समुद्र-सतह से 12,073 फुट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ को संसार में सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित शिव मंदिर बताया जाता है. चोपता अत्यधिक घने जंगलों, मखमली घास के बुग्यालों और हिमालय की चोटियों के नयनाभिराम दृश्यों के कारण ’मिनी स्विटजरलैंड’ के रूप में प्रसिद्ध हो चुका है. स्विटजरलैंड सहित यूरोप के अनेक देशों का भ्रमणन कर चुके एक मित्र ने सालों पहले मुझे बताया था कि चोपता उसे स्विटजरलैंड से ज्यादा खूबसूरत लगा. (Chopta Tunganath Yatra 2024)
पहली बार 1998 में यहां आने का मौका मिला था. इस बार, अप्रैल 2024, की यात्रा तुंगनाथ की मेरी पांचवीं यात्रा थी. आम तौर पर अप्रैल में यहां खिलने वाले गुलाबी रंग के बुरांस के फूलों को देखने की प्रबल इच्छा वर्षों से मन में थी, हालांकि यहां कम ऊंचाई पर लाल तथा ज्यादा ऊंचाई वाले जंगलों पर सफेद रंग के बुरांस भी पाये जाते हैं.
हम पांच यात्री कार द्वारा अल्मोड़ा से सुबह साढ़े चार बजे यात्रा पर निकल पड़े. पौ फटने से पहले ही हम कौसानी पार कर बागेश्वर जनपद में प्रवेश कर चुके थे और जब चमोली जनपद की सीमा में प्रवेश करके ग्वालदम पहुंचे तब सुबह के साढ़े सात बजे थे और इस खूबसूरत पहाड़ी कस्बे की अधिकतर दुकानें व ढाबे नहीं खुले थे. कर्णप्रयाग और गोपेश्वर होते हुए हम आश्चर्यजनक रूप से दोपहर में चोपता पहुँच गये. आश्चर्य इसलिये कि पहले करीब दो सौ किलोमीटर दूर स्थित गोपेश्वर पहुंचने तक ही शाम हो जाती थी, ऊपर से यात्रा की अत्यधिक थकान अलग. जल्दी, बिना थके मंजिल तक पहुंचाने का श्रेय हाल के सालों में ग्वालदम से कर्णप्रयाग, गोपेश्वर और आगे चोपता तक मोटर रोड की दशा में सुधार के साथ ही हमारी खुशमिजाज़ साथी और कुशल ’सारथी’ तनीषा को जाता है.
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गोपेश्वर से चोपता की दूरी 39 किलोमीटर है. रास्ते में मंडल गांव पड़ता है जहां से माता अनुसूया मंदिर और अत्रि ऋषि की गुफा के लिये पैदल मार्ग है. यह जगह हरी-भरी और खूबसूरत लगती है. वनों को व्यावसायिक दोहन से बचाने के लिये 1970 के दशक का विश्वविख्यात चिपको आंदोलन मंडल से ही शुरू हुआ था. यहां एक ढाबे में हमने भोजन किया. ढाबे के साथ ही छोटा सा यात्री-लॉज भी था, जहां करीब डेढ़ दशक पहले मैं परिवार के साथ एक रात रुका था. ढाबे तथा लॉज चलाने वाले सज्जन को यह बात बतायी तो उन्होंने कहा कि अब स्थिति बिल्कुल बदल गयी है और रोजाना सैकड़ों यात्री यहां सैर-सपाटे को पहुंचने लगे हैं. यात्रियों की आमद बढ़ने से व्यवसाय पहले की तुलना में बहुत अच्छा चल रहा है. यह बात समझ में नहीं आयी कि व्यवसाय फलने-फूलने के बावज़ूद ढाबे, यात्री-लॉज और उन सज्जन में से किसी की भी दशा क्यों नहीं सुधरी हुई दिखी. लॉज में पहले से कहीं ज्यादा गंदगी दिखी.
