एक थे मोद्दा. बेतरतीब और उलझे हुए दाढ़ी-बाल, पोपला मुँह, फटे-पुराने जूते, जो कई बार अलग-अलग साइज और रंग के भी होते थे. तन पर दो-दो, चार-चार पैंट-कमीजें एक के ऊपर एक, हाथों में ढेर सारी पत्रिकाओं, आधे-अधूरे, नए-पुराने अखबारों का पुलन्दा. पिछले दिनों एक अन्दाजे के मुताबिक 80 से ज्यादा वर्षों तक जीने के बाद गुजर गए मोद्दा.
करीब चैंतीस-पैंतीस सालों से उन्हें पहचानता था. शहर से कुछ ही दूर स्यालीधार गाँव के रहने वाले थे. उनकी दिमागी हालत कब और क्यों ऐसी हुई नहीं जानता. अल्मोड़ा शहर के कई बुजुर्ग भी यही कहते हैं कि यार हमने तो मोतिया को ऐसा ही देखा.
मोद्दा सभी के मोद्दा थे. वे रोज बिला नागा गाँव से शहर आ जाते. दिन भर यहाँ-वहाँ डोले. चाय की तलब लगी तो किसी चाय की दुकान में जा बैठे. दुकानदार उन्हें चाय पिला देता. कुछ मीठा खाने का मन हुआ तो मिठाई की दुकान में चले गए. कोई परिचित टकरा गया तो बीड़ी-माचिस के पैसे माँग लिए. किसी से रुपया-दो रुपया माँग लिया या किसी परिचित ने बुलाकर दे दिया. बिना परिचय के मोद्दा लेते नहीं थे. आज का अखबार मिल गया तो ठीक वरना रास्ते में पड़ा फटा-पुराना टुकड़ा या लिफाफा ही सही, उठा के पढ़ लिया. अखबार हिन्दी-अंग्रेजी कोई भी चलता था. अखबार का एडिटोरियल पन्ना मोद्दा ज्यादा पढ़ा करते थे. अन्तर्राष्ट्रीय खबरों पर दिलचस्पी ज्यादा रहती थी.
तोराबोरा में बौद्ध प्रतिमाएं ध्वस्त, अमेरिका ने कहाँ बम गिराया, कैटरीना तूफान … नेपाली माओवादी … सब खबर रहती थी मोद्दा को.
जिन दिनों नेपाल में माओवादी अपने चरम पर थे मोद्दा ने हर नेपाली मजदूर को शक की नजर से देखना शुरू कर दिया था. एक दिन मोद्दा ने चाय की दूकान में अपनी गठरी बेंच के नीचे यह कह कर छिपा दी कि सामने चाय पीता नेपाली माओवादी हो सकता है. क्या हो सकता है ? इस पर सामने वाले को कहना पड़ता- माओवादी. हाँ, माओवादी. क्या भरोसा यार इनका, बम रख दें या सामान उठा ले जाएं. अरे बड़े खतरनाक होते हैं यार ये लोग. क्या होते हैं ? खतरनाक.
एक दिन मोद्दा ने एक सुनार से कहा- लाओ डबल निकालो. सुनार ने एक सिक्का मोद्दा के हाथ में टिका दिया. मोद्दा ने आँखों के करीब लाकर सिक्के का मुआयना किया और यह कह कर लौटा दिया- ये क्या अठन्नी? हद्द हो गई हो. अपार माया ठहरी यार तुम्हारे पास तो. सोने के नींबू, सोने की बिल्ली, चाँदी के चम्मच. हमारे लिए अठन्नी-चवन्नी.
मोद्दा का दायरा अल्मोड़ा तक ही सीमित नहीं था. जब कभी मन हुआ तो किसी बस में चढ़ गए और कहीं को निकल गए. वो एक ही गाड़ी में पूरा सफर नहीं करते थे. शायद इसलिए कि सफर की कोई निश्चित मंजिल नहीं होती थी और शायद इसलिए भी कि एक गाड़ी वाला भला आपको बिना टिकट कितनी दूरी तक बर्दाश्त कर सकता है. इसलिए मोद्दा रास्ते में कहीं भी उतर जाते. सुस्ताए,चाय पी, अखबार पढ़ा और लागों से गपियाए. फिर जैसा मूड बना आगे चल दिए या लौटती बस में सवार हो गए. उनका किस्तों में यह सफर कई बार दिल्ली तक भी हो जाया करता था. दिल्ली से आगे क्यों नहीं ? बकौल मोद्दा- उससे आगे कहीं भी माओवादी मिल सकते हैं. मेरे एक परिचित ने बताया कि उसे मोद्दा एक बार हल्द्वानी बस स्टेशन पर चाय सुड़कते मिल गए. उसने पूछा- ओ हो मोद्दा यहाँ कैसे ? मोद्दा ने कहा- किसी से मिलने आया हूँ. पूछा किससे ? मोद्दा ने जवाब दिया- कोई खास ही है हरामजादा और उसके बाद मोद्दा का खास ठहाका कि चिडि़या चैंक के उड़ जाए.
