पहली बार जोहार की यात्रा के लिए जब कमल दा के साथ निकला था तो मुझे कत्तई पता न था कि मैं किस तरह की जगह जाने वाला हूँ. मैंने अपने याशिका कैमरे के लिए तीन डब्बे फिल्म के जुटाए और एक बैग किया तैयार. कुछ पुरानी जींस को फेब्रिक कलर से आड़े टेड़े फैशन में पेंट किया और बनियान-जैकेट झोले में दबाये निकल पड़े ग्वालदम वाली बस से थल तक. यहाँ से नाचनी-बिरथी और कालामुनी होते हुए मुनस्यारी. हमारा पैदल सफ़र शुरू हुआ मल्ला दुम्मर से. हमारे साथ फकीर दा थे जिन्हें हम पोर्टर के बतौर ले गए थे लेकिन उन्होंने हम पर भरपूर भोकाल कसने की कोशिश की थी. यह भोकाल तब उतरा जब रिलकोट में चमगादड़ काण्ड हुआ.
(Milam Travelogue by Vinod Upreti)
खैर फ़कीर दा ने हमें पहले दिन के लिए जो पड़ाव बताया वहां पर हम दो घंटे में ही पंहुच गए. उन्होंने दावे से कहा कि आज हम केवल लीलम तक ही जा सकते हैं. इस घोषणा के बाद उन्होंने धीरे-धीरे चलने की भरपूर कोशिश की लेकिन हम दोपहर में भात खाने के लिए ही लीलम पंहुच गए. यहाँ पर खाना खाकर हम आगे की तैयारी में थे की एक लंबा सा गोरा आदमी, एक दुबले से सांवले आदमी के साथ साथ चला आ रहा था.
गोरे के पास एक कैमरा और एक छोटा सा बैग था और सांवले के पास बढ़िया बैगनी रंग का रक्सेक. उसे देखते ही हमारे फ़कीर दा ने उसे लपक लिया. पता चला कि दोनों साढू लगते हैं. कुंवर नाम था उस दुबले आदमी का. वह इस गोरे के साथ पोर्टर बन कर मिलम जा रहा था. जिंदगी भर कमाए अंग्रेजी के ज्ञान को उड़ेल कर हमें गोरे से बात की तो पता चला वह आयरिश है और वहां अंग्रेजी पढ़ाता है. नाम था मार्क क्रिस्टोफर लेनिन. घुमक्कड़ी का शौकीन है तो पिंडारी होते हुए यहाँ आ गया. उससे पहले हिन्दुस्तान में यहाँ वहां घूमने में था और पुष्कर के मेले के बाद इस तरफ आ गया.
बहुत हंसमुख, जिंदादिल और दोस्ताना इंसान. थोड़ी ही देर में पता चला कि यह तो भोलेनाथ का भक्त है. गज़ब का दमची. खाती गाँव से कैमरे की रोल के दो डब्बे भर के अत्तर लाया था. पीने के लिए अपनी ख़ास आयरिश पाइप में आधी खुकुरी सिगरेट का तम्बाकू और एक बढ़िया टुकड़ा अत्तर डालता और हर उस जगह शुरू हो जाता जहाँ पर वह रुकता या सुस्ताता. सामने खड़ी चढ़ाई- एक दम, खड़ी ढाल तो एक दम, नदी- नाला तो दम, चाय पीने रुको तो दम.
दूसरे दिन तक कुंवर और लेनिन में पोर्टर और साहब वाला रिश्ता नहीं रह गया था. जिस तरह लेनिन दम का शौकीन था कुंवर को छां का चाव था. जोहार में छां बड़ी स्ट्रोंग बनती है. लेनिन को भी उसे छां पिलाने में कोई परेशानी नहीं थी. दूसरे दिन दोपहर के बाद हम मपांग में पंहुचे तो एक ठिकाने में चाय के लिए रुक गए. कुंवर ने छां ऑर्डर की हमने चाय.
(Milam Travelogue by Vinod Upreti)
फ़कीर दा ने बीड़ी सुलगाई और लेनिन ने दम बनाने का अनुष्ठान शुरू किया. दमचियों के अंतराष्ट्रीय कोड के मुताबिक़ सामने वाले को ऑफर करना तो बनता था. उस होटल में पांच-सात लड़के बैठे थे जो खच्चरों पर बुर्फू के लिए गल्ला गोदाम का राशन ले जा रहे थे. उन लड़कों ने खुद तो दम पकड़ी लेकिन अन्दर बैठे एक लड़के को आवाज दी. उन्होंने बताया कि यह इस घाटी का सबसे बड़ा दमची है. दिन भर में दसियों बीडी माल पी जाता है. उसकी इस खूबी का बड़ी भक्ति भाव से वर्णन हुआ. लम्बे बालों को झटकता वह लड़का अन्दर ओट से बाहर निकला तो उसके चेहरे में अहंकार मिश्रित गर्व का भाव था और उसके चाण-माण लगभग हाथ जोड़े निरीह नजर से उसके कौशल को देखने के लिए ताकने लगे.
