पहाड़ और मेरा जीवन – 36
(पिछली कड़ी: मेरा मिट्ठू दिल लेकर उड़ गया, पर दिल ने पुकारा तो लौट भी आया)
राजस्थान में मेरे पास सब था, मिट्ठू था, दोस्त थे, खेल थे, आवारगी थी, मां के हाथ का भोजन था, पर वहां ठुलीगाड़ की राजू दी नहीं थी, जिसके बिना जीना बेकार लगता था. राजू दी यानी हैरी उर्फ हरसू की दीदी, जिसे मैं भी बचपन से दीदी पुकारता था, पर जिसने दीदी से कहीं ज्यादा मां की तरह मेरी देखभाल की थी.
ठुलीगाढ़ छोड़कर जाने के बाद वहां बहुत एकाकीपन महसूस होना लाजिमी था क्योंकि मैं वहां धमाचौकड़ी मचाए रखता था. राजू दी के मेरे पास पत्र आते थे, जिनमें वह मुझे बहुत याद करती थी. वह जितना मुझे याद करती थी, मुझे उतनी उसकी याद आती थी. उसकी याद के साथ मुझे केंद्रीय विद्यालय की भी याद आती थी.
जाहिर है स्कूल की याद के साथ अर्चना वर्मा की भी याद आती ही होगी. मैं उम्र में बड़ा भी हो रहा था. मेरी किताबों के बीच से राजन-इकबाल की किताबों की जगह अब विक्रांत के उपन्यास आ चुके थे. और अब मैं तेजी से भविष्य के बारे में भी विचार करने लगा था. मैंने राजस्थान से ही केंद्रीय विद्यालय में अपने योग के टीचर हेम सर को एक पत्र लिखा, जिसमें मैंने केंद्रीय विद्यालय में अपने दाखिले के लिए उनकी मदद मांगी.
आज मैं सोचता हूं कि तब मेरे पिता ने थोड़ी दिलचस्पी ली होती, तो शायद मुझे केंद्रीय विद्यालय में दाखिला मिल भी जाता. पिताजी ने क्या घर में किसी को मेरे स्कूल को लेकर चिंता नहीं थी क्योंकि वे जानते थे कि कुछ नहीं तो सरकारी स्कूल में तो मुझे एडमिशन मिल ही जाएगा.
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किसी को इस बात की खबर नहीं थी कि मैं किस बुरी तरह लड़के-लड़कियों वाले एक स्कूल में पढ़ना चाहता था. मुझे बहुत दिल से लगता था कि सिर्फ लड़कों वाले स्कूल में पढ़ना काले पानी जैसी सजा काटने जैसा है.
मैंने बहुत अचानक राजस्थान छोड़ा. राजस्थान छोड़ते हुए मुझे जो बातें खल रही थीं, उनमें सबसे पहले तो मिट्ठू और लाली को छोड़ना था.
जी हां, मैं अपने प्यार मिट्ठू के लिए एक गर्लफ्रेंड ले आया था. उसका नाम पता नहीं कैसे लाली पड़ गया. मुझे उन्हें छोड़कर जाने का बहुत अफसोस हो रहा था. मिट्ठू तो अब पिंजरे से निकलकर वापस आ जाता था. मैंने लाली को भी ऐसी ट्रेनिंग दी थी. पर पिंजरे से निकलना ही उनके लिए घातक साबित हुआ.
मुझे पिताजी के एक पत्र के जरिए मालूम चलना था कि दोनों एक आवारा बिल्ली का शिकार बन गए. जिस दिन मुझे यह खबर मिली मैं मां पर बहुत गुस्सा हुआ और कई दिनों तक शोकाकुल रहा क्योंकि मिट्ठू मेरे दिल में बसा हुआ था.
वो दिनभर किराए की साइकिल चलाना और बतौर कप्तान वो फुटबॉल मैच में मेरा अविश्वसनीय गोल
राजस्थान छोड़ते हुए मुझे दो घटनाएं मुझे खास तौर पर याद आती हैं. पहली क्रिकेट बैट को लेकर है. आसपास रहने वाले लड़कों ने मिलकर पिचहत्तर रुपये का एक बैट खरीदा था, जो मेरे पास ही रखा हुआ था. इसे मैं अपने साथ ले जाना चाहता था, पर मां ने नैतिकता का हवाला दे उसे दोस्तों के पास छुड़वा दिया.
मुझे खुश करने के लिए उसने मुझे बीस रुपये दिए, जिसकी मैंने एक ठेले वाले से नीले रंग की पैंट खरीदी. पैंट नाइलॉन की थी, ऐसी कि एक चिंगारी भी पड़ जाती कभी, तो पूरी पैंट एक भभके में जलकर खाक हो जाती. इसके अलावा मैंने काले रंग के चमड़े के जूते लिए. मैंने पता नहीं क्यों जूता एक साइज बड़ा लिया.
