पहाड़ और मेरा बचपन – 13
(पिछली क़िस्त : और हम वापस पहुंचे पहाड़ों की गोद में, ठुलीगाड़ बना पिथौरागढ़ में अड्डा)
(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)
ठूलीगाड़ में मेरे जैसे थोड़ी देर के लिए भी कहीं टिक कर न बैठ पाने वाले लड़के को जौ की ताल सबसे बढ़िया जगह लगी. यह हमारे घर से महज सौ-डेढ़ सौ मीटर दूर थी. यहां चट्टानें कुछ इस तरह के आकार की थी कि पानी दो-तीन मीटर ऊंचाई का जलप्रपात जैसा बनाता था और इस प्रपात के चलते बाकी जगहों की तुलना में यहां गाड़ का तल कट-कटकर गहरा हो गया था. गहरा इतना था कि हम अगर हाथ ऊपर करके पानी में सीधे खड़े हो जाते, तो भी हमारा हाथ ऊपर से नहीं दिख पाता था. खड़ी चट्टानों के बीच बेतरतीब आकार के इतने गहरे ताल में सीधे उतर जाने का साहस मुझमें नहीं हो सकता था पर भला हो हमारे मकान मालिक का, जो उन दिनों युवा थे और व्यायाम के नाम पर इसी ताल में तैरने जाते थे. मैं उनके कंधे पर ही सवार हो पहली बार इस ताल में उतरा. मुझे इसका एहसास ही नहीं हुआ कि मैं कब उनके कंधे से उतरकर खुद ही पानी में चला गया और देसी स्टाइल में तैराकी करते हुए ताल की लंबाई-चौड़ाई नापने लगा. कुछ ही समय में हाल यह हो गया कि मैं करीब बीस फुट ऊपर खड़ी चट्टान से सीधे ताल में कूदने लगा. यह बहुत खतरनाक था क्योंकि खड़ी चट्टान से ताल की ओर कूदते हुए यह सुनिश्चित करना पड़ता था कि मैं इतनी ही जोर से कूद लगाऊं कि दूसरी ओर की चट्टान पर न गिरूं और यह दूरी इतनी कम भी न हो कि इस ओर कुछ नीचे आगे निकली हुई चट्टान के कोने से न टकरा जाऊं. बाद-बाद में तो मैं इस तरह कूदने में इतना निपुण हो गया था कि आंख बंद करके भी कूद जाया करता था बस मुझे अपने मध्यवर्ती अंडाकार सुकोमल भाग के चारों ओर उंगलियों की दीवार बनानी पड़ती थी ताकि पानी पर पड़ने के बाद छपाक की आवाज के साथ ही मेरे मुंह से दर्द भरी कराह न निकले. जाहिर है ऐसा मैंने एक-दो बार मिले दर्द भरे अनुभव के बाद ही करना शुरू किया था. जौं की ताल से हमने मछलियां भी बहुत पकड़ीं. सामने कासनी गांव के लड़के तो केकड़े पकड़कर भी खा जाते थे, पर मैं ऐसे खाने के मामले में थोड़ा तमीजदार था. युवा मकानमालिक, जिन्हें मैं उनकी कदकाठी के चलते बाद में कर्नल साहब पुकारने लगा था, जिनका छह महीने पूर्व ही दिल्ली में इंतकाल हुआ, मछलियां पकड़ने के लिए अपने गांव के युवाओं को काम पर लगाते थे. वे युवा ग्रेनेट, जिसे हम अपनी भाषा में पानी का बम कहते थे, के धमाके से मछलियों को मारते थे. धमाके की आवाज सुनकर मैं भी दौड़ा-दौड़ा जौ की ताल पहुंचता था, जहां पानी में मछलियां उलटी तैर रही होती थीं. मैं भी घर के लिए थैला भरकर मछलियां ले आता था.
