पिछली क़िस्त – पहाड़ और मेरा बचपन – 4
गांव में उन बहुत बचपन के दिनों के बाद मुझे दिल्ली के दिन याद आते हैं. पर दिल्ली का बचपन विषय से बाहर का मामला हो गया. लेकिन अगर उस बचपन के बारे में नहीं बताऊंगा, तो करीब ग्यारह साल की उम्र में फिर पहाड़ लौटने के बाद के बचपन के तार ठीक से जुड़ नहीं पाएंगे, इसलिए दिल्ली और जम्मू, जहां में लगभग एक साल रहा, दोनों जगहों की कुछ बड़ी यादों को साझा कर रहा हूं. आज की पीढ़ी के जो युवा इसे पढ़ेंगे, वे रश्क करेंगे कि भाई वाह क्या बात है, कभी ऐसा भी बचपन हुआ करता था. मेरे उस बचपन से कोई भी रश्क करेगा क्योंकि वह था ही इतना ज्यादा भरा हुआ. उन दिनों न मोबाइल थे न कंप्यूटर गेम्स पर मुझे याद नहीं पड़ता मुझे कभी ‘बोरियत’ जैसी कोई फीलिंग हुई हो. मैं जब दिल्ली पहुंचा, तो मैं शायद पांच साल का रहा हूंगा. वहां मुझे एक सरकारी स्कूल में पहली कक्षा में दाखिल कर दिया गया. हमारा परिवार तब मदनगीर में गली नंबर 32 में रहता था. गली में सबसे पहले ही घर में धोबी का परिवार था, जिसमें पांच-छह बच्चे रहे होंगे. एक-एक, दो-दो साल के फासले पर हुए ये सभी बच्चे मेरे दोस्त थे. गर्मियों में हम बाहर गली में चारपाई डालकर सोते थे. सोने से पहले गप्पों का दौर चलता था. एक बार धोबी के बच्चों में से किसी ने मुझे सोने से पहले भूतों के किस्से सुनाए. मैं तब तक भूतों की परिकल्पना से अनभिज्ञ था. इसलिए मेरे लिए यह जानना कि भूत होते हैं और वे तरह-तरह के होते हैं, उनके पैर उलटे होते हैं, वे आदमी को उठाकर पटक सकते हैं, आदि-इत्यादि सबकुछ हैरान करने वाला था. मैं हैरान होता तो कोई बात न थी, लेकिन जाने क्या जो असर हुआ भूतों के किस्से का कि मैं भूत-भूत चिल्लाने लगा. मेरे दिमाग से भूत निकलता न था. मेरी हालत की खबर मां तक पहुंची तो वह दौड़ी आई बाहर. उसने मुझे अपने सीने से चिपकाया और मां की तरह प्यार करते हुए समझाया कि बेटा ये भूत-सूत कुछ नहीं होता. हमारा बेटा तो बहादुर है. लेकिन मां की बातों का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ. मैं अब भी सम्मोहन की अवस्था में था और कहीं अनंत में देखते हुए भूत-भूत चिल्लाए जा रहा था. मेरी हालत देख मां मुझे घर के अंदर ले गई. मुझे याद है कि कुछ देर बाद मुझे बूबू के सामने बैठाया गया. बूबू ने मुझे पूरी बात बताने को कहा कि भूत के बारे में मैंने कहां सुना, क्या सुना. मैंने उन्हें पता नहीं क्या बताया. पर जैसे ही मैंने अपनी बात खत्म की बूबू ने जमीन पर रखे हुए लोटे से पानी लेकर मेरे मुंह पर जोर के छींटे मारे और मां ने बड़ी ही बेरहमी से मेरे गालों पर तीन-चार चमाटे जड़ दिए. चमाटे तो जड़े पर मुझे याद है कि उनकी वजह से मेरे गालों पर कोई झनझनाहट नहीं हुई, चोट नहीं लगी, दर्द नहीं हुआ. बाद में कई वर्षों बाद जब मैंने मां से पूछा कि तूने मुझे चमाट क्यों मारे थे, तो उसने कहा, तुझे नहीं मारे थे, उस भूत को मारे थे, जो तुझ पर चढ़ गया था. हालांकि मां के चमाट खाने के बाद भी मैं शांत नहीं हुआ था और अंतत: मां ने बाहर मेरे चारपाई में तकिए के नीचे दराती रखी क्योंकि वह मानती थी कि लोहे से भूत करीब नहीं आते. मुझे मां के इन उपक्रमों के बीच आखिरकार कब नींद आई पता नहीं, पर वह रात मेरी स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो गई और आज भी मैं मां से कभी-कभी मजाक करते हुए सवाल करता हूं कि तू ने चमाटे मारे तो बहुत जोर के थे पर मुझे लगे तो बिल्कुल नहीं. सचमुच क्या वे भूत को लगे थे? मां भी हंसकर बोलती है कोई मां अपने बेटे को क्यों मारेगी. मैंने भूत को ही मारे थे.
