पहाड़ और मेरा जीवन – 30
मैं बचपन से ही थोड़ा बेपरवाह मगर बहुत स्वाभिमानी रहा हूं. बचपन में मैं रोता कम ही था. लेकिन एक-दो बार मैं जब रोया तो बहुत गजब तरीके से रोया. एक बार तो मैं मां से किसी बात पर नाराज हुआ और जब मां ने मुझे मनाने के बदले और डांट लगा दी, तो मैं जमीन पर मिट्टी में लोटकर रोने लगा. मां के दिल में अपने प्रति दर्द पैदा करने के लिए मेरे मुंह से ‘हे भगवान मुझे इस दुनिया में नहीं रहना, मुझे तू तुरंत मार दे’ जैसे आर्तनाद निकल रहे थे. आप जरा दृश्य की कल्पना करें. फटी हुई नेकर, छिले हुए घुटने, गंदा-सा स्वेटर और नासाछिद्रों से बार-बार बाहर झांकता द्रव्य. गुजमुज बाल. इस सबके बीच आंख से बहते अविरल आंसू और हिचकियों के बीच मुंह से फूटता आर्तनाद. ऐसा दृश्य देखकर किसी भी मां का दिल पिघल जाए. पिघले न सही, पर हर मां डर जरूर जाएगी. बच्चा गुस्से में कुछ भी कर सकता. लेकिन अगर मां को मालूम हो कि यह अपनी बात मनवाने के लिए आए दिन होने वाली नौटंकी है, तो उस पर क्योंकर कोई असर होने लगा? मेरी मां अपने काम करने में मशगूल रहती. थोड़ी देर में हिचकियां बंद हो जाती. नासाछिद्रों से द्रव्य के बाहर-भीतर होने की गति भी मंद पड़ जाती. और आर्तनाद की जगह कुछ-कुछ देर में उठती सुबकियां शेष रह जातीं. आज मैं आप लोगों से इस रहस्य को साझा कर सकता हूं कि मैं आधा तो अभिनय ही करता था, लेकिन बाकी का आधा रुदन वाकई उस दुख के कारण होता था, जिसके बारे में मैं जबरदस्ती सोचने लगता. देखिए साहब सारा खेल सोचने का है. सोचने से ही तो दुख होता है. खुद को दीन-हीन, बदकिस्मत और भाग्यहीन सोचकर रोना बहुत आसान है. मैं जब चाहे अपनी किस्मत की अच्छे घरों के लड़कों की किस्मत से तुलना करके रो सकता था. यानी रोना मेरे लिए कोई समस्या नहीं थी. समस्या यह थी कि धीरे-धीरे मां पर मेरे रोने का असर कम होने लगा था. मैंने मां से कई बार रो-रोकर दो रुपये मांगकर फिल्म देखी और पांच रुपया लेकर मेले में भी गया, जहां मैंने पूरा टाइम ताज, चिड़ी वाले खेल पर ही भाग्य आजमाया. एक बार मां ने मुझे पांच रुपये दिए और मैं मौष्टिमाणु मेले में यही ताज, चिड़ी वाला खेलकर, जो कि एक तरह का जुआ ही था, पांच के बीस बनाकर घर लौटा. लेकिन मेरी मांगे इतनी थी कि मां हमेशा उन्हें पूरा नहीं कर पाती और मुझे मजबूरन अपने रोने के हुनर का इस्तेमाल करना पड़ता. बाद में जब उसने भी कारगर होना बंद कर दिया, तो मैंने जमीन में मिट्टी पर लोट-लोटकर अपने आर्तनादों में यमराज को याद करने वाले जबरदस्त तरीके से असर करने वाली नौटंकी का इस्तेमाल करना शुरू किया. मां पर इसका फर्क पड़ता था, शायद इसीलिए मैं ऐसी नौटंकी करता था. पर एक दिन मां पर मेरी किसी नौटंकी का कोई फर्क नहीं पड़ा. वह घटना मां और मुझे दोनों को याद है. आज यहां भी वही.