जौ की ताल ने एक बार मुझे अपमानित होने से भी बचाया. यह भी अपने में थोड़ी अलग तरह की घटना है, जिसे मैं पहली बार किसी को बता रहा हूं. यह मैंने अपने घरवालों, बड़े भाई या गहरे से गहरे किसी दोस्त को भी नहीं बताई. तब शर्म और अपमान से बचने के लिए नहीं बताई थी, पर अब लगता है कि शर्म और अपमान हमारे दिमाग का कूड़ा है. यह संसार जीने के लिए एक बहुत ही खूबसूरत जगह है बशर्ते कि हमारे दिमाग में सही-गलत, अच्छे-बुरे का झोल न बने. अब आप ही बताएं कि अगर दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे का पेट खराब हो जाए और वहां गैस ऐसा तूफान बरपा कर दे कि पूरे वजूद पर दर्द की सिलवटें पड़ जाएं, तो वह बेचारा क्या करेगा. दर्द को झेलने से कहीं आसान है स्कूल की यूनिफॉर्म पर भिनभिनाती मक्खियों और उन लोगों की नजर को झेलना, जो बदबू का झोंका आने पर आसपास देखने के बाद बच्चे की नेकर पर ही नजर टिका देते हैं. दिल्ली में एक बार मेरे साथ ऐसा ही हुआ था और घर पहुंचने पर ऐसी बदबूदार नेकर को धोने की कठिन परीक्षा से गुजरते हुए न चाहते हुए भी मां के मुंह से पेट के दर्द को सहने और पेट में पाचन के बाद रह गए पदार्थ को शरीर से उचित समय और उचित स्थान न मिलने तक विलग न होने देने की मेरी काबिलियत पर सवाल उठाए गए, जो मेरे अंतस में छोटे बारीक तीरों की तरह चुभे ही रह गए. ये तीर ही थे कि पिथौरागढ़ में एक बार स्कूल से लौटते हुए मैंने वह सब किया, जिसका ब्यौरा यहां दे रहा हूं.
मुझे अब याद नहीं कि उस रोज स्कूल जाने से पहले या स्कूल के दौरान मैंने ऐसा क्या खा लिया था कि छुट्टी के बाद स्कूल के अहाते से निकलते-निकलते पेट का मौसम बेतरह बिगड़ गया. गनीमत है मुझे जरा-सी दूरी पर एक पुलिया मिल गई, जिसके नीचे एक गंदा-सा नाला बहता था. एक नाला भी आपकी जिंदगी में कितनी अहम भूमिका निभा सकता है, मुझे उस रोज मालूम चला. जबकि मेरे सभी सहपाठी, जिनमें लड़कियां भी शामिल थीं और इन लड़कियों में अर्चना वर्मा भी रही होगी, मेरे आगे-पीछे जा रहे थे, मैं किसी बहाने से चुपचाप पुलिया के नीचे उतर गया. मेरी किस्मत का सितारा बहुत बुलंद रहा होगा कि इस नाले के बीचों-बीच बहते गंदे पानी के साथ मुझे थोड़ी सूखी जमीन मिल गई जहां पर बैठकर मैं शरीर के भीतर अवंछित पदार्थ को बाहर का रास्ता दिखा सकता था. लेकिन यह कार्य कमांडोज की द्रुत रफ्तार से किया जाना था. लगभग वैसे ही जैसे अमेरिकी कमांडोज ने पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मारा था क्योंकि इस बात की आशंका थी कि मेरे पीछे से आ रहे किसी सहपाठी ने मुझे पुलिया के नीचे उतरते न देख लिया हो क्योंकि अगर किसी ने देख लिया, तो वह जिज्ञासावश नीचे उतरकर झांक भी सकता था कि मैं आखिर क्या करने नीचे उतरा हूं और जब उसे वह दृश्य दिखता, जिसकी आप अभी कल्पना कर ही रहे होंगे, तो सोचिए वह अगले रोज कितना मसाला लगाकर हमारे दूसरे साथियों को अपनी खोज के बारे में बताता. मैंने बिजली की रफ्तार से काम किया और इससे पहले कि किसी को कुछ हवा लगती मैं पदार्थ का विसर्जन कर पुन: घर लौटते बच्चों के बीच शामिल हो गया जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं. यह मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी और मैं इस कामयाबी पर खुश होने का मन बना ही रहा था कि अचानक मुझे फिर से पेट में एक मरोड़-सी उठती महसूस हुई. और इससे पहले कि मुझे ठीक-ठीक पता चल पाता कि क्या हुआ मैंने पदार्थ को द्रव के रूप में अपनी त्वचा पर फिसलते महसूस किया. स्साली निकल गई! मैंने जरूर ऐसा कुछ कहा होगा और उसके बाद तुरंत मेरे शातिर दिमाग ने मुझे अपना स्वेटर उतारकर कमर से बांध लेने का आदेश दिया ताकि वह पदार्थ किसी को दिखाई न दे. मैंने एक अक्लमंदी का काम यह किया कि सड़क छोड़कर मैं उसके साथ चल रहे खेतों में उतर गया जहां कोई बच्चा न था. ऐसा करके मैं आश्वस्त हुआ कि चलो अब न सिर्फ कोई पदार्थ को देख नहीं पाएगा बल्कि उसकी गंध भी किसी के दिमाग में शक न पैदा करेगी. खेतों के बीच से एक शॉर्टकट रास्ता था मैं उसी पर चलने लगा. लेकिन उस दिन दुर्भाग्य मेरे पीछे जैसे हाथ धो के पड़ गया था. मैं खेतों के बीच कुछ दूर ही चला था कि मैंने दो-तीन कुत्तों को आपस में खेलते हुए देखा. उन्हें यूं खेलता देख मेरे बालमन को भी खेल सूझा और मैंने झुककर खेत से एक मिट्टी का धेला उठाकर उनकी ओर फेंक दिया. अब ये ऐसा भी अपराध न था कि वे कुत्तें अचानक गंभीर हो जाते और खेलना छोड़ मेरे पीछे पड़ जाते. पर उन कुत्तों ने यही किया. अब आप एक बार पुन: अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाएं कि एक बालक दर्दनाक मरोड़ों से भरा पेट लिए पहले ही से ही थोड़े विसर्जित पदार्थ के साथ, जो कि अब उसकी मोजो के किनारों पर दस्तक देने लगा था, हाल-बेहाल किसी तरह पैदल चल रहा हो और तीन खूंखार कुत्ते उसके पीछे पड़ जाएं, तो कैसा दृश्य होगा. मैं खेतों को कूदता हुआ भागा और इससे पहले कि उन तीन कुत्तों में से एक मेरे पैरों पर अपने दांत गाड़ने की जुर्रत करता मैंने हिम्मत बटोरी और झुककर जमीन से एक पत्थर उठा लिया. अब मैं पत्थर लिए हाथ ऊपर उठाकर खड़ा था यूं कि जैसे पत्थर मारने ही वाला हूं और सामने तीन कुत्ते मुझ पर भौंक रहे थे. वे आगे बढ़ते और मेरे पत्थर वाले हाथ को देख सहमकर पीछे हो जाते. अब यह मेरा भाग्य था कि खेत में एक अंकल काम कर रहे थे और यह भी सौभाग्य की बात कि उनके हाथ में एक डंडा भी था. वे हड़ि करते हुए हमारी ओर भागते हुए आए. उन्हें देख कुत्ते दुम दबाकर भाग गए और मेरी सांस पर सांस आई. अंकल ने मेरी ओर बड़े फख्र से देखा कि कैसे उन्होंने कुत्तों को हड़का दिया पर मेरा सारा ध्यान तो पदार्थ की ओर था, जो मेरे बेतरह दौड़ने से बेतरह बेतरतीब होकर बिखर गया था. लगता था कि दौड़ते हुए उसकी मात्रा में कुछ इजाफा भी हो गया था क्योंकि मुझे सफेद मोजों पर खाकी धब्बे दिख रहे थे. मैंने पीछे लटके स्वेटर को खोलकर सामने किया, तो वहां भी आसमान में तारों की तरह कुछ छींटे बिखरे पड़े थे. जाहिर था कि मैं ऐसी अवस्था में मां के सामने नहीं जा सकता था. कुछ देर तक मैं क्या करूं क्या करूं सोचता रहा और जब दिमाग में आइडिया कौंधा तो मेरे चेहरे पर पहली बार मुस्कान चमक उठी.
