पहाड़ों की सुबह मेरे लिए कभी भी बिछुड़ी हुई अंतिम सुबह नहीं रही,यह हर साल आबो-हवा बदलने के लिए पहाड़ जाने के एवज में वही चिर-परिचित सुबह ही है जिसको हमेशा मैं अपने ज़ेहन में करीने से रखती हूं. मैंने पहाड़ों की सुबह को जब-जब जिया है यह मुझे अश्रूत कलेवर में अनुभूत हुई. तीन दिन से हरसिल में प्रवास है. सौभाग्यवश हरसिल की एक और सुबह हमें मयस्सर हो गयी है क्योंकि देहरादून वापस जाने के लिए हम देरी से निकलेंगे. हमारे पास दो ढाई-घंटे हैं. सोच रहे हैं कि बिताये गये समय के परिणाम को और उत्पादित बनाया जाये. हम मुखबा गांव के लिए निकल गये हैं. (Travelogue by Sunita Bhatt)
हरसिल से धराली होते हुए हम भागीरथी के किनारे-किनारे मुखबा गांव जिसे मुख्य मठ या मुखीमठ भी कहा जाता है की ओर प्रवृत्त हैं. सदानीरा भागीरथी कोहरा जनमती हुई सड़क के साथ-साथ चल रही है. जहां तक दृष्टि विचर सकती है वहां तक देवदार, कैल के दरख्तों का कारवां है. मुखबा गांव उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से 75 किलोमीटर, हरसिल से 3 किलोमीटर की दूरी पर गंगोत्री राजमार्ग पर स्थित है. यह समुद्र तल से 2620 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. हरसिल से मुखबा जाते हुए सुरम्य दृश्यों की प्रचुरता है.मैं कार से बाहर मुंह करके विस्फारित दृष्टि से ईश्वर की कलाकृति को निहार रही हूं. नीम धुंधलके में लिपटी हुई सहर, किल्लोलती पतित पावनी भागीरथी मानो अपना धूम-धुसरित दुकूल हवा में लहरा रही है. सरेराह मवेशियों के रेवड़,हवाओं के मक्खन जैसे थपेड़े,चौमासे में देवदारों, कैल पर उतरता हरापन उन्हें छत्र-छाया देते हुए मेघ,परवाज़ भरती हुए पाखियों की डार,जीवन के असंख्य रंग दृश्यमान हो रहे हैं. ड्राईवर ने घने जंगलों की ओर इंगित करते हुए बताया कि दूर,उधर सघन जंगलों में मोनाल पक्षियों का बसेरा भी है. शांत-चित्त बैठे हुए हम तीनों अपने-अपने विचारों के ऊड़नखटोले में गतिमान हैं. भोर की नीरवता और भागीरथी के जलनाद मिश्रित स्वर से प्रमत्त मन भक्ति भाव से सराबोर है. हो भी क्यों ना? तो हरसिल के नीरव सौंदर्य की अध्यात्मिक सुबह और दूसरा धार्मिक उन्माद की दिव्य अनुभूति सहेजे हुए हम मां गंगा के मायके जा रहे हैं. कितनी विस्मयकारी है ना ईश्वर की कलमकारी? दूर श्रीकंठ हिम श्रृंग, नीचे असीमित फैले हुए सेब के बाग-बगीचे, हिमालय की उपत्यका में बहती निश्चल गंगा नदी, देवदार, कैल से सुवासित सुगंधित हवा. सहसा दृग कार के गवाक्ष से बाहर धीमे से उतरे और पृथुल मेघों के शामियाने में रल-मिल गये.
चपल मृगछौने मेघों को वात्सल्यपूर्वक आलिंगनबद्ध कर मेरा लेखक मन सजग होकर किसी यक्षिणी की भांति मेघों के साथ गतिमान होने लगा.
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मैं यक्षिणी, यहां के कंण-कंण को उर में समाहित कर, सौंदर्यवनत मेघों का अनुगमन कर रही हूं. नदी प्रसूत मेघ कहीं ऊधर्वगामी हो रहे हैं, कहीं नदी के समानांतर गतिमान हो रहे हैं. हम मुखबा गांव की ओर जाने वाले रास्ते की नीची सड़क पर पहुंच गये हैं.
