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भाषण देते हुए जब मेरे पैर कांपते रहे, जुबान हकलाती रही और दिमाग सुन्न पड़ गया

पहाड़ और मेरा जीवन – 39

(पिछली कड़ी: जब संपादकीय टिप्पणी के साथ ‘जनजागर’ के मुखपृष्ठ पर मेरी कविता प्रकाशित हुई)

जीआईसी पिथौरागढ़ में कक्षा नौ में पढ़ना शुरू हुआ, तो यह बहुत धीरे-धीरे था कि मेरे मन में पैठा केंद्रीय विद्यालय में दाखिला न मिलने और अपने जैसे ही लड़कों वाले स्कूल में पढ़ने का दुख जाना शुरू हुआ. इस दुख से बाहर निकलने के लिए मुझे अपने जीवन में सकारात्मकता पैदा करनी थी, खुद के लिए नई चुनौतियां खोजनी थीं ताकि मेरा मन लगा रहे.

मैं स्कूल में भी शुरू से अपनी छवि को अच्छा बनाना चाहता था ताकि अध्यापकों की नजर में चढ़ा रहूं और मेरा अहं भी संतुष्ट होता रहे. यही वजह थी कि मैं स्कूल की तमाम तरह की गतिविधियों में बहुत जोश के साथ भाग लेता. वह चाहे एनसीसी की परेड हो, कोई भाषण प्रतियोगिता या कोई क्रिकेट मैच हो, मैं हर जगह दिखाई दे जाता. ऐसे ही एक बार स्कूल में बाल दिवस के उपलक्ष्य में चाचा नेहरू पर भाषण प्रतियोगिता थी. बड़ा भाई उम्र में मुझसे भले ही तीन साल बड़ा था पर पढ़ाई के मामले में वह मुझसे पांच साल सीनियर था. कॉलेज में पढ़ते हुए उसने कई भाषण प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान पाने का गौरव हासिल किया था और उसे ईनाम के रूप में मिले छोटे-छोटे शील्ड हमने बाकायदा कमरे की खिड़कियों और दीवारों पर सजाकर रखे हुए थे.

मैं जानता था कि भाषण प्रतियोगिता जीतकर बड़े भाई को इंप्रेस किया जा सकता था. मैं उसे इंप्रेस करना चाहता था क्योंकि मुझे पता था कि वह मुझे नालायक समझता है. लेकिन मैं यह भी जानता था कि महज भाषण प्रतियोगिता जीतकर वह ज्यादा इंप्रेस नहीं होगा, इसलिए मैंने फैसला किया कि मैं यह भाषण अंग्रेजी में दूंगा. आपको लगेगा कि अंग्रेजी में भाषण देना कौन-सी बड़ी बात हो गई, पर यह उन दिनों बहुत बड़ी बात थी.

आप खुद सोचिए कि जो बच्चे अंग्रेजी हिंदी में पढ़ें, उन्हें क्या अंग्रेजी आएगी? अंग्रेजी को लेकर तो कॉलेज पहुंचने तक बहुत विकट स्थितियों का सामना करना पड़ा क्योंकि वहां अंग्रेजी बोलने की कोशिश करने वाले लड़कों को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था. किसी को अंग्रेजी आती ही नहीं थी, तो क्या करता.

मैं जानता था कि बड़े भाई को इंप्रेस करने के चक्कर में मैं कुछ ज्यादा ही बड़ा जोखिम उठा रहा था, इसलिए मैं मेहनत को लेकर कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था. मैंने पहले तो बहुत अच्छी लेखनी में एक सादे कागज पर भाषण तैयार किया. इस कार्य में बड़े भाई ने मेरी मदद की.

नेहरू जी पर दो किताबें मैं जिला पुस्तकालय से भी लेता आया था. सारी सामग्री से छानकर मैंने नेहरू जी पर दो पन्नों में बहुत दिलचस्प सामग्री जुटा ली. अब सवाल यह था कि उसे रटा कैसे जाए. मैं सुबह उठने के बाद कागज लेकर कॉलेज परिसर के बाग में चला जाता और वहां पेड़ के नीचे बैठकर दो-दो घंटे भाषण रटता रहता. कमरे में भी सोते-उठते मैं भाषण का ही अभ्यास करता रहता. तीन दिनों में स्थिति यह हो गई कि मुझे आद्योपांत भाषण रट गया. अब मैं उसे बिना देखे धाराप्रवाह बोल सकता था.

मैंने पर्यायवाची शब्द देख-देखकर कठिन शब्दों की जगह समानार्थी आसान शब्द डाल दिए थे. यह भी जांच लिया गया था कि भाषण सात मिनट से ज्यादा समय तक न खिंचे क्योंकि वही समय सीमा थी. मेरा आत्मविश्वास बढ़ता जा रहा था. सारे प्रतिभागियों में अकेला मैं ही था जो अंग्रेजी में भाषण देने वाला था

प्रतियोगिता के दिन स्कूल का हॉल पूरा भरा हुआ था. प्रतिभागी बच्चे हॉल में सबसे आगे की पंक्ति में बैठे हुए थे. सामने से नाम पुकारा जा रहा था. मंच पर एक डायस रखा हुआ था. तीसरे ही प्रतिभागी के रूप में मेरा नाम पुकार लिया गया. मैं बहुत सधे कदमों से मंच की ओर बढ़ा, आत्मविश्वास से भरा हुआ. जैसा कि बड़े भाई ने मुझे हिदायत दी हुई थी कि चेहरे पर हल्की सी मुस्कान भी रहनी चाहिए ताकि देखने वालों को आपके आत्मविश्वास का सीधे आभास होता रहे.

