पहाड़ और मेरा जीवन – 24
(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)
जिसने पहाड़ में रहकर कभी चूल्हे में तांबे के गुड़तोलों में बना भात-दाल न खाया, वह पहाड़ में क्या रहा. मुझे उस भात-दाल का स्वाद आज भी याद है और आज भी अगर मेरे सम्मुख एक प्लेट पर पांच सितारा होटल में बना सुगंधित भोजन रखा जाए और एक तरफ वही गुड़तौलों में बना खालिस भात और उड़द की दाल (साथ में पोली हुई या तली हुई लाल मिर्च), तो सहज ही मेरा हाथ भात-दाल की ओर बढ़ जाएगा क्योंकि आज वही हमें मयस्सर नहीं.
मेरी याददाश्त में पहाड़ी दाल-भात के स्वाद की जो सबसे पहली घटना है, वह बहुत बचपन की है. मैं किस उपलक्ष्य में किसके घर के अहाते में बैठा था, मुझे याद नहीं. सिर्फ यह याद है कि वहां गांव के लोग कतार में बैठे हुए थे और गांव के लोग ही बड़ी-बड़ी बाल्टियों में दाल, सब्जी भर-भरकर बांट रहे थे. भात के बड़े-बड़े डल्ले सामने रखे मालू के बड़े पत्ते पर डाल दिए जाते, पीछे से दूसरा बंदा उसमें दाल डाल देता.
मुझे याद है कई बार आलू या कद्दू की अतिरिक्त सब्जी भी बनती थी. उस भात-दाल में जादुई ताकत होती रहा करती होगी क्योंकि उसे खाने के बाद तृप्ति का जबर्दस्त अहसास पूरे वजूद पर तारी हो जाता था.
ठूलीगाड़ में रहते हुए मां गुड़तौलों का इस्तेमाल तो नहीं करती थी, पर भात-दाल बनता चूल्हे पर ही था और बर्तन भी पहाड़ी ही हुआ करते थे. दाल शायद लोहे की कढ़ाई में बनती थी. एक बार यूं हुआ कि आर्मी अफसर के पुत्र और मेरे सहपाठी संजु वडके को किसी काम से मेरे घर आना पड़ा. वहां उसने मेरे साथ ही घर पर बना भात-दाल खाया.
यह एक सामान्य बात थी कि घर में आए मेरे किसी दोस्त ने इस तरह खाना खाया हो. उन दिनों आजकल की तरह चम्मच-कटोरे से मापकर भात-दाल नहीं बनता था. भोजन इतना बनता था कि दो-चार लोग ज्यादा खा ही सकते थे. संजु वडके ने भात-दाल खाने के बाद तो कुछ नहीं कहा, लेकिन अगले दिन स्कूल में जैसे ही रिसेस यानी भोजनावकाश हुआ उसने फरमाइश की कि आज भी हम मेरे घर जाकर भात-दाल का भोजन करें.
भात-दाल पर उसका विशेष जोर था. लेकिन हमारे घर में रोज भात-दाल नहीं बनता था. किसी दिन भट्या भी बन जाता. भट की चुड़कानी भी आए दिन बनती रहती थी. चावल की मैरी भी बनती थी. इन सभी में जब घर में पाली जा रही गाय का विशुद्ध घी पड़ता तो खुश्बू से ही पेट भर जाया करता था.
संजु वडके को यूं अपने घर ले जाने में मेरे मन में थोड़ी हिचक उठ रही थी. वह आर्मी अफसर का बेटा था और उन दिनों मेरे पिताजी लंबी बेरोजगारी के बाद सीआईएसफ में दोबारा नौकरी पर लगे थे. झूठ बोले कुत्ता काटे, मन में कहीं गहरे एक गैर-बराबरी का एहसास तो था ही. लेकिन मैं उसे फिर भी घर ले गया. और उसकी किस्मत देखिए कि उस दिन भी घर पर भात-दाल बना था.
लेकिन उस दिन साथ में मड़वे की रोटी भी बनी थी जिस पर घी लगाकर चूल्हे पर कुछ कड़क बना हरे नमक और घर में बनाए मक्खन के साथ खाने का मजा ही कुछ और हुआ करता था. संजु वडके ने पहले तो थोड़ा दाल-भात खाया. इसके बाद उसने अपना टिफिन खोला जिसमें चॉकलेट और बिस्किट थे, जिन्हें देखकर मेरे मुंह में पानी आ गया क्योंकि इस बिरादरी की चीजें मुझे खाने को कभी-कभार ही नसीब हो पाती थीं और उनकी भी क्वॉलिटी माशाअल्लाह ऐसी उम्दा तो नहीं रहती थी जैसी संजु के टिफिन में चॉकलेट-बिस्किट की दिख रही थी.