लेनिन ने दम की पाइप भरी और दमची शिष्टाचार के अनुसार अगले भाई को सुलगाने के लिए पकड़ा दी. अगले ने पाइप को अपने काले पड़ चुके होंठों में दबाया और सामने से जैसे ही आग सुलगी उसने पूरी जोर से हवा खींच ली. कस का अन्दर जाना था कि इस घाटी का वह शेर पीछे को लुड़का और ढेर हो गया. लेनिन ने अपनी पाइप पकड़ी और चाय के साथ तसल्ली से दम खींचने लगा. दस मिनट बाद वह लुड़का हुआ शेर उठा और लेनिन के पैर पकड़ कर बैठ गया. ऐसा खूंखार दमची उसने पहली बार देखा शायद. हम यहाँ से निकले तो अँधेरा होने तक ही रिलकोट पंहुच पाए. जहाँ एक धर्मशाला में हमने चमगादड़ को भगाने के बाद रात काटी थी. और यही पर फ़कीर दा का भोकाल उतरा था.
(चमगादड़ का पूरा किस्सा यहाँ पढ़े : जसुली शौक्याणी की धर्मशाला में एक रात इंटरनेशनल दमची के साथ)
तीसरे दिन हम मर्तोली तक ही गए. यहाँ से हमें एक इस्राइली योसी मिला जिसकी लेनिन से दोस्ती हो गयी. वह हमारी भाषा में लाटा किस्म का लौंडा था. कई दिन से यहीं पड़ा था. महीने भर से नहाया नहीं था तो बाल जटाओं में बदल गये थे. जूते त्याग कर चप्पल धारण किया था. बड़े फक्र से उसने बताया कि उसने यहाँ आकर सिगरेट छोड़ दी है. अब वह बीड़ी पीता है. अब हमारे दल में छ: लोग हो गए.
दो विदेशी, दो हम लोग और दो मुनस्यारी के स्थानीय लोग जो कि हमारे साथ पोर्टर थे. बुर्फू में पुल नहीं लगा था तो हमें टोला पुल से गोरी के दूसरे किनारे होते हुए बुर्फू गए. यहाँ भी एक रात रुके. इस पूरे सफ़र में हमारी तीन उपसमीतियाँ बन गयी. मैं और कमल दा पत्थरों के नीचे फर्न खोजते हुए आराम से चल रहे थे. लेलिन और योशी एक साथ थे और फ़कीर और कुंवर का अपना अलग साथ हुआ था.
(Milam Travelogue by Vinod Upreti)
बिल्जू होते हुए हम मिलम पंहुचे तो शाम करीब थी. हम बाकी लोगों से आगे निकल आये थे और समबसे पहले हमने ग्वन्खा गाड़ पर हिलता हुआ कच्चा पुल पार किया और आईटीबीपी कैम्प से आगे निकल कर गाँव में चले गए. बाकी चार लोग जब आये तो आईटीबीपी में इंट्री करते हुए आये. दो विदेशी और उनके साथ दो स्थानीय गाइड. हम लोगों की इंट्री हुई तो हमें भी जनपद का ही होने के कारण स्थानीय ही मान लिया गया.
हम जब कैम्प से गाँव की और बढ़ रहे थे तो कुछ जवान वोलीबॉल खेल रहे थे लेकिन मिलम में हवाएं इतनी तेज चलती हैं कि बॉल गुब्बारे जैसी उडी जा रही थी. रास्ते में हमें मापा के उस झरने को भी देखा जिसका पानी पहाड़ी से गिरता तो है लेकिन नीचे आने तक ज्यादातर पानी तेज हवा में उड़ जाता है. मर्तोली में भी इस हवा का अजाब नजारा दिखा जब नारंगी चौंच वाले च्यांग काऊ टोला की और उड़ान भर रहे थे लेकिन हवा उनको वापस धकेल देती थी. योसी के साथ तो और बुरा हुआ. एक जगह पर वह अपना बैग रखे लघुशंका के लिये कुछ दूर गया लेकिन बेचारे का बैग हवा की मेहरबानी से भीग गया.
तो मिलम में हमने इन तूफानी हवाओं के साथ प्रवेश किया और पूरे गाँव को पार कर अंतिम घर में रावत जी की शरण ली. रावत जी थल में रहते थे लेकिन सीजन में मिलम आते और अपने घर में लौज चलाते. साथ ही जड़ी बूटियाँ और जम्बू की खेती भी करते. हम रावत की के पास सामान छोड़ गाँव भ्रमण पर निकल गए. एक बिगडैल झुपू के सींगों से बाल-बाल बचकर एक अम्मा के घर जा पहुचे. अम्मा ने हमें एक बड़ी बोतल में भर कर छांग दे दी. अँधेरा होने के बाद अपने डेरे में वापस पंहुचे तो खाना बन रहा था.