चोपता तक पूरा रास्ता बहुत घने जंगल से आच्छादित है. संयोग या सौभाग्य कुछ भी कहें, जाते-आते दोनों वक्त मोनाल, कस्तूरा मृग, हिमालयी थार, घुरड़, काकड़, इत्यादि वन्य जन्तुओं तथा पक्षियों के दर्शन हर मोड़ पर हुए. मंडल से चोपता के रास्ते में कांचुला खर्क भी बहुत सम्मोहक जगह है जहां थोड़ा ठहर कर हमने प्रकृति के दृश्यों का आनंद लिया.
मंडल से आगे रास्ते में पहले सुर्ख लाल रंग के बुरांस खिले दिखे लेकिन जैसे ही चोपता नजदीक आने वाला था दूर-दूर तक सड़क के ऊपर तथा नीचे हल्के गुलाबी रंग के बुरांस के फूलों से शोभित अनगिनत वृक्ष नज़र आने लगे. चोपता पहुंच कर सबसे पहले एक यात्री लॉज में हमने अपने ठहरने का इंतजाम किया. हमें दो हजार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से दो कमरे मिल गये. चाय पीकर हम भी विश्राम करने चले गये. शाम को करीब चार बजे मक्कूमठ जाने का कार्यक्रम बना. चोपता से मक्कूमठ की दूरी अठाइस किलोमीटर है. पैदल रास्ते से बहुत कम दूर पड़ता है. चोपता से मक्कूमठ के रास्ते में जंगल के बीच जगह-जगह जंगल के बीच पर्यटकों के लिये तम्बुओं वाले रिसॉर्ट दिख रहे थे.
ऊखीमठ होते हुए केदारनाथ को जाने वाली इस सड़क को छोड़ कर हम मक्कूमठ की संकरी सड़क पर आगे बढ़ते हुए एक बार पुनः अत्यन्त सघन वन के बीच से गुजर रहे थे. समुद्र सतह से 2,100 मीटर पर बसे दो सौ से अधिक मकानों वाले सुरम्य गांव मक्कूमठ के बारे में सबसे पहले रस्किन बांड की किताब में पढ़ा था. तब वहां लकड़ी, पत्थर और मिट्टी से बने पारंपरिक मकान होते थे जिनकी ढालदार छत पत्थर की स्लेटों की होती थी. रस्किन बांड जिस घर में ठहरे थे उसकी छत पर धूप में सुखाने रखे हुए कद्दुओं को चुराने एक रात भालू आ धमकता है. मैं उस दृश्य की कल्पना कर रहा था किन्तु अब गांव में पारंपरिक मकानों की जगह सीमेंट-कंक्रीट के मकानों ने ले ली है. सबसे पहले हम मर्कटेश्वर मंदिर गये. तुंगनाथ मंदिर के कपाट शीतकाल के लिये बंद होने के बाद उनकी प्रतीकात्मक मूर्ति की पूजा इसी मंदिर में होती है. जब हम वहां पहुंचे उस वक्त मंदिर बंद था. आसपास के घरों में पूछताछ करने पर लोगों ने बताया कि पंडितजी सात बजे के आसपास आयेंगे. दो घंटे इंतजार करें या वापस चल दें, सबके मन में दुविधा थी. प्रसाद और भेंट एक खिड़की से मंदिर के अंदर रख कर हम वापस लौट गये.
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मक्कूमठ में नये बने ’स्नो पॉड्’ रिजॉर्ट में फाइबर ग्लास तथा प्लाईवुड से बनी कॉटेज देखने का मन हुआ. तनीषा वास्तुकार है इसलिये इग्लू के आकार की कॉटेज में उसकी रुचि ज्यादा दिखी. चाय तैयार होने में इतना ज्यादा वक्त लगा कि चाय पीने तक मंदिर के खुलने का समय हो गया था. सौभाग्यवश जब हम दुबारा मंदिर पहुंचे तो द्वार खुले थे और पंडितजी आ चुके थे. वहां से चोपता लौटने तक शाम के साढ़े आठ बज गये. सड़क किनारे एक ढाबे में खाना खाकर हम अपने लॉज में पहुंचे और सो गये. अप्रैल का तीसरा सप्ताह था लेकिन चोपता पूस-माघ जैसी ठंड महसूस होने के कारण तीन कंबल व लिहाफ ओढ़ने पड़े.