माइक के सामने पहुंच मैंने औपचारिक वाक्य बोलना शुरू किया – रेस्पेक्टेड जजेस, टीचर्स एंड माई डियर फ्रेंड्स, टुडे आई एम गोइंग टु स्पीक अबाउट आवर बिलव्ड हीरो एंड ग्रेट लीडर पंडित नेहरू जी. वाक्य पूरा करते-करते मुझे लगा कि मुझसे पहले ही वाक्य में एक-दो शब्द छूट गए. ऐसा खयाल आते ही अगला वाक्य भी लड़खड़ा गया और चौथे वाक्य तक पहुंचते-पहुंचते मुझे लगा कि मेरी याददाश्त को लकवा लग गया है क्योंकि आगे के शब्द याद आने पूरी तरह बंद हो गए .

इधर दिमाग सुन्न हो रहा था, उधर मैंने गौर किया कि डायस के पीछे मेरे पैरों में कंपन शुरू हो गया था. ऐसे कंपन का मुझे कोई पूर्व तजुर्बा नहीं था. मेरा हाल बिना पेट्रोल की गाड़ी जैसा था. जैसे वह खचाक! खचाक! कर हिचकोले खाती थोड़ी दूर जाकर रुक जाती है, वैसे ही मैं पांचवें वाक्य तक पहुंचते-पहुंचते रुक गया. इस वक्त तीन चीजें हो रही थीं बस- मेरी टांगें लगातार और तेज गति से कांपती जा रही थीं. मेरी जुबान हकलाते हुए अब बंद हो चुकी थी और मेरा दिमाग सुन्न होता जा रहा था.

मेरे सामने जो छात्र और अध्यापक बैठे थे, वे यह मानकर चल रहे थे कि मुझे ज्यादा नहीं तो दो-चार लाइनें और याद आ जाएं ताकि यह कहा जा सके कि मैंने अच्छा प्रयास किया क्योंकि तीन वाक्य भी याद कर नहीं बोल पाना किसी भी नजरिए से अच्छा प्रयास तो नहीं ही कहा जा सकता था. मैं उनके चेहरों पर अपने प्रति उमड़ती दया देख पा रहा था. स्थिति बहुत तनावपूर्ण बनती जा रही थी क्योंकि श्रोतागण मेरे मुख से भाषण की अगली पंक्तियों के निकलने का इंतजार कर रहे थे और मेरे दिमाग में सन्नाटा भर चुका था .

अब मैं सोच भी नहीं पा रहा था. जैसा कि आप लोग जानते ही हैं कि घनघोर मुसीबत की ऐसी घड़ी में ईश्वर हमेशा मेरी मदद को आया है, तो उस दिन भी उसी ने मेरी मदद की और मुझे आइडिया दिया कि मैं परायी भाषा को छोड़कर अपनी भाषा का सहारा लूं और श्रेाताओं को बताऊं कि असल में इस स्थिति के लिए यह परायी भाषा जिम्मेदार है. मैंने सन्नाटे से भर चुके हॉल में अंतत: अपनी आवाज सुनी- अध्यापकगण एवं दोस्तो, मुझे लगता है कि इस बार अंग्रेजी में भाषण देने की मेरी तैयारी ठीक से नहीं हो पाई, पर मैं अगली बार अच्छी तैयारी के साथ फिर आऊंगा. इस बार के लिए मुझे माफ करें .

मैंने ऐसा कहा और कांपती टांगों को संभालते हुए मंच से उतर गया. पर हैरानी मुझे तब हुई जब पीछे से मुझे तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ी. हॉल में उपस्थित सारे बच्चे और अध्यापक ताली बजा रहे थे. मैं जब अपनी कुर्सी पर बैठा और बगल में बैठे अध्यापक ने मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए कहा- ‘सुंदर कोई बात नहीं, तुमने कोशिश तो की’ तब मुझे समझ में आया कि जिसे मैं अपना अपमान, अपनी शिकस्त समझ रहा था, बाकी लोग उसे मेरी हिम्मत और कोशिश का नाम दे रहे थे.

उस अध्यापक के मेरी पीठ पर धौल का मेरी आने वाली जिंदगी पर कितना सकारात्मक असर पड़ने वाला था, इसकी उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी. पर मैं जानता हूं कि उनके आश्वासन ने मेरे आत्मविश्वास को बचाए रखा और वही बचा हुआ आत्मविश्वास बाद में फिर से फला-फूला और उसी ने मुझे वहां पहुंचाया जहां मैं आज हूं.

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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