शहर में जहां विवाह जैसे कार्यक्रम महज एक औपचारिकता बनते जा रहे हैं. चंद घंटों में एक वैवाहिक समारोह पर लाखों रुपया खर्च कर दिया जाता है.
जबकि समय की कमी के कारण मेहमान न नाच गाने का आनंद ठीक से ले पाते हैं और न ही आराम से भोजन कर पाते हैं. कुल मिलाकर वैवाहिक कार्यक्रम आया गया जैसी बात हो जाती है.
इसके ठीक उलट हिमाचल, उत्तराखंड समेत अन्य पहाड़ी राज्यों में आज भी शादी समारोह किसी सामूहिक उत्सव से कम नहीं होता. खास बात यह होती है कि जिस घर में शादी होती है उस परिवार के सदस्यों को गांव के समस्त परिवारों का सहयोग मिलता है. हर घर से एक महिला व एक पुरुष की विवाह समारोह को संपन्न करवाने में डयूटी लगाई जाती है. बाकायदा जिम्मेदारी सौंपने के लिए शादी से एक-दो दिन पहले एक बैठक आयोजित की जाती है. इसी में पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर ली जाती है. रोटी किसके घर में बनेगी. हलवा पुड़ी सब्जी दाल कौन बनाएगा. सलाद कौन काटेगा या भोजन कहां कब कौन कैसे परोसेगा. यह पूरी रूपरेखा इस बैठक में बन जाती है. जिन्हें बाराती जाना होता है उन्हें पंडित के बताए समयानुसार दूल्हे के साथ जाने के लिए तैयार होने को कह दिया जाता है.
शादी के कार्यक्रम की शुरुआत सुबह की चाय के साथ ही हो जाती है. फिर माइक से प्रत्येक टोलुआ व रुटयारी (प्रत्येक घर के महिला पुरुष जिन्हें सहयोग के लिए सूची में शामिल किया जाता है) का नाम लिया जाता है और उन्हें समय से अपना अपना काम शुरू की करने की अपील की जाती है. माइक की आवाज पूरे गांव में गूंजती है, लिहाजा सभी को यहीं से दिशा निर्देश मिलते रहते हैं. चार भाइयों ने बेरोजगारी को मात दे बनाया पहाड़ी बैंड
रोटी बनाने के लिए कुछ घरों के चूल्हे चिन्हित कर लिए जाते हैं. महिलाएं ग्रुप में बंट जाती हैं और बताए गए घर में सामुहिक तौर पर रोटी बनाने का काम करती हैं, इस दौरान महिलाएं काम करते करते एक दूसरे से जी भरकर सुख-दुख की बातें करती हैं. दूसरी तरफ पुरुषों की टोली अपने अपने काम में लगी होती है. यहां काम के साथ सब एक दूसरे से बतियाते हैं और खूब ठहाके भी लगते हैं. यह सिलसिला गांव के लोगों से लेकर मेहमानों को भोजन करवाने तक जारी रहता है. शाम के समय में बारात के गांव पहुंचने के साथ ही नाच गाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है. जिसमें गांव के लोग, दुल्हन के साथ आए मेहमान समेत सब लोग शामिल होते हैं. तय समय के बाद सभी मेहमान उन्हें बताई गई जगह पर सोने के लिए चले जाते हैं. कुल मिलाकर शादी का कार्यक्रम महज एक कार्यक्रम नहीं होता, बल्कि इसमें ग्रामीणों के आपसी सहयोग, प्रेम भाव और संस्कृति की झलक भी देखने को मिलती है.
आज लोक कलाकारों और वाद्य यंत्रों की जगह डीजे की धुन अपनी जगह बनाने लगी है. जो कि चिंता का विषय भी है. हम सभी को अपनी संस्कृति, परंपराओं के संरक्षण के लिए आगे आना होगा.
मूल रूप से हिमाचल के रहने वाले महावीर चौहान हाल-फिलहाल हल्द्वानी में हिंदुस्तान दैनिक के तेजतर्रार रिपोर्टर के तौर पर जाने जाते हैं.
वाट्सएप में काफल ट्री की पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…