पहाड़ और मेरा जीवन – 23
जैसा कि मैंने पिछली किस्त में आपको अपने दोस्त संजु वडके के बारे में बताया था कि उसके साथ रहकर मैंने बहुत कुछ सीखा. अगर वह मेरा दोस्त न बनता, तो मेरा आत्मविश्वास उस तरह विकसित नहीं हो पाता जैसे कि वह हुआ और इस लायक बना कि समय आने पर मैंने पहले ही प्रयास में सेना का सर्विस सिलेक्शन बोर्ड का बहुत मुश्किल माना जाने वाला चार दिन का इंटरव्यू पास किया. संजू वडके ने सबसे बड़ा काम यह किया कि उसने मुझे एक बार अपनी लाल रंग की अफसरों के बच्चों वाली साइकल चलाने को दी. उसने सिर्फ एक ही वादा लिया मुझसे कि मैं साइकिल खराब न करूं क्योंकि उसे भी अपने पिता से वह कुछ महीने पूर्व जन्मदिन पर मिली थी. मैंने वादा किया कि साइकिल सही सलामत लौटा दूंगा. उस साइकिल की चेन खराब थी, जिसे ठीक करने को मैं उसे एक किमी दूर हाथों से चलाकर ले गया.
शाम ढल चुकी थी और रात घिरने वाली थी. मैं घर के अहाते में उस साइकिल को खड़ा कर गर्व से उसे मां को दिखाने से पहले उस पर बैठने का अप्रतिम सुख लेना चाहता था. लेकिन मुझे साइकिल चलानी ठीक से आती नहीं थी. दिल्ली में जो कैंची मारकर चलाई बस वही चलाई. इसलिए मैं साइकल को ठीक करवा उसे एक ऐसी सड़क पर ले गया, जहां बहुत कम लोग आ-जा रहे थे. साइकिल पर सवार होने के लिए मुझे पिलर की जरूरत पड़ रही थी क्योंकि उस पर खड़े हो मैं साइकिल को तिरछा कर और पैडल को उर्ध्व दिशा में रखकर ही उस पर सवार हो पा रहा था.
मेरा सारा ध्यान इस पर था कि जैसे ही मैं पिलर छोड़कर समूचा साइकिल पर आ जाऊं, वैसे ही तेज गति से पैडल घुमाऊं क्योंकि साइकिल जितनी रफ्तार पकड़ लेती, उसका संतुलन उतना ही अच्छा हो जाता. धीमे चलाने पर साइकिल का संतुलन बनाए रखना मुश्किल हो रहा था. इसलिए मैं एक बार पुलिया पर खड़े हो साइकिल टेढ़ी करके उस पर बैठ जाने के बाद यह सुनिश्चित कर रहा था कि उसकी रफ्तार कम न हो. साइकिल चलाते हुए पहली दुर्घटना इसी गति के चलते ही हुई. हुआ यह कि जब मैं ऊपर सीट पर बैठ खुद को दुनिया का सम्राट समझते हुए तेजी से पैंडल मारता चल रहा था, सड़क की एक ओर एक बड़ा पत्थर पड़ा दिखा. वह दूर से तो सड़क के एक ओर था, पर उसकी करीब पहुंचते-पहुंचते मुझे लगा कि साइकिल उसी पत्थर की ओर बढ़ रही थी. मानो उसे कोई चुंबकीय शक्ति खींच रही थी.
