पहाड़, भाबर व तराई वाले तीन तरह की भूमि के मिश्रणों वाली नैनीताल लोकसभा सीट अपने पहले लोकसभा चुनाव के दिनों से ही ऐसी है. राज्य बनने से पहले इसमें उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की बहेड़ी विधानसभा सीट भी शामिल थी. राज्य बनने के बाद 2005 से 2007 तक नए सिरे परिसीमन की प्रक्रिया चली तो नैनीताल जिले की रामनगर विधानसभा सीट गढ़वाल (पौड़ी) लोकसभा सीट में शामिल हो गई. बहेड़ी विधानसभा सीट तो राज्य बनने के बाद ही अलग हो गई. चम्पावत जिले का टनकपुर वाला हिस्सा भी नए परिसीमन के बाद अल्मोड़ा लोकसभा सीट के साथ चम्पावत विधानसभा सीट के कारण चला गया. इस तरह देखें तो नैनीताल लोकसभा सीट के आकार व क्षेत्र में भी समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है.
अपने प्रारम्भिक काल पहले आम चुनाव 1951-52 से ही नैनीताल लोकसभा सीट कांग्रेस के गढ़ की तरह रही है. इसमें पहली बार सेंध 1977 के चुनाव में लगी. जब कांग्रेस के सांसद केसी पंत जनता पार्टी के प्रत्याशी भारत भूषण से चुनाव हार गए थे. इससे पहले केसी पंत लगातार तीन बार 1962, 1967 और 1971 में इस सीट से कांग्रेस के सांसद चुने जाते रहे. उससे पहले भी दो चुनावों में कांग्रेस के पास ही यह सीट रही. देश के पहले चुनाव में 1951-52 में गोविन्द बल्लभ पंत के जवाईं सीडी पान्डे और 1957 के दूसरे चुनाव में भी कांग्रेस के ही सीडी पान्डे सांसद बनने में सफल रहे. पहले लगातार पांच बार कांग्रेस यहां से विजयी होती रही. आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस के एकाधिकार का यह सिलसिला टूटा और उसके बाद कोई भी दल इस सीट ज्यादा वर्षों तक अधिपत्य नहीं जमा पाया.
आपातकाल के बाद जनता पार्टी भले ही सत्ता में आ गई हो, लेकिन वह ढाई साल में ही सत्ता से बाहर हो गई और 1980 में देश में मध्यावधि चुनाव हुए. जिसमें जनता पार्टी के भारत भूषण को हरा कर कांग्रेस के नायायण दत्त तिवारी सांसद बने. इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद 1984 में चुनाव हुए तो कांग्रेस के सत्येन्द्र चन्द्र गुड़िया सांसद बने. उसके बाद 1989 के चुनाव में कांग्रेस के सत्येन्द्र गुड़िया को जनता दल के डॉ. महेन्द्र सिंह पाल ने हराया. जनता दल की सरकार भी अपने आपसी झगड़ों के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए. रामलहर के बीच हुए इस चुनाव में नैनीताल सीट पर भारी उलट फेर हुआ और भाजपा के एक अनजान युवा चेहरे बलराज पासी ने कांग्रेस के खांटी नेता एनडी तिवारी को चुनाव में मात दे दी और इस तरह इस सीट पर पहली बार भाजपा को कब्जा जमाने में सफलता मिली.
उसके बाद जब 1996 में लोकसभा चुनाव हुए तो तब तक एनडी तिवारी कांग्रेस छोड़कर कांग्रेस के दूसरे दिग्गज नेता और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री अर्जुन सिंह के साथ एक अलग दल कांग्रेस तिवारी के नाम से बना चुके थे. इन दोनों नेताओं के कांग्रेस अध्यक्ष व तत्कालीन प्रधानमन्त्री पीवी नरसिम्हा राव के राजनैतिक मतभेद इतने तीखे हुए कि दोनोें को कांग्रेस छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था. तिवारी ने 1996 का चुनाव कांग्रेस तिवारी के बेनर तले लड़ा और उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह बैठ कर फूल चढ़ाई हुई महिला था. उन्होंने यह चुनाव अपने जीवन का आखिरी चुनाव कह कह लड़ा और तिवारी के प्रति उमड़ी सहानुभूति में भाजपा के हाथ से यह सीट फिसल कर कांग्रेस तिवारी के पास चली गई. दिल्ली में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी. पर यह सरकार देश को दो प्रधानमन्त्री देने के बाद चली गई और देश में 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए.