सड़क से गांव की ओर जाने वाले मार्ग में थोड़ी सी चढ़ाई है. मुखबा गांव जाते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो यह यात्रा कोहरे की एक लंबी सड़क है और मुखबा गांव कोहरे के पार खुलने वाली दैवीय चित्रशाला. हम मंदिर के सुंदर प्रवेश द्वार पर पहुंच गये हैं.गंगा मां का मंदिर गांव के बीचों-बीच प्रांगण में है. कहा जाता है कि मां गंगा स्वर्ग से यहीं अवतरित हुई थी. प्रांगण में पहुंच कर चारों ओर हिमालय शैल मालाओं की मौन समाधि के मध्य शुभ्र-स्फटिक मंदिर है. मंदिर पर मेरी विस्फारित दृष्टि के प्रक्षेपण का हासिल यह हुआ कि मानो संपूर्ण दैवीय ऊर्जा और अध्यात्म मेरे भीतर उतर गया है. मंदिर के आसन्न प्राकृतिक सौंदर्य की प्रदर्शनी लगी हुई है. हिमालय के प्रहरी मेघ जहां -तहां चाक-चौबंद फैले हुए हैं. पठालों, खोलियों के झुरमुट से घिरे इस मुखबा गांव के परिदृश्य मेघों की अवनिकाओं में हरे-भरे पहाड़ों की चित्रकारी से दृष्टिगत हैं.
ये संगठित हुए बादलों की ही नेमत है कि इन्होंने मुखबा गांव को सुख, समृद्धि प्रदान की है. यह सुभग बादलों की सौम्य वृष्टि ही है कि गांव में अतीस, कुटकी, वज्रदंती, जटामासी आदि जड़ी-बूटियों की कोंपलें प्रस्फुटित होने लगी हैं. मंदिर के किवाड़ बंद हैं. गंगा मंदिर की धार्मिक महत्ता, पवित्रता की पराकाष्ठा और प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत संयोजन संभवतः हरसिल से पर्यटकों को यहां बरबस ही खींच लाता है. मंदिर इतना दुग्ध-धवल है कि इसकी सीढ़ियों पर बैठने में संकोच हो रहा है कि कहीं मैली नहीं हो जायें. आजकल मुखबा के मंदिर में यात्रियों की छीड़ है क्योंकि गंगा की मूर्ति गंगोत्री के मंदिर में विराजमान हो चुकी हैं. जो भी कतिपय पर्यटक यहां आ रहे हैं वे मुखबा गांव के चारों ओर राजसी हिमालय से घिरे हुए मंदिर के परिसर में चेतनानुभूति हेतु आ रहे हैं. नये मंदिर से ही सटे हुए प्राचीन मंदिर में देवदार और पीतल के समेकन की खूबसूरत नक्काशी है कहते हैं यहां भगवान नरसिंह और सोमेश्वर देवता की बेशकीमती मूर्तियां भी हैं. मंदिर के ठीक ऊपर देखने पर जीवंत संस्कृतियों और पारंपरिक संरचनाओं का मुहाल दृष्टिगोचर हो रहा है. बरसात के जादुई मौसम में धूम्र रेखाओं के ऊपर-नीचे काली पतंगों से लटके हुए स्लेटनुमा घर वास्तुकला और शिल्प का बेजोड़ नमूना हैं. कोहरे के छंटने और छितरने की क्रिया में मुखबा गांव को देखने का तिलिस्म एक अदम्य अनुभूति है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मंदिर के प्रांगण में बादलों का विशाल अग्निहोत्र हो रहा है, हविष्य उठ-उठ कर मंदिर के ऊपर स्थित घरों में समाहित हो रहा है होम के हविष्य को ग्रहण करने हेतु ही गांव की षोडसियां अपने छज्जों पर निष्काम बैठी हुई हैं.
जीवन की जटिलताओं से दूर मुखबा गांव के जीवन का ये अलग ही सुंदर ताना-बाना है मानों इन्हें किसी भी चीज की कोई उत्कंठा नहीं, दुनिया के बनावटीपन और तड़क-भड़क से दूर कितना सहज जीवन जी रहे हैं यहां के लोग. गांव की तिबारियों का अद्भुत शिल्प और दस्तकारी देखते हुए हम आगे बढ रहे हैं. पहाड़ में तिबारी गांव दो मंजिला घरों को कहा जाता है. गांव के सभी घर एक ही रंग,कलाकृति और परंपरा में दृष्टिगत हैं. रमणीय दृष्यावली के सम्मोहन को क्षणिक भंग करता हुआ हमें एक काले रंग का हष्प-पुष्ट, सुंदर कुत्ता दिखाई दिया है. थोड़ा चुमकारने पर ही वह हमारा अनुगमन करने लगा है. तभी