(पिछली कड़ी – सूरज की मिस्ड काल भाग- 2)
गुलाबी जाड़े की एक सुबह
सुबह उठकर चाय मुंह धो लिये हैं. चाय मंगा लिये हैं. एक के बाद दूसरी भी. पीते हुये ब्लॉग-स्लॉग भी देखते जा रहे हैं. फ़ेसबुक भी खुला है. कोई नमस्ते-वमस्ते करता है तो हमने भी जैसे को तैसा कर देते हैं. बीच-बीच में देखते जाते हैं कि कोई नया लाइक आया क्या फ़ेसबुक पर. उधर टीवी भी चल रहा है. खबरें आती जा रही हैं. जा भी रही हैं. कुछ ढीठ खबरें बार-बार आ-जा रही हैं. थेथर कहीं की. जिद्दी, बेहया, धुन की पक्की.
पता चला कि गुजरात के मुख्यमंत्री जी ने थरूर जी की पत्नीजी पर कोई बयान जारी किया था. शायद ट्वीट किया. उस पर उन्होंने प्रति ट्वीट किया. नहीं, नहीं बयान ही जारी किया. ट्वीट तो थरूरजी करते हैं. मीडिया वाले ताड़े हुये थे. बयान और ट्वीट का प्रसार बढ़ा. बात स्त्री की गरिमा से जुड़ गयी. प्रेम भी आ गया बीच में. पैसा भी. प्रेम और पैसे का तुलनात्मक अध्ययन होने लगा.
आजकल पैसा तो बेचारा हर कहीं दौड़ाया जाता है. यहां भी लगा दिया गया है ड्यूटी पर. देख रहे हैं कि रुपये और पैसे पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया है. हर जगह उसको मौजूद रहना पड़ता है. घपले में, घोटाले में, चुनाव में , वजीफ़े में,रेल में , जेल में. जिसको देखो पैसे रुपये को ठेल देता है जिम्मेदारी निबाहने को. पैसे के मुकाबले नैतिकता, सच्चरित्रता, सद्भाव, सद्गुण जैसे अल्पसंख्यकों को आराम है. कोई पूछता नहीं सो वे पड़े आराम कुर्सी तोड़ते रहते हैं.
उधर केजरीवाल जी के फ़र्रुखाबाद जाने की बात पर भी बयानबाजी हो रही है. कोई कह रहा है उनका मुंह काला करेंगे. दूसरे ने बयान जारी किया कि लाठियों से जबाब देंगे. इससे अंदाजा लगता है कि मुकाबले में लोग बराबरी की बात पर जोर नहीं देते. द्रव (पेंट) का मुकाबला ठोस (लाठी) से. कुछ भी हो मुकाबला होना चाहिये. शायद यह जब तोप मुकाबिल हो तो तलवार निकालो से प्रेरित है. वैसे आर्थिक लिहाज से मामला लगभग बराबरी का ही पड़ेगा. जित्ते का पेंट आयेगा लगभग उत्ते की ही लाठी पडेगी. जित्ते स्वयं सेवक पेंट पोतने के लिये चाहिये उत्ता ही खर्चा लाठी वाले पहलवानों पर खर्च हो जायेगा. यह स्वयंसेवकों के बीच बढ़ती आर्थिक समझ का परिचायक है.
पता चला कि आज ही सरदार बल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन है. उनके योगदान के बारे में सभी जानते हैं. हमें कहीं पढ़ी हुई एक बात याद आती है कि वे रेडियो पर रात के समाचार सोकर सोने चले जाते थे. सुना है कि हैदराबाद में कब्जे का आदेश देकर वे सोने चले गये थे. मतलब उनके मन में अपने निर्णय पर कोई दुविधा नहीं थी. उनको हमारी विनम्र श्रद्धांजलि.