क्या हुआ कि ठूलीगाड़ में यशुदास के डूबकर मरने के बाद वहां हमारे तैरने जाने पर अघोषित प्रतिबंध लग गया. उन दिनों भीतर जीवन कूट-कूटकर भरा हुआ था इसलिए मृत्यु से डर लगता था. मेरी रात की नीरवता में जब नीचे घर से ऊपर घर तक का बीस-तीस मीटर का फासला तय करने में ही हवा निकल जाती थी और भूत-चुड़ैलों के किस्से सुनकर मैं पूरी रात-रात भर सो नहीं पाता था, तो यह कल्पनातीत था कि जिस ताल में मेरे ही सामने कोई डूबकर मरा हो, मैं उसी में तैरने चला जाता. मगर उन दिनों हमारे मनोरंजन के लिए टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर गेम जैसी चीजें थी नहीं. हमारे पास खेलने को पेड़, पहाड़, नदियां और मैदान हुआ करते थे. बचपन में मैं कैसे-कैसे पेड़ पर नहीं चढ़ा. ऐसे पेड़ पर भी चढ़ा हूं जिस पर चढ़ने के बाद उतरना नामुमकिन लगता था. पहाड़ में रहते थे, तो पहाड़ों की चोटियों को फतह करने की आदत ही पड़ गई थी. पहाड़ की ढलान पर अगर घास बिछी मिले, तो हमें लुढ़कने से कोई नहीं रोक सकता था. नदियों के प्रति बच्चों में सहज खिंचाव रहता है. मेरे पास नदी के नाम पर ठूलीगाड़ ही थी, तो उसके प्रति खिंचाव बदस्तूर कायम था, यशुदास की मौत के बावजूद. कुछ दिन ठुलीगाड़ से दूरी बनी रही. पर एक दिन स्कूल से लौटते हुए मेरी नजर गाड़ में नहाते हुए बच्चों पर नजर पड़ी. कुछ बच्चों ने हमारे स्कूल के नीचे खेतों को पारकर गाड़ के एक वीराने से टुकड़े में एक ऐसी छोटी-सी ताल खोज निकाली थी, जिसमें तैरने का अनुभव लिया जा सकता था, हालांकि वहां जौ की ताल में तैरने जैसा मजा तो नहीं आ सकता था. एक रोज मैं स्कूल से निकल सीधे उसी ताल में पहुंच गया. वहीं थोड़ी देर नदी में डुबकियां मारी. मैं इस बात की सत्यता जांच नहीं सकता क्योंकि मुझे जोर लगाने पर भी ठीक से याद नहीं आ रहा, इसलिए उन दोस्तों से मेरी गुजारिश है जो उन दिनों मेरी तरह ठुलीगाड़ में नहाया करते थे कि जरा बताएं वे क्या हम उन दिनों नेकर या पैंट के भीतर अंत:वस्त्र पहना करते थे? ऐसा मैं इसलिए पूछा रहा हूं क्योंकि मेरी स्मृति में पानी में उतरने का दृश्य ताजा है कि मैं कितनी जल्दी कपड़े उतार पानी में उतरता था. और पानी से बाहर निकल उतनी ही सहूलियत के साथ कपड़े पहन घर को चल देता था. अंत:वस्त्र के साथ सहूलियत नहीं रह पाती. अंत:वस्त्र पहनकर पानी में तैरने का एक भी दृश्य मेरी स्मृति में उभरकर नहीं आ रहा, जिसका अर्थ यही हुआ न कि हम उन दिनों अंत:वस्त्र पहनते ही नहीं थे. मेरे हमसफर दोस्त, जो मेरी तरह इस बात पर यकीन करते हैं कि बचपन की बातें बताने में कोई शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए, इस बारे में अपनी याददाश्त का सहारा लेकर मुझे सत्य से वाबस्ता करेंगे, ऐसा मेरा यकीन है.