आप लोगों में से जितने लोग साइकिल चलाना जानते हैं, वे इस तथ्य को बखूब समझते होंगे कि साइकिल चलाना सीखते हुए आप अगर सड़क पर पड़े किसी पत्थर या किसी गड्ढे से बचने की कोशिश करते हैं, तो तय मानिए कि आप पत्थर से जरूर टकराएंगे, गड्ढे में जरूर गिरेंगे. अपनी साइकिल को उस पत्थर की ओर यूं खिंचते देख मैंने पूरी ताकत लगाकर उस चुंबकीय शक्ति को तोड़ने की कोशिश की और सफल भी हुआ. लेकिन उस चुंबकीय शक्ति से निकलकर मैं नाले की निर्वात शक्ति के घेरे में आ गया. जी हां. पत्थर से बचने के अगले ही क्षण मैंने खुद को मय साइकिल बगल के नाले में गिरते देखा. मैं देख ही सकता था, कुछ कर नहीं सकता था. चीजें जब हर तरह की शक्तियों के प्रभाव से मुक्त होकर स्थिर हुईं, तो मैंने पाया कि मेरे पैरों में दीवार के साथ रगड़ लगने से गहरी खरोंचे आ गई हैं. मैंने अपने शरीर को ठीक से जांचने से पहले साइकिल की जांच की. क्योंकि अब तक अंधेरा हो चुका था, इसलिए स्ट्रीट लाइट की धुंधली रोशनी में साइकिल ठीक से देखी नहीं जा पा रही थी कि उसके खरोंचे आई या नहीं. जैसा कि ऐसी दुर्घटनाओं में अक्सर मेरे साथ पहले भी होता रहा था, मुझे भगवान याद आ जाता है. मैंने भगवान को याद करते हुए प्रार्थना की कि मेरे शरीर पर खरोंचे दे देना, पर साइकिल के खरोंच न लगाना.
मुझे दूसरी चिंता यह हुई कि कहीं किसी ने मुझे नाले में यूं गिरते हुए तो नहीं देखा. मैंने तुरंत साइकिल उठाई और थोड़े संघर्ष के बाद नाले से बाहर आ गया. मेरी किस्मत अच्छी थी कि यह एक सूखा हुआ नाला था. बाहर आकर मैं साइकिल को लैंप पोस्ट की रोशनी के नीचे ले गया. सड़क पर अब भी लोग चल रहे थे. वहां मैंने इस तरह साइकिल की जांच की कि किसी को यह न लगे कि मैं कुछ देर पहले साइकिल समेत नाले में जाकर गिरा था. लैंप पोस्ट की रोशनी में मैंने देखा कि साइकिल खरोंच खाने से बच गई थी. उस रात मेरी चैन की नींद के लिए इतना ही बहुत था.
अगले दिन संडे था. मौका मिलते ही मैं फिर साइकिल लेकर निकल पड़ा. आज मैं कल के मुकाबले बेहतर अनुभव लेने की फिराक में था. जैसा कि नौसीखियों के साथ होता है कि उनकी बुद्धि कभी ठीक से काम नहीं करती, मेरे दिमाग में विचार कौंधा की साइकिल को मैं हैलीपैड की ओर ले जाऊं और वहां से जो घुमावदार सड़क फिसलती हुई नीचे आकर पिथौरागढ़-वड्डा रोड से मिलती है, उस पर रफ्तार से साइकिल चलाते हुए ठुलीगाड़ अपने घर की ओर लेकर आऊं, घर के आगे पहुंचकर मां को आवाज लगाऊं कि देख तेरा बेटा कैसे अफसरों के बच्चों वाली साइकिल चला रहा है. मां मुझे यूं साइकिल चलाते देखकर कितना खुश होगी, ऐसा सोच कर मैं रोमांचित हुआ जा रहा था.
साइकिल को मैं काफी ऊंचाई पर स्थित हैलीपैड के करीब ले गया. यहां से मैंने जैसे ही एक पिलर पर खड़े हो टेढ़ी साइकिल पर खुद को जमाकर पैडल पर हल्के से जोर के साथ साइकिल आगे बढ़ाई, मुझे उसके बाद पैडल मारने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि ढलान इतनी थी कि साइकिल खुद ब खुद नीचे उतरने लगी. जैसे-जैसे वह नीचे उतरती जा रही थी, वैसे-वैसे ही उसकी गति में भी बेतहाशा इजाफा होते जा रहा था. मेरी जुल्फें हवा में उड़ रही थीं. मेरे चेहरे पर हवा के थपेड़े पड़ रहे थे. मेरे लिए इतनी तेजी से घूमते पैडलो पर पैर बनाए रखना मुश्किल हो रहा था, सो मैंने पैर उठाकर आगे वाले डंडे पर रख लिए थे. मैं हवा में पेंग मारता बढ़ रहा था. मैं शब्दों में बता नहीं सकता कि मुझे कितना मजा आ रहा था. लेकिन जीवन की गति भी पेंडुलम की तरह होती है. जितनी वह एक ओर जाती है, उतना ही दूसरी ओर भी जाती है. अभी जो मैं इतना प्रसन्न हो हवा में उड़ रहा था, तो जल्दी ही मुझे जमीन पर भी आना था.