भूत के इस किस्से से पहले एक और घटना याद आ रही है. मैं जब गांव से दिल्ली गया था, तो भाषा के रूप में मुझे सिर्फ पहाड़ी समझ आती थी. वह भी सिर्फ वही पहाड़ी, जो हमारे गांव, इलाके में बोली जाती थी. मैं समझता भी वही भाषा था और बोलता भी वही था. मुझे लगता है कि बाकी जगह तो मेरी भाषा चल भी गई होगी क्योंकि कोई नहीं भी समझे तो क्या फर्क पड़ता, पर स्कूल में मास्टर जी को जब कुछ समझ न आया, तो उन्होंने बड़े भाई को बुलवा लिया. उन्होंने बड़े भाई से मेरा नाम, कक्षा वगैरह के बारे में जानकारी हासिल की. भाई को थोड़ा अटपटा तो लगा ही होगा. उसने घर जाते हुए मुझे बड़ी हिकारत की नजर से देखा. बड़े भाई का मेरे प्रति ऐसा बर्ताव मेरे बारहवीं पास करने तक रहना था क्योंकि मैं तब तक जैसा कि पहाड़ में कहते हैं बहुत हद तक अड्याठों जैसा बर्ताव करता रहा. उस रोज घर पहुंचने के बाद भी मुझसे सवाल पूछे गए थे कि मैं मास्टर जी के हिंदी में पूछे गए साधारण से सवालों के जवाब क्यों नहीं दे पाया. मैंने अपनी तरह से माता-पिता को तर्क दिए. ये वे दिन थे जब पढ़ाई को लेकर मुझे सांप सूंघ जाता था. पिताजी करीब सात-आठ बजे रात को घर पहुंचते थे. उससे पहले हमें खेल-कूदकर घर वापस आ जाना होता था. पिताजी मुझे तो नहीं पढ़ाते थे, पर उन दिनों पांचवीं में पढ़ रहे भाई के साथ वे अक्सर भिड़े रहते. गणित पढ़ाते हुए उनका हाथ किताब पर कम और बड़े भाई की गर्दन पर ज्यादा रहता था. एक बार मां उनके बच्चों को इस तरह मारकर पढ़ाने के ढंग से इतना गुस्सा हो गई कि उसने सारी किताबें उठाकर छज्जे पर फेंक दी, जहां घर का फालतू सामान पड़ा हुआ था. बड़े भाई की हालत देख मेरे डर की कोई सीमा नहीं रहती थी. मैं पिताजी के घर आने से पहले अच्छे बच्चों की तरह जमीन पर दरी बिछा किताब खोलकर बैठ जाता हालांकि मैं उस किताब में से पढ़ कुछ नहीं पाता था क्योंकि मुझे नींद आने लगती थी. किताब मेरी जांघ से कभी एक ओर, कभी दूसरी ओर फिसलती रहती और मैं नींद में झटके खाते रहता, बेसब्री से मां की आवाज का इंतजार करते हुए क्योंकि मां के हमें खाने पर बुलाने पर ही हम वहां से उठ सकते थे. मैं भले ही वहां बैठकर भी कुछ पढ़ता नहीं था, लेकिन मैं कक्षा एक में सफलतापूर्वक उत्तीर्ण हुआ. यहां से मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया. चूंकि पिताजी फौज में थे, उन्हें यह सुविधा थी कि वे अपने बच्चों को केंद्रीय विद्यालय में पढ़ा सकते थे., उन्होंने मेरा दाखिला भी केंद्रीय विद्यालय में करने का फैसला किया, जिसके लिए मुझे एक परीक्षा में बैठना था. मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कब और कितनी पढ़ाई की, पर यह याद है कि परीक्षाफल जब आया तो मेरा नाम ग्यारहवें नंबर पर था. इस तरह दिल्ली में सरकारी स्कूल से पहली कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मुझे केंद्रीय विद्यालय में पुन: कक्षा एक में डाल दिया गया यानी मैं सात वर्ष की उम्र में भी कक्षा एक का ही छात्र था जबकि कायदे से मुझे तीसरी में होना चाहिए था. यही वजह थी पांचवीं, छठी तक मैं अपनी कक्षा में जमकर दादागीरी करता रहा, जब तक कि मेरी कक्षा में ऊपरी कक्षाओं से फेल होकर मुझसे भी बड़े दादाओं का आना शुरू नहीं हुआ.
