गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी ऐसे चितेरे कवि-गायक हैं जो अपने गीतों में लोकजीवन, लोक-संस्कृति के साथ कुदरत का समूचा चित्र उकेरते हैं. जहां एकओर उनके गीतों में लोक तत्त्वों का गहरा समावेश रहता है, वहीं भरपूर अलंकारिकता भी रहती है, लेकिन उपमान खालिस स्थानिक तत्त्वों से भरे होते हैं.
(Mera Dandi kanthiyon ka Muluk)
रीति-रिवाज परंपराओं को लेकर ऐसा कोई पहलू शेष नहीं बचता, जिसे उन्होंने न छुआ हो. उनकी भाषा जितनी सरल है, उतनी ही सटीक भी. इसीलिए उनके गीतों से हर कोई गहरा जुड़ाव महसूस करता है. पर्वतीय परिवेश का कोई विरला ही वाशिंदा होगा, जिसने उनके गीतों को जीवन में कभी न सुना हो, न गुनगुनाया हो. महानगरों में पली-बढ़ी पीढ़ी के लिए तो उनके गीत अपनी जड़ों से जुड़े रहने का एकमात्र जरिया साबित हुए. नेगी जी के गाए ऐसे सैकड़ों गीत है, जो आम इंसान के दिलोंदिमाग में छाए हुए हैं. कहीं न कहीं उनके जीए जीवन को बिंबित करते हैं.
इस पर्वतीय प्रदेश में बसंत की छटा चरम पर होती है. उसकी उमंग और आबोहवा देखते ही बनती है. इसीलिए बारहमासी गीतों में उनके सबसे ज्यादा गीत बसंत पर हैं.
मेरा डांड्यों काठ्यों का मुलुक जैल्यू… शीर्षक गीत में कवि आह्वान करता है कि मेरे पर्वत-चोटियों के मुल्क में अगर जाना हो तो बसंत ऋतु में जाना. जब हरे-भरे वन में बुरांश के फूल पूरे वन को दहका रहे हों. समूचे भीटे-पाखे फ्यूंली के पीले रंग से रंगे होंगे. लैयां (सरसों), पैंया, ग्वीर्याल़ (कचनार) के फूल खिले हों. तुम उस श्रृंगार की हुई धरती को देख आना.
(Mera Dandi kanthiyon ka Muluk)
बसंत में जब बुरांश खिलता है तो लगता है मानो हरे-भरे वन में बणांग (बड़वाग्नि, जंगल की आग) लग गई हो. चिनार भी ऐसे ही धधकता है. मुगल बादशाह जहांगीर एक बार अपने पूरे लावलश्कर के साथ कश्मीर दौरे पर थे. पहली बार घाटी पार करते ही धधकते जंगल को देखकर उन्होंने स्थानीय अहलकार से फारसी में पूछा- चि-नार? वह कौन सी आग है. पर्शियन में फायर के लिए ‘नार’ धातु का इस्तेमाल होता है.
फ्यूंली का फूल भीटे-पाखों (दो खेतों के बीच ऊबड़-खाबड़ जमीन, कटील, ढ़लवा जमीन, जहां नो मैंसलैंड हो, जहां इंसान की पहुंच कम हो) खुलकर खिलता है.
फूलदेई के अवसर पर बिंसरी (मुंहअंधेरे) कुमारी बालिकाएं फूल चुनकर दहलीज के दोनों कोनों पर फूल चढ़ाती हैं. परंपरा में सूर्योदय से पहले फूल चढ़ाना जरूरी होता है चूंकि उस समय तक भौरौं-तितलियों ने फूलों के पराग को नहीं चखा होता है.
चैत की बयार में दूसरा ही वातावरण बन जाता है. घसियारियों के गीतों से चोटियां-घाटियां गूंजती रहती हैं. चरवाहे बच्चे खेल में रंगमत्त (अलमस्त) रहते हैं. दौड़ते पशुओं की गले की घंटियों की घमणाट (संगीतमय छटा) सुनाई देती हैं. आखिरी अंतरे में अपनी मातृभूमि को याद करते हुए कवि कहता है कि ‘वहीं कहीं मेरा बचपन भी बिखरा हुआ है. समेट सकोगे तो समेटकर ले आना.
(Mera Dandi kanthiyon ka Muluk)
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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