अब मैं लगभग रोज ही उस छोटे से ताल में जाकर नहाने लगा. जल्दी ही मां को इस बात की भनक लग गई. उसने मुझे बाकायदा आगाह किया कि ठूलीगाड़ हर साल किसी न किसी की बलि लेती है, तू वहां मत जाया कर. दूसरी बातों की तरह मैंने मां की ये बात भी एक कान से सुनकर दूसरी से निकाल दी. फिर एक छुट्टी के दिन मैंने योजना बनाई कि जैसे उधमपुर में मैं नदी में जाकर मछलियां पकड़ता था, यहां भी पकड़ी जाएं. मेरे पास मछली पकड़ने का कांटा था नहीं, तो आइडिया आया कि हाथ से पकड़कर देखते हैं. ठूलीगाड़ के उस छोटे ताल पर पहुंचकर मैंने किनारे पड़े पत्थरों से पानी के भीतर दीवार बनाई ताकि मछलियां दूसरी ओर न जा सकें. कुछ और लड़के भी मेरी इस ‘हाथ से मछली पकड़’ मुहिम में शामिल हो गए. वे बहुत छोटी-छोटी मछलियां थीं. जितनी छोटी उतनी चपल. हमारे हाथ उनके बदन को कई बार छू तो जरूर गए, पर एक भी मछली हाथ न आई. थक हारकर मैंने वह पत्थर की बनी दीवार गिराई और फिर हम लड़कों ने पानी में पकड़म-पकड़ाई खेला. मेरे लिए खेल का मतलब था अपनी सुधबुध खो देना. खेलने के बाद मैं जब घर पहुंचा, तो मां दरवाजे पर ही मिल गई. उसने सिर्फ एक बार पूछा – गाड़ में नहाने गया था? उसके आवाज में ऐसी आतिश थी कि मैं झूठ नहीं बोल पाया. मैंने ‘हां’ कहा और किसी अनहोनी की आशंका में घर के बाहर ही खड़ा हो गया. दरवाजे के पास ही गाय का दलिया बनाने के लिए बहुत सारी बिच्छू घास यानी सिन्ने के पत्ते रखे हुए थे. इससे पहले कि मुझे मां के इरादों की भनक लगती, उसने एक हाथ से मेरा हाथ पकड़ा और दूसरे से सिन्ने की एक बड़ी टहनी उठाई और सटाक! सटाक! मेरे पैरों की पिंडलियों पर ताबड़तोड़ सिन्ने की टहनी बरसा दी. मां से ऐसे हमले की मैंने सपने में भी अपेक्षा नहीं की थी. कुछ इस सदमे में कि मां इस तरह मुझे मार रही थी और कुछ सिन्ने के जहरीले रसायन के स्नायु तंत्र में जा मिलने के बाद पूरे बदन को झंकृत कर देने वाली चुभन के चलते मैं एकाएक बहुत डर गया. ‘बता, जाएगा अब कभी गाड़ में नहाने. कितनी बार बोला तुझे हर साल खा जाती है ये गाड़ किसी बच्चे को. तेरे दोस्त को लेकर गई न. तीन घंटे से ढूंढ रही हूं. क्या जानूं गाड़ में जाकर नहा रहा है. तू ने कहा था न मुझे नहीं जाएगा. फिर क्यों गया. बता!’ सटाक!सटाक! आज मेरी शामत आ गई थी. मां का ऐसा रौद्र रूप कभी न देखा था. पैरों की पिंडलियां तो सुन्न पड़ने लगी थीं. उन पर जैसे हजारों सुइयां एक साथ चुभ रही थीं. पीट-पाटकर मां अंदर चली गई. मैं कुछ देर सुन्न बाहर ही घटनास्थल पर पड़ा रहा. मिट्टी पर लेटा हुआ. मुझे समझ नहीं आ रहा था क्या करूं. और किसी ने मारा होता, तो मां के प्यार के आंचल तले जगह खोजता, पर आज तो मां ने ही मारा था. पर अंतत: कुछ देर बाद मैं उठा और अंदर जाकर बिस्तर पर लेट गया. एक नजर अपनी पिंडलियों की ओर फेंकी, तो वहां लाल रंग के चकत्ते निकले हुए थे. उनमें आपस में एक-दूसरे से बड़ा होने की होड़ मची हुई थी.
मैं जानता था कि मां मुझ पर इतनी क्रूर नहीं हो सकती. वह उसका असल में मेरे प्रति प्यार और चिंता दिखाने का ही अनूठा प्रयास था. वह चाहती थी कि उसे मेरे गाड़ में जाने के डर से निजात मिले. यशुदास के डूबने की घटना के बाद वह बहुत डर गई थी. कुछ ही देर में वह सरसों का तेल लेकर मेरी खाट पर बैठ गई. उसने मेरे पैरों की दोनों पिंडलियों पर तेल लगाया. वह थोड़ा रोई भी कि उसने मुझे सिन्ने से यूं मारा. मेरी पिंडलियों में दर्द तो था, पर मां को रोते देख मेरा गुस्सा काफुर हो गया. आज भी मां और मैं इस घटना को याद करते हैं और दोनों हंसते हैं.
पिछली कड़ी – मैं क्यों चलता था 15 किलो बोझ लादे बिजली के खंभे पर संतुलन बनाता
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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