यात्रा के दूसरे दिन सुबह आठ बजे चोपता से तुंगनाथ की पैदल यात्रा शुरू की. सूर्योदय के सबसे सुन्दर दृश्यों को देखने की आकांक्षा मन में हो तो सुबह उजाला होने के पहले ही प्रस्थान करना चाहिये लेकिन हम ऐसा नहीं कर सके. चोपता-तुंगनाथ का पूरा क्षेत्र केदारनाथ वन्यजीव विहार के अन्तर्गत आता है जिसकी स्थापना 1972 में की गयी. यह वाइल्डलाइफ सैंचुरी 975 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है. अब वन विभाग द्वारा भारतीय पथारोहियों से दो सौ रुपये तथा विदेशियों से आठ सौ रुपये प्रति यात्री की दर से प्रवेश-शुल्क लिया जाने लगा है. तीर्थयात्रियों से शुल्क नहीं लिया जा सकता इस कारण तुंगनाथ मंदिर के कपाट खुलने के दौरान प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता. सुबह जल्दी निकलने वाले यात्री भी शुल्क से बच जाते हैं, क्योंकि आठ बजे से पहले वन विभाग का टिकट काउंटर नहीं खुला था.
अश्व-मार्ग के दोनों तरफ बुरांस के फूलों से लदे हुए वृक्षों को देख कर ऐसा लग रहा था मानो धरती पर पर स्वर्ग आ गया हो. थोड़ी चढ़ाई के बाद मखमली घास से ढका बुग्याल दिखा. यहां विश्राम का मन हुआ लेकिन राबर्ट फ्रॉस्ट की कविता की पंक्तियों का स्मरण हुआ- ’’मुझको मीलों है चलना, सो जाने से पहले…’’ चढ़ाई कठिन होने के कारण चार किलोमीटर चलने में तीन घंटे का समय लग जाता है. रास्ते में तीन-चार जगहों पर चाय-पानी की दुकानें हैं. मौसम साफ होने के कारण चौखम्बा और केदारनाथ सहित अनेक हिमालयी चोटियों के दर्शन हुए. ऊंचाई से नीचे की तरफ़ चोपता, दोगलबिट्टा, ऊखीमठ के आसपास के गांव, जंगल और जंगलों के बीच में जगह-जगह बनायी गयीं कैंपिंग साइट्स दिख रही थी.
संरक्षित वन क्षेत्र होने के कारण यात्रियों के लिये बहुत सारे नियम-क़ायदे साइन बोर्ड में लिखे गये हैं, जैसे- अवैध रुप से बुग्यालों में प्रवेश न करें, रास्ते पर ही चलें और शार्टकट न लें ताकि मिट्टी ढीली होकर बहे ना, चिडियों की आवाजों को बजा कर उन्हें भ्रमित नहीं करें, कचरा नहीं फैंकें इत्यादि. लेकिन यात्री शार्टकट से आ जा रहे थे, शोरशराबा कर रहे थे और रास्ते में जगह-जगह प्लास्टिक की बोतलें, रैपर्स इत्यादि भी बिखरे दिखे. चोपता में हमारे यात्री लॉज में भी कई यात्री हुडदंग मचा रहे थे जिसके लिये हमें वहां के कर्मचारियों से शिकायत भी करनी पड़ी. गढ़वाल में स्थित भगवान शिव के पांच प्रमुख मंदिरों में, जिन्हें पंचकेदार (केदारनाथ, मदमहेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और कल्पेश्वर) के रूप में जाना जाता है, सबसे ऊंचाई पर स्थित होने के कारण ही इसे तुंगनाथ कहा जाता है. पंचकेदार के पांचों मंदिरों का सम्बन्ध पांडवों से है. हमें मक्कूमठ में पता चल गया था कि तुंगनाथ मंदिर के कपाट इस साल 10 मई को सुबह 7 बजे खुलने वाले हैं. रोचक बात यह भी लगी कि मक्कूमठ से तुंगनाथ पहुंचने में भगवान की उत्सव मूर्ति को तीन-चार दिन लग जाते हैं.