अम्मा की दी छांग में से थोड़ी-थोड़ी हम लोगों ने भी ली और बाकी कुंवर और फ़कीर दा के हवाले की. फ़कीर दा ने तो नहीं ली लेकिन कुंवर भर पेट पी गया. पिया तो असर भी होना ही था. उधर लेलिन भी आज बाकी दिनों से ज्यादा भारी डोज ले बैठा. शायद आज उसने बीड़ी में लपेट कर दम लगा ली. हमारे सामने एक दम में सेट अंग्रेज था और दूसरा छांग पीकर धुत्त पहाड़ी. एक को पहाड़ी का प तक पता नहीं और दूसरा अंग्रेजी से अनजान. खाना आते-आते उनके बीच किसी बात पर तगड़ी बहस शुरू हो गयी. ऐसा लग रहा था कि अब लड़े तब लड़े. माजरा समझते-समझते हमें भी कुछ देर लगी.
हुआ यूँ कि जब हम कैम्प में इंट्री करा के आगे बड़े तो कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि हम इसी जनपद से थे. लेलिन की भी कोई दिक्कत न थी क्योंकि वह अपने साथ स्थानीय गाइड लाया था. फ़कीर चूँकि हमारे साथ था इसलिए योसी का अकेले यहाँ आना बकौल कुंवर एक खतरनाक अपराध था. आते समय पुलिस ने फ़कीर को उसका गाइड समझा था लेकिन उसको सच्चाई पता चल जाएगी. कुंवर की आँखे लाल थी और आवाज तेज और वह चेतावनी दे रहा था कि सुबह योसी को पुलिस ले जायेगी. अधिकांश बातें वह जोहारी पहाड़ी में कर रहा था इसलिए उसके कहे में से पुलिस, योसी और जेल शब्द सबकी समझ आ रहे थे. हाव भाव से ऐसा लग रहा था कि वह योसी को धमका रहा है.
लेलिन को लगा जैसे कुंवर अपनी हद पार कर रहा है और वह उसे अंग्रेजी में हड़काने लगा. उसका कहना था कि उसने कुंवर को बढ़िया खाना खिलाया, अच्छे पैसे दे रहा है, यहाँ तक कि दो तीन जोड़ी मोज़े भी दिए. बूट भी दे देगा लेकिन अब यह मेरे दोस्त को पुलिस और जेल की धमकी दे रहा है. वह भी अंग्रेजी में बोल रहा था इसलिए उसके हाथों के इशारे और बूट शब्द से कुवर को लगा कि लेलिन उसे बूट से मारने की धमकी दे रहा है. बदले में इसने भी ठेठ पहाड़ी परंपरागत गालियाँ बरसानी शुरू कर दी जिनमें कुछ मनुष्य के कुछ रिश्तेदारों के कुछ अंगों के नाम आते थे. वहीं लेलिन ने हॉलीवुड वाली फिल्मों में सुनाई देने वाली वही रिश्तेदार और अंग विशेष के नाम वाली गालियाँ देनी शुरू कर दी.
(Milam Travelogue by Vinod Upreti)
इस वार्तालाप को लगभग घंटाभर होने को आया. योसी बेचारा नमक खाए मुर्गे जैसा एक कोने में दुबका था और उसके कान खड़े थे. मैं और कमल दा भेद की खालों में लेटे हँसते-हँसते फटे जा रहे थे और फ़कीर दा लगभग सो गया था. उन दोनों के इस भयंकर वार्तापाल को देखकर मुझे मालगुड़ी डेज की वह कहानी याद आ गयी जिसमें एक ग्रामीण किसी विदेशी को बकरी के भ्रम में देवता की मूर्ती बेच देता है. इतने में दोनों को न जाने क्या हुआ कि कुंवर ने लेनिन के गिलास में छान डाल दी और लेनिन ने दम भरी बीड़ी कुंवर को पकड़ा दी. दोनों नशे मिल गए और दोनों ये भूल गए कि वह लड़ क्यों रहे हैं.
रावत जी ने खाने के लिए आवाज दी. हमने आलू और थोया की पत्तियों की लजीज सब्जी के और मसूर की दाल के साथ भात भाकोसा और पसर गए. अगली सुबह जब लेलिन को खो जाना था और कुंवर की जान गले में आनी थी. अब कौन पुलिस के हत्थे आएगा किसी को नहीं पता.
काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
3 Comments
Mrigesh
वाह. मजेदार.
कमल लखेड़ा
संस्मरण तो मज़ेदार है ही, लाॅकडाउन में बनी पेंटिंग गज़ब है !!!
विनोद यादव
भाई आपकी सभी लेखनी और रूचि कहर ढा ती है
ऐसा लगता है की मै अपनी ही कहानी को पुनरावृति के साथ पढ़ रहा हूँ