इस चुनाव के समय कांग्रेस में उपेक्षा के चलते केसी पंत ने भाजपा का दामन थाम लिया. भाजपा ने उनकी पत्नी इला पंत को नैनीताल से चुनाव मैदान में उतार दिया. तब तक एनडी तिवारी भी कांग्रेस में वापस लौट चुके थे और कांग्रेस ने उन्हें ही नैनीताल सीट से टिकट दे दिया. तिवारी व पंत में पुरानी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता के चलते वह चुनाल बहुत रोचक हुआ. पर बाजी गोविन्द बल्लभ पंत की बहू और केसी पंत की पत्नी इला पंत के हाथ लगी. तिवारी को एक बार फिर से हार का मुँह देखना पड़ा था. केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बनी. पर वह लगभग एक साल ही सत्ता में रही और 1999 में फिर से मध्यावधि चुनाव हुए. तिवारी को कांग्रेस ने फिर से अपना प्रत्याशी बनाया तो तिवारी ने भाजपा से यह सीट छीन ली. उसके बाद 2002 में तिवारी उत्तराखण्ड के मुख्यमन्त्री बने और उसके बाद इस सीट पर 2002 में ही उप चुनाव हुआ. कांग्रेस की ओर से डॉ. महेन्द्र सिंह पाल को टिकट मिला और भाजपा ने बलराज पासी को टिकट दिया. कांग्रेस के पाल विजयी रहे.
जब 2004 में लोकसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस ने महेन्द्र सिंह पाल की जगह बाबा केसी सिंह को टिकट दिया और विजयी रहे. सिंह 2009 के चुनाव में कांग्रेस की ओेर से फिर से सांसद बने. जब 2014 में लोकसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस की ओर से केसी सिंह फिर मैदान में थे. भाजपा ने पूर्व मुख्यमन्त्री भगत सिंह कोश्यारी को प्रत्याशी बनाया. इस बार जीत की बाजी भाजपा के कोश्यारी के हाथ लगी. इस तरह पूरे डेढ़ दशक बाद नैनीताल सीट पर भाजपा को विजय मिली. भाजपा ने इस बार कोश्यारी को मैदान में न उतार कर प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट पर दांव लगाया है. कोश्यारी के चुनाव लड़ने से इंकार करने के बाद पार्टी को यह परिवर्तन करना पड़ा है. अगर हम इसका राजनैतिक विश्लेषण करें तो कांग्रेस ने इस सीट पर लगातार जीत की हेट्रिक बनाई है, लेकिन कांग्रेस विरोधी कोई भी दल यहां लगातार दो चुनाव नहीं जीत सकें हैं. जब 1977 में जनता पार्टी, 1989 में जनता दल और भाजपा 1991 और 1998 में यहां से जीती तो अगले चुनावों में उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा.
आजादी के बाद अब तक हुए चुनावों का विश्लेषण करें तो कांग्रेस का पलड़ा भारी दिखाई देता है और यह सीट राजनैतिक लिहाज से कांग्रेस की परम्परागत सीट भी है. पर अगर हम पिछले विधानसभा चुनाव को देखें तो इस सीट की 14 विधानसभा सीटों नैनीताल, भीमताल, हल्द्वानी, लालकुँआ, कालाढूँगी, खटीमा, नानकमत्ता, सितारगंज, किच्छा, रुद्रपुर, गदरपुर, बाजपुर, काशीपुर और जसपुर में केवल दो सीटों हल्द्वानी व जसपुर ही कांग्रेस के पास हैं. अन्य 11 सीटों पर भाजपा का कब्जा है तो भीमताल से निर्दलीय जीते रामसिंह कैड़ा भी भाजपा के साथ कदमताल कर रहे हैं. विधानसभा सीटों की यह स्थिति कांग्रेस के लिए खतरे का संकेत है. इससे इतर जब हम राज्य बनने के बाद हुए तीन लोकसभा चुनावों का विश्लेषण करते हैं तो पता चलता है कि जिस भी दल की राज्य में सरकार थी, लोगों ने उसके खिलाफ लोकसभा चुनाव में मतदान किया. यह विश्लेषण कांग्रेस को सकून देता है.