तुंगनाथ से दो किलोमीटर की कठिन चढ़ाई चढ़ कर चन्द्रशिला पहुंचे जो समुद्र सतह से करीब चार हजार मीटर ऊंचाई पर स्थित है. स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के अनुसार यह वह जगह है जहां चन्द्रमा द्वारा क्षय रोग से मुक्ति के लिये भगवान शंकर का तप किया गया जिस कारण इसका नाम चन्द्रशिला पड़ा. चोपता से चन्द्रशिला तक 5-6 किलोमीटर के पैदल मार्ग में हमें दो-तीन सौ यात्री मिले जिनमें भारत के विभिन्न राज्यों से आये लोगों के अलावा विदेशी भी बड़ी संख्या में थे. जानकारी मिली कि यात्रा सीजन में तड़के सुबह से देर रात तक पैदल यात्रियों की आवाजाही रहती है. सप्ताहांत में रुद्रप्रयाग व गढ़वाल के आसपास के जनपदों से भी बड़ी संख्या में लोग सैरसपाटे को आने लगे हैं. हमें मसूरी से ट्रैकिंग के लिये आये साठ छात्र-छात्राओं का एक बड़ा दल भी मिला. मंदिर बंद होने के कारण तीर्थयात्रियों की आवाजाही अभी बंद थी और यह सप्ताहांत या छुट्टी का दिन भी नहीं था. यात्रा-सीजन में यहां यात्रियों और घोड़ों की भारी आवाजाही में कितनी भीड़ और अफरा-तफरी होती होगी, इसकी कल्पना कर सकते हैं. दोपहर में जब हम चन्द्रशिला पहुंचे हिमालय की नन्दादेवी, त्रिशूल, केदार, बंदरपूंछ, चौखम्बा आदि चोटियां मंत्रमुग्ध कर रही थीं. इतनी अधिक ऊंचाई (13,300 फुट से अधिक) पर होना भी हमारे लिये बहुत रोमांचकारी अनुभव था.
वापसी में नीचे उतरना आसान था हालांकि गिरने-फिसलने की आशंका बढ़ जाती है. बहुत सारे पदयात्री इस समय तुंगनाथ की तरफ जा रहे थे. इनमें मैदानी इलाकों से आये अनेक ऐसे लोग भी दिखे जिन्हें ऊंचे पहाड़ी रास्तों पर चलने का न अनुभव था न समुचित जानकारी ही. अनेक महिलायें ऊंची हील वाली सैंडल के कारण तो कई यात्री गोद में बच्चों के कारण परेशान दिखे. कुछ ऐसे लोग थे जो अपने व बच्चों के लिये गर्म कपड़े लेकर नहीं आये थे और ठंड से चिंतित थे. ऐसे यात्री भी मिले जो चोपता-तुंगनाथ के बारे में सुन-पढ़ कर यहां आ तो गये थे लेकिन उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि यहां देखने लायक है क्या! कार में चोपता पहुंचे एक सज्जन निराश होकर अपनी पत्नी से कह रहे थे, ’’यहां देखने लायक कुछ नहीं है, चलो शॉपिंग कर लेते हैं.’’