शहर में मोद्दा के पारिवारिक सम्बन्ध थे. हँसी-मजाक सबसे थी मगर कभी किसी के साथ अमर्यादित व्यवहार उन्होंने नहीं किया. और न ही किसी ने उनसे बदसलूकी की होगी. शहर में उनकी एक जगह थी. लोगों नजरों में एक किस्म का सम्मान था. ऐसा कम ही देखने में आया होगा कि ऐसी दिमागी हालत वाला कोई शख्स गुजरे तो वह अखबारों की सुर्खी बने और चर्चा का विषय भी. मैं मोद्दा को उनकी संक्रामक और उन्मुक्त हँसी के लिए हमेशा याद रखूँगा. उस हँसी को कैसे बयान करूँ समझ नहीं पा रहा. फिल्म अभिनेता यूनुस परवेज की हँसी से भी उसकी तुलना नहीं की जा सकती. मोद्दा की हँसी पर बस उन्हीं का कॉपीराइट था. मगर वह हँसी पिछले कई सालों से अब वैसी नहीं रही थी जैसी मेरी पीढ़ी के लोगों ने अपनी किशोरावस्था में सुनी थी. शायद उम्र का असर रहा हँसी पर. उस हँसी का जिक्र आने पर हम आपस में कहा करते थे कि यार मोद्दा का ‘हैड’ घिस गया है.
जमाना ही खराब आ गया शायद. हर चीज में मिलावट और गिरावट का दौर-दौरा है. वर्ना एक समय था कि इस शहर में मानसिक स्वास्थ्य खराब होने के लिए लाजमी था कि आप कम से कम हाई स्कूल या इन्टरमीडिएट तक पढ़े हों. वकील, बैरिस्टर, अंग्रेजीदाँ प्राध्यापक मिल जाया करते थे. कोई इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का पासआउट तो कोई बीएचयू से. बड़े जोशोखरोश के साथ, बड़ी ही सभ्य भाषा में रूस-अमेरिका के कोल्डवार जैसे विषयों पर बोलते या तकरीर करते नजर आ जाया करते थे. लोग उन्हें देख कर कहते ज्यादा पढ़-लिख जाने से इनकी ये हालत हो गई है. अति हर चीज में बुरी होती है. ज्यादा घी भी नुकसान करता है. बात लेकिन कितनी समझदारी की करते हैं कभी-कभी.
एक आँखों देखा किस्सा आपको बताऊँ. गणित या विज्ञान के अध्यापक रह चुके एक सज्जन कुछ दिन मानसिक चिकित्सालय में बिता कर घर वापस आए. उनके एक परिचित ने पूछा- सतीश अब कैसी है तुम्हारी तबियत ? इस पर उन साहब ने तपाक से जवाब दिया- अब ये तो आप ही बताइये. इस सवाल का इससे बेहतर जवाब हो ही नहीं सकता. क्योंकि मानसिक असन्तुलन की शिकायत रोगी खुद नहीं करता. दूसरे लोग आपको बताते हैं कि साहब आपके दिमाग में कुछ गड़बड़ है.
इस शहर के ऐसे ही बाखबर और बहोशोहवास किस्म की विभूतियों की लगभग अंतिम कड़ी थे मोद्दा.
लम्बे समय तक अल्मोड़ा शहर के लोगों की यादों में मोद्दा बने रहेंगे और उन लोगों के मैमोरी कार्डों में भी सजीव रहेंगे जिन्होंने उनकी तस्वीरें खींची होंगी.
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.>
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5 Comments
Anonymous
अशोक अभी अभी तुम्हारा अल्मोड़ा में बाख़बर….. शीर्षक से संस्मरण पढ़ा, किसी ने तुम्हारे किसी लेख पर वाकई बहुत सटीक टिप्पणी के थी कि तुम व्यक्तित्वों के भी असाधारण संग्रहकर्ता हो। तुम्हारा नया लिखा हुआ कुछ भी पढ़ने के मोह को कुछ देर के लिए भी स्थगित करना असंभव होता है। मां सरस्वती का आशीष है तुम्हारे ऊपर। भवन चिरायु रखे तुम्हें।
Anonymous
Nice one sir
सुशील
शम्भू जी की कलम से निकला एक और नायाब पन्ना।
Navin Chandra Pant
बहुत अच्छे शंभू राणा जी. लेकिन modda की एक अदद तस्वीर की कमी खली.
रियासत अली खान
आपने मौद्दा को फिर से सजीव कर दीया ।
ये सिर्फ Sambhu जी ही कर सकते हैं ।