गत लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी को 57.79 प्रतिशत वोट मिले तो कांग्रेस के केसी सिंह को केवल 31.95 प्रतिशत ही वोट मिले. इस समय इस सीट पर 18 लाख 18 हजार 271 मतदाता हैं. जिनमें से 9 लाख 56 हजार 206 पुरुष, 8 लाख 62 हजार 031 महिला और 34 थर्ड जेंडर मतदाता हैं. अंतिम दौर में भाजपा से टिकट के दावेदारों में तीन नाम भगत सिंह कोश्यारी, अजय भट्ट और पुष्कर सिंह धामी का था. कोश्यारी के चुनाव न लड़ने की घोषणा के बाद भट्ट और धामी के बीच ही टिकट का निर्णय होना था. पार्टी नेतृत्व द्वारा उत्तराखण्ड में किसी विधायक को टिकट न दिए जाने के निर्णय के बाद भट्ट ही एकमात्र दावेदार बचे. भट्ट और धामी दोनों को ही उत्तराखण्ड में कोश्यारी समर्थक माना जाता है. इसी कारण से कोश्यारी ने न तो किसी का समर्थन किया और न ही किसा का विरोध. कोश्यारी का यह मौन समर्थन भी भट्ट को टिकट दिलवाने में अहम रहा. पार्टी को इस सीट पर किसी तरह के विद्रोह का सामना भी नहीं करना पड़ रहा है. टिकट न मिलने से नाराज चल रहे पूर्व सांसद बलराज पासी व उनके राजनैतिक शिष्य अरविन्द पान्डे भी नेतृत्व द्वारा आंखें तरेरे जाने के बाद चुपचाप चुनाव प्रचार में लग गए हैं.
कांग्रेस में अंतिम समय में टिकट की दौड़ में केवल डॉ. महेन्द्र सिंह पाल का ही नाम रह गया था. उनके पक्ष में नेता प्रतिपक्ष डॉ. इंदिरा ह्रदयेश और पूर्व सांसद केसी सिंह भी दमदार तरीके से खड़े थे. पर कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत द्वारा हरिद्वार की बजाय नैनीताल से चुनाव लड़ने की दावेदारी करने से इस सीट पर अंतिम समय में 23 मार्च को ही निर्णय हो पाया. हरीश रावत को भी वैसे पार्टी स्तर पर यहां किसी तरह की बगावत का सामना तो नहीं करना पड़ रहा है, लेकिन टिकट के मुख्य दावेदार महेन्द्र पाल की नाराजगी यह रिपोर्ट लिखने तक (30मार्च) दूर नहीं हुई थी. पर रावत के लिए राहत भरी बात यह है कि नेता प्रतिपक्ष इंदिरा ह्रदयेश और पूर्व सांसद केसी सिंह उनके प्रचार में लगे हुए हैं. रावत के चुनाव लड़ने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह बना हुआ है.
यहां से केवल 7 प्रत्याशी ही चुनाव मैदान में हैं. जिनमें कांग्रेस के हरीश चन्द्र सिंह रावत, भाजपा के अजय भट्ट, भाकपा माले के डॉ कैलाश पान्डे, बसपा के नवनीत प्रकाश अग्रवाल, बहुजन मुक्ति मोर्चा के ज्योति पी टम्टा, प्रगतिशील लोकमंच के प्रेम प्रकाश आर्या और निर्दलीय सुकुमार विश्वास. सपा-बसपा के समझौते में यह सीट बसपा के खाते में गई है. बसपा ने बरेली व्यवसायी नवनीत को अंतिम समय में प्रत्याशी घोषित किया. अनजान चेहरा होने से बसपा प्रत्याशी भी इस सीट पर त्रिकोणात्मक संघर्ष से बाहर ही हैं. जिसकी वजह से इस सीट पर कांग्रेस व भाजपा के बीच ही सीधी टक्कर है. भाजपा प्रत्याशी अजय भट्ट को मोदी करिश्मे के भरोसे चुनावी नैय्या पार पा लेने का भरोसा है. प्रधानमन्त्री मोदी की 28 मार्च को रुद्रपुर में हुई रैली में भाजपा के सभी नेताओं ने मोदी के नाम पर ही वोट माँगा. अजय भट्ट ने तक खुद को वोट देने की अपील नहीं की.
वहीं कांग्रेस के हरीश रावत को अपनी राजनैतिक रणनीति और चुनाव प्रबंधन के दम पर चुनाव जीत लेने का विश्वास है.
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जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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