चोपता-तुंगनाथ में सारे यात्री लॉज और ढाबे मक्कूमठ के निवासियों के हैं. प्राचीन परंपरा से तुंगनाथ मंदिर के पुजारी भी इसी गांव से होते हैं. तुंगनाथ से वापसी में पैदल रास्ते के किनारे लकड़ी व घास-फूस से बने एक ढाबे में हमने मैगी नूडल्स खाये और चाय पी. यह ढाबा मक्कूमठ निवासी एक बुजुर्ग महिला अपने अधेड़ उम्र के बेटे और नौजवान पोते के साथ मिलकर चला रही थीं. बेटा फौज से रिटायर होकर आया है जबकि पोता नौकरी की तलाश कर रहा है. वृद्ध महिला ने बताया कि पैंतालीस साल पहले वह यहां चार आने की चाय बेचती थीं जकि आज बीस रुपये की एक कप हो गयी है. उन्होंने बताया कि पहले जमाने में आलू, पूड़ी, दाल-भात, सूजी का हलवा जैसी चीज़ें ही बनाते और बेचते थे, मैगी नहीं. पर्यटकों व तीर्थयात्रियों को परोसे जाने वाले भोजन में स्थानीय व्यंजनों का अभाव चार-धाम यात्रा मार्ग में सहित कुमाऊं व गढ़वाल के सभी प्रमुख दर्शनीय स्थलों में दिखता है. इस पर ध्यान देंगे तो स्थानीय ग्रामीण उत्पादों के उत्पादन, बिक्री और उत्पादकों की आय बढ़ाने के साथ ही यात्रियों को ताज़ा, पौष्टिक भोजन मिल सकेगा. विचारणीय प्रश्न है कि यात्रा मार्ग की सभी दुकानों व ढाबों में यात्रियों के खाने-पीने को सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उत्पादित मिनरल वाटर, शीतल पेय, नूडल्स, आलू के चिप्स, बिस्कुट इत्यादि ही क्यों उपलब्ध रहते हैं?
हम तुंगनाथ से करीब ढाई बजे वापस लौटे. रास्ते में मोनाल के दर्शन हुए. एक घंटा आराम करने के बाद हम ऊखीमठ को चल पड़े जो मक्कूमठ जितना ही दूर है. ऊखीमठ के आसपास दो जगहों पर जंगल में आग लगी थी जिसके कारण धुंध छायी थी और सड़क पर पेड़ और पत्थर गिरने की आशंका हो रही थी. स्थानीय ग्रामीण जंगलों को जलते देख चिंतित भी नहीं दिख रहे थे. वन संरक्षण के नियम-कानूनों के कारण ’’ये जंगल हमारे हैं, हमें प्राणों से भी प्यारे हैं’’ जैसे चिपको आंदोलन के दौर (1970 का दशक) में लगे नारों का खास मतलब नहीं रह गया है क्योंकि वन विभाग जाने या अनजाने लोगों को यही संदेश देता आया है कि जंगल सरकार के हैं.
ऊखीमठ का प्राचीन ओंकारेश्वर मंदिर विशाल और भव्य दिखता है. भगवान ओंकारेश्वर के अलावा शीतकाल में यहां भगवान केदारनाथ और मदमहेश्वर की पूजा भी यहीं होती है. पौराणिक कथाओं के अनुसार उषा (असुर बाणासुर की पुत्री) और अनिरुद्ध (श्रीकृष्ण के पौत्र) का विवाह यहीं सम्पन्न हुआ था. उषा के कारण इसका नाम पहले उषामठ पड़ा जो बाद में ऊखीमठ हो गया. मंदिर में पूजा-अर्चना के उपरांत हम वापस चोपता को चल पड़े.