पता तो यह भी चला है कि पंजाब से आया गेहूं राज्स्थान के किसी रेलवे स्टेशन पर सड़ रहा है. कारण जाने क्या रहे हों लेकिन यह पक्का है कि उचित जगह तक अनाज पहुंचाने वाले लोगों ने अपने काम में कोताही भले न बरती है हो लेकिन उनमें आपस में तालमेल नहीं है. सबने अपने-अपने हिस्से की कार्यवाही जरूर की होगी. सबने जो किया होगा वह नियम के तहत ही किया होगा. लेकिन अंतत: गेहूं अपनी नियति को ही प्राप्त हुआ. सड़ गया.
ऊपर वाली घटना में मीडिया भी गेहूं सड़ने के बाद ही पहुंचा. क्या पता वह गेहूं के सड़ने का ही इंतजार कर रहा हो. प्लेटफ़ार्म पर सड़ता हुआ गेहूं मीडिया के लिये ज्यादा आकर्षक होता है.
इस बीच गरदन इधर-उधर हिलाने पर देखा तो पता चला दरवज्जे के पल्ली तरफ़ धूप खिली हुई है. दरवज्जा आधा खुला है. धूप देखकर मन खिल गया. हम यहीं से महसूस कर रहे हैं कि धूप पक्का गुनगुनी है. गुनगुनी धूप जाड़े में खिलती है. इस तरह के जाड़े को गुलाबी जाड़ा कहते हैं. इसमें जाड़ा और धूप दोनों का साथ खुशनुमा होता है. नये जोड़े की संगत सरीखा. मधुर, अभिनव, अनिर्वचनीय.
ये जो कवि लोग अनिर्वचनीय लिखते हैं वे पक्का शुरु अपने स्कूल के दिनों में होमवर्क पूरा नहीं करते होंगे. जहां जरा ज्यादा काम पड़ा बोले –हमसे न होगा. कवि को बिम्ब न मिला मजेदार तो बोले-अनिर्वचनीय. उनसे अच्छे तो आजकल के जनप्रतिनिधि जो हर तरह के बिम्ब पेश कर सकते हैं. सौंन्दर्य और प्रेम का मूल्यांकन करके कीमत लगा लेते हैं.
जब जाड़ा जबर पड़ता है तो धूप पीली पड़ जाती है. कुम्हला जाती है. उसके हाल एक गरीब की घरैतिन सरीखे हो जाते हैं. जाड़ा उसके खिसियाये हुये मर्द सरीखा लगता है. जिसकी दिहाड़ी पूरी नहीं हुई. जबर जाड़े में धूप के हाल वैसे ही दिखते हैं जैसे कि किसी खौरियाये हुये गरीब की स्त्री अपने पति को घर में घुसते देखकर सहम जाती है.
लेकिन ये सारे बिम्ब रुढिवादी हैं भाई. धूप और जाड़ा तो न जाने कब से साथ रहते आयें हैं. ऐसा भी होता होगा कि थरथराता हुआ जाड़ा गुनगुनी धूप के संपर्क में आने पर मुलायम पड़ जाता होगा. धूप और खुशनुमा हो जाती होगी. जाड़ा थोड़ा कम जबर हो जाता होगा. जोड़ा खबसूरत दिखने लगता होगा. मनभावन. सुन्दर. अनिर्वचनीय.
गुलाबी जाड़े की सुबह के बहाने सोच रहे थे कि कोई कविता बना देंगे लेकिन घड़ी बता रही है बच्चा दफ़्तर जाने का समय हो गया. उठ, चल, निकल, फ़ूट ले.
16 सितम्बर 1963 को कानपुर के एक गाँव में जन्मे अनूप शुक्ल पेशे से इन्जीनियर हैं और भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय में कार्यरत हैं. हिन्दी में ब्लॉगिंग के बिल्कुल शुरुआती समय से जुड़े रहे अनूप फुरसतिया नाम के एक लोकप्रिय ब्लॉग के संचालक हैं. रोज़मर्रा के जीवन पर पैनी निगाह रखते हुए वे नियमित लेखन करते हैं और अपनी चुटीली भाषाशैली से पाठकों के बांधे रखते हैं. उनकी किताब ‘सूरज की मिस्ड कॉल’ को हाल ही में एक महत्वपूर्ण सम्मान प्राप्त हुआ है
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