मैंने खेतों से गुजरते हुए ही अपनी राह बदल ली. अब मैं घर की बजाय सीधे गाड़ की ओर जा रहा था. मेरी मंजिल जौ की ताल थी. मैंने मन ही मन सोच लिया था कि मुझे क्या करना है. मैं सीधे जौ की ताल पहुंच स्वेटर और बस्ते को उतार बाकी कपड़ों समेत ताल में कूद जाना चाहता था. ऊपर से जब पूरे वेग के साथ पानी में गिरूंगा तो शरीर में जगह-जगह विभूषित पदार्थ स्वयं जलमग्न हो जाएगा. मुझे सिर्फ यह डर था कि अगर वह जलमग्न न होकर ऊपर आ गया तो क्या होगा. अब मैं भगवान से प्रार्थना करने लगा कि हे भगवान मुझे वहां कोई न मिले. पर आज के दिन मेरा भाग्य मेरा साथ नहीं दे रहा था. मैंने दूर से ही देख लिया कि जौ की ताल बच्चों से भरी हुई थी. कुछ नहीं तो पांच-छह बच्चे तो रहे ही होंगे. वे बच्चे आसपास के गांव में रहते थे और मेरे साथ ही केंद्रीय विद्यालय में पढ़ते थे. पर मैं जैसे ही गाड़ के पास पहुंचा तो उसका पानी देख मुझे गहरी राहत मिली. पानी मटमैला था. अभी एक दिन पहले बारिश हुई थी, जिसका प्रभाव अभी तक खत्म नहीं हुआ था. जैसे हरी घास में हरा कीड़ा देख पाना लगभग नामुमकिन होता है, वैसे ही मटमैले पानी में मटमैला पदार्थ कौन देख सकता था. जौ की ताल पहुंच मैंने बस्ता और स्वेटर एक ओर रखा और अपनी ट्रेडमार्क स्टाइल में एक हाथ हवा में उठा और दूसरे हाथ से शरीर के सबसे सुकोमल अंग की रक्षा करते हुए सबसे ऊपरी चट्टान से कूद लगा दी. पानी में मैं एकदम तले तक पहुंचा. ऊपर आते हुए मैंने अंत:वस्त्रों को पानी के भीतर ही झटका. पानी से बाहर निकल मैंने इस तरह तब तक कूद लगाई जब तक कि आश्वस्त न हो गया कि मेरे शरीर में पदार्थ का कोई कण भी शेष नहीं है. वहां बाकी के लड़के मुझसे साथ खेलने को कहते रहे पर मैं तो एक जरूरी मिशन पर था. उन लड़कों में से किसी को भनक नहीं लगी कि मैं कौन से मिशन पर था, पर आज इतने वर्षों बाद इस आशंका के मद्देनजर कि उनमें से कोई इस वृतांत को पढ़ सकता है, मैं हाथ जोड़कर उनसे क्षमा मांगता हूं कि मुझे मजबूरन उस ताल को उस तरह गंदा करना पड़ा, जिस तरह कि मैंने किया. उम्मीद है कि वे मुझे माफ कर देंगे यह समझते हुए कि वैसा मैंने मजा लेने के लिए नहीं बल्कि एक घनघोर इमरजेंसी में किया था. वैसे गाड़ का पानी बहता हुआ पानी होता है. थोड़ा बहुत पदार्थ तो उसमें हमेशा ही रहता होगा क्योंकि मेरी तरह न जाने कितने होंगे, जो हम तक गाड़ के पहुंचने से पहले उसका उपयोग पदार्थ विसर्जन के उपरांत उसके छूट गए अवयव को साफ करने में करते होंगे. मेरी कामयाबी यह थी उस दिन मैं घर पहुंचा तो मां ने इस बात पर हल्की डांट लगाई कि मैं दिन में कपड़ों सहित ही जौ की ताल में नहाकर आ रहा हूं लेकिन उसे असली बात की जरा भी भनक नहीं लगी और इस तरह मैं अपने स्वाभिमान की रक्षा करने में सफल रहा.
(जारी)
सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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