ऊपर वाले घर से आवाज आयी हरसिल… हरसिल, काले कुत्ते ने पूंछ हिलाकर मूक प्रत्युत्तर दिया और हमने जाना कि इसका नाम हरसिल है. हरसिल को मेरी सहेली ने कुछ बिस्किट दिये. हरसिल को खाने के लिए बिस्किट क्या मिले वह तो हमारा ही हो गया. अब हरसिल हमारे साथ हमारे आगे-आगे चल रहा है. दरअसल पहाड़ी कुत्ते रास्ता चलने वालों के मार्ग-दर्शक व बहुत मिलनसार होते हैं. तिबारियों के बीच एक सुंदर स्त्री से परिचय हुआ उन्होंने मुझे बताया कि इस दैवीय स्थल को जो दिव्य पहाड़ आलिंगन किये हुए हैं वह श्रीकांठा पहाड़ हैं. उन्होंने उंगलियों से इशारा करके मेरू,सुमेरू पर्वत भी दिखाये. और यह भी बताया कि गांव के ठीक ऊपर पास ही एक खूबसूरत झरना है. जहां पर्यटक घूमने जाते हैं. उनसे हमें पता चला कि दीपावली पर जब गंगोत्री में अत्यधिक ठंड और हिमपात होता है तो गंगोत्री से गंगा मां की मूर्ति यानि की शीतकालीन गद्दी मुखबा गांव लाती जाती है.उस समय यहां अनेक धार्मिक अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं.बसंत ऋतु अप्रेल के महीने में एक भव्य जुलूस के साथ मां गंगा की डोली पुनः गंगोत्री ले जायी जाती है. एक महीना पहले ही ग्रामीण इस उत्सव की तैयारी में लग जाते हैं. मुखबा गांव चूंकि मां गंगा का मायका है और गंगा, गांव की बेटी अंत: गंगा कि विदायी का यह क्षण ग्रामीणों के लिए बहुत भावुक होता है. गांव की महिलायें गंगा को विदा करने दूर तक जाती हैं. पुराने समय में मां के देवीकंडे में चूड़ा, चीणा, बुखणा, उड़द के पकौड़े वस्त्र जेवरात रखें जायते थे. अब समय के साथ परंपरा में बदल रही हैं.
मुखबा गांव को गंगोत्री के पुरोहितों का गांव भी कहा जाता है. यहां तकरीबन चार सौ सेमवाल जाति के पुरोहित परिवार रहते हैं जिनकी चौदह पीढ़ियां यहां रह चुकी हैं. यहां सेब, आड़ू और राजमा की फसल होती है.
फसलें पक-कट जाने के बाद संभवतः यह समय ग्रामीणों की विश्रांति और हर्षोल्लास का समय भी होता है.उस दौरान गांव में सिलगू, सारदुदू, नागदेवता का मेला आयोजित होता है.मेले में पांडु नृत्य किया जाता है. तीज-त्योहार में मुखबा गांव के लोग देयोड़ू नामक मक्की से बना व्यंजन बनाते हैं जिसे घी और शहद के साथ खाया जाता है. यह सब जानकारी हमें मुहैय्या कराकर वह शिष्ट मिलनसार महिला हमें अपने घर चाय के लिए बहुत स्नेहपूर्वक आमंत्रित करके चली गयी.
सांस्कृतिक एवं एतिहासिक जीवंत धरोहरों के दस्तावेज, तिबारियों के बीच से होकर हम गुजर रहे हैं जिनमें से कई तिबारियां तालाबंद हैं जो कहीं-कही पर उजड़ गयी हैं कुछ बिल्कुल अपने प्राचीन रूआब में हैं.
मुखबा गांव के अतीत का ज़रूर कोई ऐतिहासिक महत्व या लोककथाओं की पृष्ठभूमि रही होगी यह मैं एक घर के अहाते में लकड़ी की बड़ी सी ढाल जैसी लगने वाली किसी वस्तु को देखकर अंदाजा लगा रही हूं. इसलिए यहां के ग्रामीण उत्सवधर्मी हैं. तभी एक घर में प्यारी सी बछड़ी जिसका नाम गंगा है यहां से वहां हिरन के बच्चे सी कुलांचे भर रही है. घर की लड़की उसे सन्नी के भीतर रखना चाह रही है किंतु उसे तो अपने घर के आंगन में स्वच्छंद घूमना है. मुखबा के जानवर भी यहां के दैवीय वातावरण के समान पवित्र अनुभूति का अहसास कराते हैं.
यहां के सुंदर दृश्य, जीवंत संस्कृति और ऐतिहासिक संरचनाएं, खूबसूरत फोटोग्राफी के लिए उपयुक्त जगह है. मुखबा गांव के आसपास गंगोत्री, हरसिल, धराली, गंगोत्री और यमुनोत्री भी कम समय में जाया जा सकता है.