मुझे बाद में अपनी गलती का भान हुआ, जब पिथौरागढ़ पहुंचने पर बड़े भाई ने ऊपर से नीचे तक बहुत ही हिकारत से मेरे हुलिए को देखा और जूते पर नजर पड़ने पर हंसा. मैंने नायलॉन की नीली पैंट पहनी हुई थी, जिस पर सच में जाने कहां से एक चिंगारी गिर जाने से वहां जरा-सा छेद बन गया था. यह वह उम्र थी जब हम जेब में कंघी रखना शुरू करते हैं. बड़ा भाई मुझे आने वाले दिनों में कई बार यूं हिकारत से देखने वाला था क्योंकि उन दिनों तक मुझमें अच्छे कपड़े, जूते की जरा भी समझ नहीं विकसित हो पाई थी. उस समझ के लिए मुझे बहुत लंबे समय तक इंतजार करना था.
मेरे पिथौरागढ़ जाने पर हमारा परिवार फिर दो हिस्सों में बंट गया. मैं और बड़ा भाई राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय की इमारत से सटे हुए सदगुरु निवास में एक किराए का कमरा लेकर रहने लगे.
केंद्रीय विद्यालय में दाखिला लेने के लिए मैंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की और अकेले ही तत्कालीन प्रिंसिपल केसी पांडे जी से मिलने पहुंच गया. अब मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा कि उस रोज जब मैं केंद्रीय विद्यालय गया था, बहुत उत्तेजित और सकुचाया हुआ, तो मैं क्या योगा के कपिल सर से मिला था या नहीं. वैसे आठवीं में मेरे अच्छे नंबर थे और चूंकि मैं एक भूतपूर्व सैनिक का बेटा था और एक साल पहले ही स्कूल छोड़कर गया था, इसलिए कायदे से मुझे दाखिला मिल जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
प्रिंसिपल ने मुझसे ठीक-ठीक क्या कहा, अब स्पष्ट याद नहीं, पर उस रोज मैं निराश होकर घर लौटा था. मुझे कपिल सर पर भरोसा था कि वे मेरे लिए कुछ करेंगे. मैंने उन्हें राजस्थान से ही पत्र भी लिखा था. परंतु वे कुछ कर नहीं पाए. हालांकि मुझे जल्दी ही लग गया कि केंद्रीय विद्यालय में दाखिला न मिलना मेरे लिए अच्छा ही रहा.
मैं जब भी नौजवानों को यह बताता हूं कि उन्हें ‘जो होता है, अच्छे के लिए होता है’ की फिलॉस्फी पर हमेशा यकीन रखना चाहिए, तो केंद्रीय विद्यालय में दाखिला न मिल पाने की घटना के बारे में जरूर बताता हूं कि कैसे वहां दाखिला न मिलने पर मैंने राजकीय इंटर कॉलेज यानी जीआईसी पिथौरागढ़ में दाखिला लिया और दो ही साल के भीतर वहां से पहला गणतंत्र दिवस की परेड में ऑल इंडिया कमांडर बनने वाला एनसीसी का पहला कैडेट बना. इसी अनुभव ने संभवत: मुझमें वे खूबियां विकसित कीं कि मैं बाद में भारतीय सेना में कमिशन ले सका.
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पहाड़ लौटने का दूसरा प्रभाव मुझ पर यह पड़ा कि मैं जल्दी ही कविताएं लिखने लगा. यह मैं आगे बताऊंगा कि कविता लिखने की शुरुआत कैसे हुई, लेकिन अभी यह जरूर जान लेना चाहिए कि पहाड़ के जीवन ने मेरे मन को प्रभावित करने में बहुत अहम भूमिका निभाई.
चौदह-पंद्रह साल की उम्र में अपने परिवार से दूर रहना आसान नहीं क्योंकि अकेले रहने पर पढ़ाई के साथ कई और चुनौतियां भी होती हैं. यहीं राजू दीदी का जिक्र जरूरी हो जाता है क्योंकि उन्होंने इस दौर में लगभग मां की तरह मेरी परवरिश की.
एक बार मैं करीब पंद्रह दिनों तक बहुत तेज बुखार में रहा. कई डॉक्टरों को दिखाने के बावजूद और स्ट्रॉंग एंटिबायोटिक दवा लेने के बावजूद वह उतरने का नाम नहीं ले रहा था. उन दिनों दीदी ने ही मेरी सेवा की. उन्हीं की देखभाल ने मुझे बचाया.
नए स्कूल में जाने के बाद मेरा नया जीवन शुरू होने वाला था. मैं बचपन से बाहर आ चुका था. मैंने अर्चना वर्मा को भी मन ही मन गुडबाई कह दिया था. अब मैं कर्म की राह पर चलना चाहता था. मैं खुद को और परिवार को गरीबी के दलदल से बाहर निकालना चाहता था. जाहिर था इसके लिए मुझे कड़ी मेहनत करनी थी और मैं इसके लिए कमर कस चुका था.
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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