मन में जैसे ही उस टिफिन की चीजों के प्रति लालसा पैदा हुई वैसे ही दिमाग में भी एक आइडिया कौंध पड़ा. मुझे खयाल आया कि संजु वडके आर्मी अफसर का बेटा है, शहरी बाशिंदा है, जिसे पहाड़ी गांव के भोजन के बारे में कुछ पता नहीं. इसीलिए दालभात खाने के लिए यहां दौड़ा आया. इसे मड़वे की रोटी के बारे में भी क्या ही पता होगा. मैंने तुरंत मड़वे की रोटी के छोटे टुकड़े किए और उनमें से एक को तरल मक्खन में डूबोकर उसकी ओर बढ़ा दिया- संजु भाई ले ये खा, ये पहाड़ी बिस्कुट है. इसे काला बिस्कुट कहते हैं. मैं तो स्कूल भी यही लेकर आता हूं.
संजु ने वह हरा नमक और मक्खन में डूबा कड़क मड़वे की रोटी का टुकड़ा मुंह में रखा और कुछ देर आंख बंद किए उसे चबाता रहा. वह पहली बार मड़वे की रोटी खा रहा था इसलिए उसे खुद भी पता न था कि उसे कैसा लगेगा. लेकिन जब गाय का शुद्ध मक्खन मड़वे के आटे का सुगंध भरे करारेपन और हरे नमक के साथ मिलकर जीभ की स्वाद कोशिकाओं को झंकृत करते हुए मुंह के भीतर घुलना शुरू हुआ होगा, संजु वडके को तब हाथ में पकड़े डिब्बे में रखी चॉकलेट ऑर बिस्कुट तुच्छ लगे होंगे.
मैं इसी कमजोर क्षण की प्रतीक्षा में था. मैंने उसकी ओर मड़वे का दूसरा टुकड़ा बढ़ाया और उसके डिब्बे से चॉकलेट का टुकड़ा ले लिया. अब तक उसकी जीभ को घर के मक्खन का स्वाद लग चुका था. उसने उस मड़वे की रोटी के मक्खन में भीगे हुए टुकड़े बहुत चाव से खाए और इस बीच मैंने भी उसके डिब्बे में रखी चॉकलेट और बिस्कुट उतने ही चाव से खाए. इधर उसने मड़वे की रोटी खत्म की, इधर मैंने उसकी चॉकलेट और बिस्कुट. सौदा बराबरी का था.
आप में से कुछ लोग यह समझ सकते हैं कि सुंदर अब ज्यादती कर रहा है. अपने बचपन के नाम पर कुछ भी परोस रहा है. पर झूठ बोलूं कुत्ता काटे. आप लोग चाहे तो संजु वडके को खोजकर खुद उससे भी पूछ सकते हैं. मैंने तो बहुत कोशिश की उसे खोजने की वह मिला नहीं. अलबत्ता, केंद्रीय विद्यालय में सातवीं कक्षा में मेरे साथ पढ़ने वाली एक भी लड़की का कोई पता नहीं. सिर्फ मीना बिष्ट, जो कि कालांतर में डिग्री कॉलेज में भी मेरी सहपाठी हो गई थी, पिथौरागढ़ के दगड़ियों वाले वहाट्सऐप ग्रुप की सक्रिय सदस्य है और वह मेरी इस कहानी को लगातार पढ़ भी रही है.
बहरहाल बात संजु वडके की हो रही थी. उसे हमारे घर का पहाड़ी भात-दाल इतना पसंद आया कि लगभग रोज ही भोजनावकाश में मुझसे घर जाने को कहता. एक-दो दिन तो ठीक था, पर भोजनावकाश में कक्षा के दूसरे दोस्तों के साथ खेलने में मेरी ज्यादा दिलचस्पी थी. एक दिन उसने अपनी जेब में रखे दस-बीस रुपये भी मुझे ऑफर किए. मैंने लिए या नहीं, मुझे याद नहीं, पर यह याद है कि संजु मेरे घर भात-दाल खाने कम से कम तीन बार तो आया ही था.
(जारी)
पिछली कड़ी : जब संजु वडके की अफसरों के बच्चों वाली साइकिल मैंने डोट्याल की टांगों के बीच घुसाई
सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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