अभी मैं प्रकृति और गांव के परिदृश्य को देखकर मंत्रमुग्ध ही हूं कि धुंधलके बादलों के कैनवस पर बछड़ी चराने ले जाती एक पांडुवर्णी, दिव्य छवि, बोडी बछड़ी चराते हुए मिलीं. पहाड़ में बोडी ताईजी को कहते हैं. प्रस्तर ललाट पर बड़ा सा लाल टिका, कमर पर धोती उसके ऊपर पागड़ा, सिर पर साफा, हाथ में डंडा, वह गंगा मां के जरा स्वरूप सी, मुखमंडल पर मंद मुस्कान और विस्तृत ओज लिए हुए हैं. इन विदुषी महिला ने मुझसे पुराण की बात की और ऋषि मार्कंडेय, शिव, अन्नपूर्णा मंदिर के बारे में जानकारी दी जो मुखबा गांव से आधा घंटे की दूरी पर स्थित है. इन्हीं ऋषि मार्कंण्डेय के नाम से मार्कंडेय गांव है. बोड़ी ने कहा मुखबा आकर मार्कंडेय ऋषि का आश्रम नहीं देखा तो क्या देखा वो भी देख आओ. कहते हैं यहीं मार्कंडेय ऋषि ने अमरत्व का वरदान प्राप्त किया था. मार्कंडेय ऋषि की तप-स्थली के साथ -साथ मुखबा गांव को पांडवों का प्रवास स्थल भी कहा जाता है.
उत्तराखंड के गांव, पहाड़ों का भ्रमण करती रहती हूं अत: यह कतई अद्भुत नहीं है मेरे लिए जानना कि यहां के पत्थर, नदी, पहाड़, पक्षी, पशु हवा सभी आप से उन्मुक्त होकर बात करते हैं ,यह भी निर्विवाद है कि स्थानीय लोग पहाड़, नदी, हिमालय वृक्ष, पक्षी, पशुओं, लोककथाओं, औखांड़ (मुहावरे) किंवदंतीयों, मेले, त्योहारों के बारे में जानकारी देने का चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया हैं. मैंने अपने पहाड़ के लिए आस्था और सम्मानवश सहसा बोड़ी के चरण स्पर्श किये. चरण स्पर्श के लिए हम पहाड़ियों को सोचना नहीं पड़ता यह बस अपने-आप होता चला जाता है. बोड़ी एक प्यारी सी बछिया को हांककर ले जा रही हैं. उन्होंने पूछा कहां से हो? मैंने कहा देहरादून से हरसिल घूमने आये हैं. आपका मुखबा गांव बहुत सुंदर है जैसे बादलों के देश में पहाड़ी कुनबे की धरोहरों और संस्कृति की बेशकीमती प्रदर्शनी. बोड़ी अबोध शिशु सी हंसने लगीं.
बोड़ी से मिलकर महसूस हुआ कि पहाड़ में देवालय और देवस्थल ही नहीं श्रद्धावनत हेतु विदूषी देवात्मायें भी हैं. इन बोड़ी की तस्वीर लेने के लिए हृदय आतुर हुआ, तस्वीर मोबाइल पर कैद की,
घर पहुंचने पर मैंने महसूस किया कि मेरे द्वारा आज तक खींची गयी तस्वीर में यह सबसे अलहदा और अवर्णनीय तस्वीर है.
अषाढ़ के मेघों के आतिथ्य में मुखबा गांव मुझे देवनगरी जैसा महसूस हुआ.
मुखबा गांव अपनी सांस्कृतिक विरासत,लोक कथाओं, एतिहासिक पृष्ठभूमि, पारंपरिक प्रथाओं, कला रूपों और अनुष्ठान को संरक्षित करने के लिए प्रसिद्ध है. उम्मीद है की परंपराओं और संस्कृति का धनी मुखबा गांव उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान को विश्व-पटल पर अंकित कराने हेतु मददगार सिद्ध होगा.
चमकते हुए क्षण को जीने के लिए अप्रतिबंधित कार्य-प्रणाली अपरिहार्य है. जहां नैतिक-अनैतिक संघर्ष है वहां जीवन के बहुमुल्य क्षण अपवाद हैं. इसी किंकर्तव्यविमूढ़ता से विरत र्मैंने अपनी हर यात्रा से रह गुजर सृष्टि के नये क्षितिज को देखा.एकांत की स्वतंत्रता को बनाये रखने हेतु प्रकृति अपना पूरा योगदान देती है. यात्राओं का रसास्वादन करना है तो आंतरिक और बाह्य इंद्रियों का सामंजस्य नितांत ज़रूरी है. दरअसल, यात्रा उत्सुकता के पार चैतन्य हो जाने की खुली खिड़की है इस दौरान अपने स्व के साथ हम उतने ही पास होते हैं जितना की नींद के आसन्न स्वप्न.
समय हो चला है हम हरसिल वापस लौट रहे हैं मुखबा गांव के अविस्मरणीय आतिथ्य को हृदय में संजोते हुए. (Travelogue by Sunita Bhatt)
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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