दिल्ली के बच्चों में मैंने पहाड़ के प्रतिनिधि के रूप में बहुत सराहनीय काम किया. ऐसा कोई खेल नहीं होगा जिसमें मैंने महारत न हासिल की. पतंग उड़ाने, उसका मांजा बनाने, लट्टू नचाने और अपने लट्टू की कील से दूसरे के लट्टू फाड़ देने, आम की गुठलियों से बाजा बनाने, साइकल के ढीले पड़ चुके पुराने टायर से लेकर लोहे के पहिए को बिना गिराए चलाते जाने, बहुत तेज घूमने वाली फिरकनी बनाने, खेतों से गन्ने चुराने, अखबार के लिफाफे बनाकर उन्हें बेचने, स्टैपू , लंगड़ी टांग, ऊंच-नीच, गुल्ली-डंडा, कबड्डी आदि खेलों में हमेशा टीम को विजयी बनाने में प्रमुख वजह बनने से लेकर बहुत ही कम उम्र में साइकल चला पाने का हुनर सीखने तक ऐसा कुछ न था जिसे करने से मैं चूक गया होऊं या जिसमें मैं कमतर रहा होऊं. साइकल चलाना थोड़ा मुश्किल काम था. लेकिन मैंने अपने बड़े भाई को चलाते देखा लिया था. उसका भी कद इतना न था कि वह साइकल की सीट पर बैठ या डंडे पर रहते हुए भी पैडल चला सके, तो वह भी कैंची मारकर साइकल चलाता था. इस स्टाइल में बच्चा बाएं हाथ से साइकल का बाईं ओर वाला हैंडल पकड़ लेता है और दायां हाथ वह हैंडल और सीट के बीच के डंडे पर रखता है. उसके दोनों पैर डंडे के नीचे से दोनों पैडलों पर चले जाते हैं और बच्चा अगर निपुण है तो पूरे पैडल घुमाता हुआ साइकल चलाता है अन्यथा आधे-आधे मारते हुए आगे बढ़ता है. भाई को साइकल चलाते देखा, तो जिद पकड़ी कि मैं भी चलाऊंगा पर उन दिनों ऐसा न था कि हम अपनी जिद अपने माता-पिता से भी साझा करते. सारे मामले आपस में ही निपटाने पड़ते थे. भाई से बहुत कहने पर भी उसने मुझे साइकल हाथ लगाने को भी नहीं दी, सिखाना दूर की बात. साइकल सीखने के लिए मुझे कक्षा पांच तक इंतजार करना पड़ा क्योंकि तभी जाकर पिथौरागढ़ में मेरी आर्मी अफसरों के बच्चों से दोस्ती हुई और उनकी साइकल पर हाथ साफ करने का मौका मिला. लेकिन साइकल सीखते हुए दो दुर्घटनाएं हुईं, उनका विस्तार से वर्णन आगे कहीं.
(जारी)
सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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