मेरे साथ भगवान बहुत क्रूर मजाक करने वाला था. जैसे ही मैंने ढलान के आखिरी सिरे पर पहुंचकर मुख्य सड़क पर एक जरा-सा मोड़ लिया, देखता क्या हूं कि सामने तीन-चार डोट्याल भेड़ों का झुंड लिए जा रहे हैं. भेड़ों ने पूरी सड़क घेर रखी थी. भेड़ों और उन डोट्यालों को यूं सड़क पर कुछ ही आगे देखते ही यह तो तय हो गया था कि मेरी उनसे टक्कर होने वाली है, लेकिन अभी यह तय करने की गुंजाइश जरूर बची हुई थी कि मैं टक्कर किसे माऊं. भेड़ को या डोट्याल को. मैं भेड़ को नहीं मारना चाहता था क्योंकि उससे टकराकर साइकिल उलट सकती थी. डोट्याल को जरूर मारी जा सकती थी. लेकिन मैंने आखिरी क्षणों में दोनों को बचाने की कोशिश की. साइकिल का हैंडल अपने आप किनारे की ओर मुड़ गया. सबसे किनारे बरसाती नाला था. यह वयोवृद्ध डोट्याल का दुर्भाग्य था कि वह नाले के साथ-साथ चल रहा था. मैंने नाले और डोट्याल दोनों को बचाने का प्रयास किया, पर नाले की किस्मत अच्छी निकली. साइकिल का हैंडल मेरे न चाहते हुए भी वयोवृद्ध डोट्याल की टांगों के बीच घुस गया. वह डोट्याल दो फुट हवा में उछला और नाले में गिरा. टकराने से ऐन पहले मैंने आंखें बंद कर दी थीं. आंखें खोलीं तो खुद को जमीन पर पाया.
मैंने तुरंत साइकिल उठाई और इससे पहले कि डोट्याल को कुछ समझ आता कि हुआ क्या मैं पैदल ही साइकिल लेकर उलटी दिशा में दौड़ पड़ा. मुझे पीछे से आवाज सुनाई दी – अरे रे रे, मार डाला रे इसने बूढ़े को. मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. सीधे वहीं जाकर रुका, जहां से मैंने साइकिल चलाना शुरू किया था. वहां पहुंचकर मैंने साइकिल का मुआयना किया. उसका हैंडिल टेढ़ा हो गया था. मैंने साइकिल का अगला टायर अपनी टांगों के बीच फंसाकर हैंडिल सीधा किया. साइकिल पर भी एक-दो जगह खरोंचें आई थीं. एक बार साइकिल चैक कर लेने के बाद मैंने खुद को भी चैक किया. बाएं पैर का घुटना छिल गया था. बाईं कुहनी से भी मुझे खून रिसता दिख रहा था. मैं घबरा रहा था कि जिन दुकानवालों ने मुझे उस तरह एक वृद्ध डोट्याल की टांगों के बीच साइकिल घुसाते देखा, कहीं वे मां को मेरी शिकायत न कर दें. छोटी जगह थी. इसलिए सब एकदूसरे को पहचानते थे. मां की मार से मैं डरता था. मैंने इसी डर से साइकिल तुरंत संजू वडके को वापस करने का फैसला किया.
इस घटना के बाद मुझे साइकिल चलाने का मौका दो साल के अंतराल के बाद ही मिलने वाला था, जब मैं आठवीं में राजस्थान गया. वहां मैं दो रुपये में दिनभर के लिए साइकिल किराए पर लेकर स्कूल जाने की बजाया जयपुर-कोटा हाईवे पर साइकिल चलाता था और शाम को साइकिल वापस कर ठीक स्कूल की छुट्टी के वक्त घर वापस आ जाता था. घरवालों को कभी पता नहीं चला. पर वह किस्सा बाद में. फिलहाल यह कि संजु वडके की साइकिल से पिथौरागढ़ में गिरने के बाद मैं कम से कम साइकिल से कभी नहीं गिरा.
(जारी)
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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