तीसरे दिन सुबह साढ़े छः बजे चोपता से अल्मोड़ा को प्रस्थान किया. सुबह के वक्त वन्यजीवों के दिखने की संभावना ज्यादा लग रही थी जो सच हुई. मंडल तक रास्ते में पहले दो कस्तूरा मृग दिखे, उसके बाद हिमालयी थार का बड़ा झुंड सड़क पर दिखा, फिर उत्तराखड के राज्य-पक्षी मोनाल के दर्शन हुए और आगे काकड़, लंगूरों के झुंड तथा भांति-भांति के पक्षी दिखे. गोपेश्वर में हम प्राचीन गोपीनाथ मंदिर गये जहां शीतकाल में रुद्रनाथजी की उत्सव मूर्ति की पूजा भी की जाती है. इस मंदिर में स्थित बहुत बड़े आकार का एक प्राचीन त्रिशूल भी रखा गया है. हम चिपको आंदोलन से जुड़े विश्व-प्रसिद्ध सर्वोदयी कार्यकर्ता चंडीप्रसाद भट्टजी से मिलने उनके घर भी गये जो अब 90 वर्ष के हैं. भट्टजी और उनके पुत्र ओम प्रकाश (पत्रकार) के साथ करीब पौन घंटा बातचीत हुई. शाम सात बजे हम वापस अल्मोड़ा पहुंच गये.
चोपता में बुरांस खिले हुए देखने का वर्षों पुराना सपना साकार हुआ. इसे मिनी स्विटजरलैंड कहा जाता है. प्राकृतिक सुन्दरता में देवभूमि के पर्यटन व तीर्थ स्थल इतने अप्रतिम व अद्भुत हैं कि इनकी तुलना किसी से करने की आवश्यकता ही नहीं है. लेकिन सोचने-विचारने की बात यह है कि क्या हमारे पर्यटन स्थलों को साफ-सुथरा, प्रदूषण से मुक्त रखने के प्रति हम उतने जागरूक हैं जितने स्विटजरलैंड के लोग और सरकार हैं? पर्यटन/तीर्थाटन को प्रचारित-प्रसारित करना पर्याप्त है या पर्यटकों/तीर्थयात्रियों के वास्ते जरूरी सुविधाएं— स्वच्छ, साफ-सुथरे शौचालय, स्वच्छ पेयजल, उचित दरों पर यातायात, भोजन व आवास के इंतजाम सुनिश्चित करने के बारे में कदम उठाने चाहिये. ये सब मुद्दे ऐसे हैं जो इस यात्रा के दौरान आधे-अधूरे, अस्त-व्यस्त व अव्यवस्थित दिखे. यात्री लॉज व होम-स्टे में रहने या खाने-पीने की चीज़ों की दरें तय नहीं हैं या काफी ज्यादा हैं. जैसे, नहाने के लिये एक बाल्टी गरम पानी सौ रुपये में मिल रहा था. अतिथि-सत्कार जैसा कुछ नहीं महसूस हुआ. जब पहली बार चोपता में रुका था तब इक्का-दुक्का यात्री लॉज थे लेकिन इनके संचालक यात्रियों की सुख-सुविधा का बहुत ध्यान रख रहे थे. पर्यटन/तीर्थाटन को केवल आमदनी के ज़रिये के रूप में देखने की बजाय सांस्कृतिक व शैक्षिक दृष्टि से भी देखने का प्रयास करेंगे तो बेहतर होगा. इसके साथ ही चोपता-तुंगनाथ जैसे क्षेत्रों में जो घने प्राकृतिक वनों, बुग्यालों, बहुमूल्य वन-सम्पदा, वन्यजीव-जन्तुओं व पक्षियों की विविध प्रजातियों से भरपूर है साथ ही पर्यावरण की दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण है उतना ही नाजुक भी, प्रकृति व वनों के संरक्षण, स्थानीय समुदायों के हितों व उनकी जरूरतों, आजीविका, आने वाले सैलानियों, प्रकृति-प्रेमियों व तीर्थयात्रियों की सुख-सुविधा आदि के मुद्दों पर जो आपस में परस्पर जुड़े हैं, समग्रता से विचार कर ठोस कदम उठाने की जरूरत है. (Chopta Tunganath Yatra 2024)
अल्मोड़ा में रहने वाले कमल कुमार जोशी उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान, अल्मोड़ा में कार्यरत हैं. यात्राओं और फोटोग्राफी के शौक़ीन हैं. स्वतंत्र लेखक के तौर पर कई नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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