़ते हैं.
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बालछन कुंड के पास ही बालछन देवता का मंदिर है तो कुंड के दूसरी और ढलान वाली जगह पर एक निर्मल सरिता बहती है जिसका जल बिलकुल साफ़ है व इसमें किसी तरह की गाद नहीं दिखाई देती. बालछन देवता के मंदिर में नामिक से ले कर होकरा तथा आस पास के गांवों से आये स्थानीय ग्रामीण पूजा अर्चना करते व मनौती चढ़ाते हैं.
रात बढ़िया बीती. पता नहीं कितने किसम के झींगुर थे जो कभी एक साथ अपना कोरस शुरू करते तो खट्ट से चुप भी होते. बदन में यहां वहां खुजली अलग पड़ती .गुफा में आते ही सबको नींद का सुरूर सा लग. शायद भीतर कुछ कम हवा होने से ऐसा हुआ हो. गुफा के द्वार के सामने कुण्डल दा ने चूल्हे में सुलगती लकडियां थोड़ा पटपटा के रख दीं ताकि अचानक मानसगंध सूंघ कोई जानवर प्रवेश न करे. सुबह भी देर से नींद खुली. अब आगे चलने की तैयारी होने लगी. अब आज हमें पेंथाग तक जाना है.
हीरामणि गुफा से पेंथाग जाते हुए फिर से करीब दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई पार करनी होती है. यहाँ चढ़ते हुए हाथ टेकने व सहारा लेने को तो बहुत कुछ था पर पैरों के नीचे का रस्ता कई जगह बहुत ही संकरा था. ऐसी कई जगहें थीं जहां कदम रखने को बस पांच -सात इंच की जगह थी. पैर अगर जरा भी रपटे तो नीचे भ्योल है जिसे देखते ही सिर में रिंगाई आ जा रही थी. कई जगह तो मिट्टी भी फिसलन भरी थी क्योंकि इलाका ही ये हिमनद वाला हुआ.
पूरे पांच घंटे लगे पेंथाग पहुँचने में.दिन के दो बज गये थे. अब हमारे सामने दूर तक फैला नामिक हिमनद था. इस समय न तो बादल थे और न ही कुहासा. पेंथाग से आगे अब उतार था करीब दो किलोमीटर का और फिर इतना ही ऊपर चढ़ना. यहां करीब पचास मीटर का छोटा हिमनद दिखा. सामने कुछ गुफाएं भी थी. उनमें बाकी तो संकरी सी थीं पर एक ऐसी भी थी जिसमें सब लोगों के समा जाने लायक की जगह थी. बस आज रात की सही जगह हमें मिल चुकी थी. आस पास से काफी लकड़ी बीनने का क्रम चला. इसमें टूटी -गिरी भोज पत्र की लकड़ी ज्यादा थी. इसी से रात का भोजन बनने की तैयारी हुई. शाम ढलते ही अचानक बहुत ठंड बढ़ गई थी. ठीक मुँह के सामने ग्लेशियर जो था.
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रह रह कर हवा के तेज झोकों के साथ बर्फ़ीली ठंडी लहर मुँह और हाथ को सुन्न कर रही थी. आग के इर्द गिर्द बैठने से ही कुछ ताप मिल रहा था. कुण्डल दा, करमदा और सोबन खाना बनाने में जुट गये थे. कुण्डल दा की खूबी थी कि वह कुछ भी खा लो वाले सिद्धांत पर न चल पूरे मनोयोग से भोजन की तैयारी करता था. आज पूरी और आलू की सब्जी के साथ आटे का हलुवा तैयार हो रहा था जिसमें काला गुड़ पड़ा था. सितम्बर के महिने में वैसे भी पुराना गुड़ ही मिल पाता है. निर्मल अपने जाम के साथ थोड़ी देर तलत मेहमूद बनता रहा पर ठंड इतनी हो रही थी कि उसकी आवाज भी फ्रीज हो मंद पड़ गई थी.पीने का पानी भी गुनगुना कर ही पीना पड़ रहा था. इस हिमनद का रात्रि भोज निबटते दस बज गये. थकाई भी विकट हो गई थी.
सुबह मौसम सुहाना था. आसमान बिल्कुल साफ था. बर्फ़ीली चोटियां सूरज की किरणों से चांदी सी चमक रहीं थीं. ये हमारा आखिरी पड़ाव था. चाय पी कर अब हम आराम से ग्लेशियर के आसपास का इलाका घूमने निकले. भले ही सूरज अपने पूरे ताप में था पर हिमनद की ठंड रह रह कर चुभ रही थी. हिमनद पर पड़ती धूप का रिफ्लेक्शन अलग चकाचौंध पैदा कर रहा था. नीले आसमान के नीचे बर्फ़ीली चोटियों से नीचे चिपटा हिमनद दूध से नहाया लग रहा था. करीब एक घंटे तक यह दृश्य आँखों के सामने बना रहा.
जैसे-जैसे हिमनद के करीब बढ़ते हैं तो सामने नजदीक से दिखाई देने लगते हैं मलवे और रौखड़ के ढेर, हिमनद पर ऊपर से शिलाखंडो के धचकने -गिरने -लुढ़कने से बन गये गड्ढे और एकसार सतह को फाड़ती चीरती दरारें. अब जैसे जैसे धूप बढ़ती जाती है हिमनद के नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता हुआ कुहासा फैलता दिखाई देता है.परिदृश्य एकदम बदलता है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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